जम्मू-कश्मीर का जनादेश इस बार भी एक गठबंधन सरकार के पक्ष में आया. कश्मीर घाटी में मुफ्ती मोहम्मद सईद की पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) को बड़ी कामयाबी मिली और जम्मू क्षेत्र में भाजपा को. लेकिन भाजपा के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और पार्टी अध्यक्ष अमित शाह ने 44 प्लस का जो एजेंडा तय किया था, वह पूरा नहीं हुआ. घाटी और लद्दाख ने भाजपा की सियासत को पूरी तरह नकार दिया. भाजपा के दबदबे वाले जम्मू संभाग में कांग्रेस, नेशनल कॉन्फ्रेंस और पीडीपी, तीनों को सीटें मिली हैं. लेकिन चुनावी नतीजे से सूबे में सत्ता-समीकरण की तीन-तीन तसवीर उभर रही है.
पहली, पीडीपी की अगुवाई वाली एक ऐसी सरकार की सूरत नजर आ रही है, जिसमें कांग्रेस और अन्य उसका साथ दें. दूसरी, पीडीपी अगुवाई वाली ऐसी सरकार की हो सकती है, जिसका भाजपा समर्थन करे या सरकार में शामिल हो. तीसरी, भाजपा-नेशनल कॉन्फ्रेंस और अन्य की हो सकती है. सूबाई सियासत के मिजाज को देखें, तो पीडीपी-कांग्रेस और अन्य का समीकरण ज्यादा सहज और स्वाभाविक नजर आता है. लेकिन सियासत में हमेशा सहज और स्वाभाविक ही नहीं घटित होता!
2002 के विधानसभा चुनाव के बाद पीडीपी और कांग्रेस ने मिल कर सरकार बनायी थी. तीन साल पीडीपी के मुफ्ती मोहम्मद सईद और बाकी तीन साल कांग्रेस के गुलाम नबी आजाद सूबे के मुख्यमंत्री रहे. इस दफा कांग्रेस वैसी ताकत लेकर नहीं उभरी है, इसलिए मुख्यमंत्री पद के लिए वह दावा नहीं कर सकती. लेकिन सरकार में हिस्सेदारी पर दोनों संभावित सहयोगी राजी हो सकते हैं. कांग्रेस-समर्थन और कुछ निर्दलीय सदस्यों को लेकर पीडीपी की सरकार आसानी से बन सकती है. घाटी का सियासी मिजाज और चुनावी-जनादेश ऐसे ही संकेत दे रहे हैं.
मुफ्ती मोहम्मद सईद और उनकी सांसद-पुत्री महबूबा मुफ्ती घाटी में बहुत घाघ सियासतदान माने जाते हैं. 2002 के चुनावी जनादेश के बाद सरकार के गठन में पीडीपी के साथ कांग्रेस की लंबी सियासी कवायद चली थी. गुलाम नबी आजाद और अंबिका सोनी जैसे नेताओं से बात नहीं बनी, तो सोनिया गांधी ने राज्यसभा में विपक्ष के तत्कालीन नेता डॉ मनमोहन सिंह को अपना विशेष दूत बना कर घाटी भेजा था. डॉ सिंह और मुफ्ती ने अंतत: सत्ता का नया समीकरण तलाशा और दोनों की मिलीजुली सरकार बनी. तब केंद्र में भले ही अटल बिहारी वाजपेयी की अगुवाई वाली एनडीए सरकार थी, लेकिन सूबे में भाजपा कोई सियासी-उलटफेर करने की हालत में नहीं थी.
उसे सिर्फ एक सीट मिली थी, लेकिन इस बार उसे 25 सीटें मिली हैं. यदि वह नेशनल कॉन्फ्रेंस या पीडीपी में से किसी एक को सत्ता में हिस्सेदारी के लिए तैयार कर ले, तो राज्य में सत्ता का नया समीकरण उभर सकता है. यह गंठबंधन सरकार की बिल्कुल नयी तसवीर होगी. क्या पीडीपी या नेशनल कॉन्फ्रेंस जैसे दल भाजपा जैसी सियासी ताकत से गंठबंधन को राजी होंगे? यह एक बड़ा प्रश्न है. केंद्रीय स्तर पर वाजपेयी की अगुवाई वाले एनडीए में फारूक अब्दुल्ला की नेशनल कॉन्फ्रेंस सहयोगी पार्टी थी, लेकिन राज्य में भाजपा के साथ उनका कोई खास रिश्ता नहीं था. घाटी में किसी दल ने आज तक भाजपा की हिस्सेदारी में सरकार नहीं बनायी है.
पीडीपी में नेताओं का एक हिस्सा भाजपा को अछूत मानने के खिलाफ नजर आ रहा है. स्वयं पार्टी प्रवक्ता नईम अख्तर कह चुके हैं कि पीडीपी सरकार बनाने के लिए भाजपा से भी बातचीत कर सकती है. ऐसे नेताओं का मानना है कि जम्मू-कश्मीर में सरकार को बेहतर ढंग से चलाने के लिए केंद्र से सौ फीसद सहयोग-समर्थन चाहिए. ऐसे में भाजपा को ‘अछूत’ कैसे माना जा सकता है? पार्टी नेताओं का दूसरा खेमा तर्क दे रहा है कि भाजपा अगर अनुच्छेद-370 एवं समान नागरिक संहिता जैसे अपने अत्यंत विवादास्पद एजेंडे को हमेशा के लिए दफन करने को तैयार हो और इस आशय के साझा कार्यक्रम के साथ सरकार बने, तो पार्टी या कश्मीर घाटी में शायद ही किसी को असहमति होगी.
लेकिन क्या भाजपा इसके लिए तैयार होगी? आरएसएस का नेतृत्व क्या भाजपा या केंद्र के मौजूदा नेतृत्व को ऐसे किसी न्यूनतम साझा कार्यक्रम पर तैयार होने देगा? भाजपा भले ही कश्मीर घाटी और लद्दाख में शून्य पर रही, लेकिन सत्ता में आने के लिए वह गंठबंधन का प्रयोग आजमाने से इनकार नहीं कर रही है. अमित शाह कह चुके हैं कि भाजपा के लिए कश्मीर में सत्ता-समीकरण तलाशने के विकल्प खुले हैं. शाह की इस आशय की टिप्पणी से साफ है कि भाजपा विपक्ष में बैठने का फैसला कोई गंठबंधन-सहयोगी नहीं मिलने की मजबूरी में ही करेगी.
भाजपा को लगभग सारी सीटें जम्मू से मिली हैं. कश्मीर घाटी में उसे कुछ भी हासिल नहीं हुआ है, जिसका दावा पार्टी के बड़े नेता; यहां तक कि प्रधानमंत्री मोदी और खुद अमित शाह भी कर रहे थे. उन्हें यकीन था कि घाटी में कश्मीरी पंडितों के वोटों के बल पर वे कुछेक सीटें जीत लेंगे.
हब्बाकदल, अमीराकदल जैसी कुछेक सीटों पर उनकी खास नजर थी, जहां उनके नये स्टार-उम्मीदवार मोती कौल और डॉ हिना बट चुनाव मैदान में उतरे थे. दिल्ली और जम्मू में बसे कश्मीरी पंडितों ने भी भाजपा को निराश किया. सारी व्यवस्था के बावजूद उन्होंने ज्यादा मतदान नहीं किया, जिससे भाजपा के समीकरण बिगड़ गये. दूसरी ओर पीडीपी को कश्मीर घाटी से ज्यादा सीटें मिली हैं. ऐसे में पीडीपी अगर अपने स्वाभाविक गंठबंधन की बात सोचेगी, तो वह कांग्रेस और अन्य के साथ जायेगी. लेकिन अगर वह केंद्र के साथ एक नया दरवाजा खोलने की कोशिश करना चाहेगी, तो वह भाजपा के साथ जायेगी. क्योंकि कांग्रेस के साथ उसके रिश्ते कुछ खट्टे-मीठे ही रहे हैं.
सत्ता के नये समीकरण के फिलहाल दो सूरत-ए-हाल मजबूत नजर आते हैं. सूबे की अवाम का एक बड़ा तबका, खास कर घाटी की अवाम और सियासत के मिजाज को अगर पीडीपी देखेगी, तो वह कांग्रेस और अन्य के साथ ही जाना पसंद करेगी. लेकिन, पीडीपी नेताओं- मुफ्ती मोहम्मद सईद और महबूबा मुफ्ती- के दिमाग में यदि कांग्रेस से गंठबंधन के अलावा कोई और बात होगी, तो वे भाजपा की ओर जा सकते हैं. हालांकि अनुच्छेद-370 जैसे मुद्दों पर ठोस आश्वासन के बगैर भाजपा के साथ गंठबंधन में जाने का उनका निर्णय कश्मीर की सियासत में उनके लिए आत्मघाती हो सकता है. घाटी की अवाम इसे पसंद नहीं करेगी. अगर अनुच्छेद-370 और समान नागरिक संहिता जैसे मुद्दों को भाजपा हमेशा के लिए दफन करने की बात करती है, तो पीडीपी के लिए उसके साथ जाना आसान हो जायेगा. फिलहाल यह राह आसान नहीं है.