जब भी कोई शासन-रूप विफल हुआ है, तब अरब में अंतिम विचार धर्म की ओर लौटना ही रहा है. इसके परिणाम में मदीना से निकला धर्म कम और अरब के अब्दुल वहाब तथा भारत के शाह वलीउल्लाह जैसों की व्याख्याएं ज्यादा प्रभावी रहीं.
युद्धों का प्रारंभ बहुधा भ्रामक प्रस्तावना के साथ और इनका अंत अकसर दुखद उपसंहार के साथ होता है. शीत युद्ध की शुरुआत याल्टा से हुई, जहां विजेताओं के बीच यूरोप का बंटवारा हुआ था. अगर अफगानिस्तान में सोवियत संघ की हार के साथ शीत युद्ध की समाप्ति हुई, तो ठीक यहीं से आतंक के विरुद्ध युद्ध का प्रारंभ हुआ. कोई आश्चर्य नहीं कि अफगानिस्तान में जीत के तुरंत बाद ही विजेताओं के गुट आपस में ही लड़ने लगे. 1945 के विजेताओं ने भी ठीक यही किया था.
वर्ष 1919 से तकरीबन सात दशक पहले ब्रिटेन ने भारतीय उपमहाद्वीप में बचे-खुचे मुगल साम्राज्य को दफ्न कर दिया था. इस महाद्वीप में दुनिया की सबसे बड़ी स्थानिक मुसलिम आबादी रहती है. 1919 में एक अजीबो-गरीब स्थिति पैदा हुई- दुनिया का हर मुसलिम मुल्क यूरोपीय ताकतों के कब्जे या औपनिवेशिक नियंत्रण में आ गया था. ऐसी अपमानजनक स्थिति बर्दाश्त के बाहर थी.
जब गंगा से लेकर नील नदी तक मुसलमान अपने पुनरुत्थान का प्रयास कर रहे थे, उन्होंने मातम में भी सकून का अहसास किया. खिलाफत के प्रति रोमांस एक ताकतवर विचार-भाव था, जो सामुदायिक चेतना में अपनी वास्तविक अस्तित्व से कहीं अधिक गौरवपूर्ण बन गया. जब मुसलमान चौतरफा घेराबंदी में थे, तब खिलाफत इसलाम और उसके पवित्र शहरों की सुरक्षा का प्रतीक बना; और उसका कानून, शरिया, मुसलमानों को आश्वस्त करता था, जो इसे अपने तानाशाहों के संभावित उत्पीड़न के विरुद्ध रक्षा-कवच के रूप में देखते थे. 1919 और 1922 के बीच भारत में महात्मा गांधी ने खिलाफत के जबर्दस्त आकर्षण का उपयोग मुसलमानों को ब्रिटिश शासन के विरुद्ध अपने जनांदोलन से जोड़ने के लिए किया. लेकिन यह विडंबना थी कि तुर्की ने 1924 में खिलाफत की व्यवस्था को ही समाप्त कर दिया.
भारतीय मुसलमानों के अभिजन ने ब्रिटिश चाकू की मदद से 1947 में पाकिस्तान के रूप में अलग देश बना कर अपने रंज को एक हद तक आराम पहुंचाने की कोशिश की. पाकिस्तान उपमहाद्वीप के दो छोरों पर स्थित था और उसे यह भरोसा था कि जिसे ईश्वर के भूगोल ने विभाजित किया है, उसे धर्म एक इकाई के रूप में इकठ्ठा कर सकता है. दक्षिण एशिया में पाक एक तुर्की बन सकता था, लेकिन उसने लोकतांत्रिक उद्देश्यों को धार्मिक आवेगों के साथ मिलाने की कोशिश की, और अंतत: दोनों तरफ की बड़ी बुराइयां ही उसके हिस्से में आयीं. उत्तर-औपनिवेशिक युग में पाकिस्तान पहला इसलामिक राज्य था, और, अपरिहार्य रूप से, लोकप्रिय वैधानिकता हासिल करने के लिए जेहाद का झंडा उठाये तरह-तरह के आतंकवादियों की शरण-स्थली बन गया.
नव-उपनिवेशवाद इस शर्त पर स्वाधीनता देने की व्यवस्था है कि आप इसका उपयोग नहीं करेंगे. आधुनिकता की कोई असफलता एक काल्पनिक अतीत के लिए आमंत्रण है. शाही पैतृकता से लेकर नासिरवादी लोकप्रियतावाद, बाथ विचारधारा के उदारवाद, सैनिक तानाशाही और थोड़े अरसे के लोकतांत्रिक उभार तक, जब भी कोई शासन-रूप विफल हुआ है या उसे दबा दिया गया है, तब अरब में अंतिम विचार धर्म की ओर लौटना ही रहा है. यह दीगर है कि किसी को भी नहीं मालूम कि समकालीन संदर्भो में इसका मतलब क्या है. इसके परिणाम में मदीना से निकला धर्म कम और अरब के अब्दुल वहाब तथा भारत के शाह वलीउल्लाह जैसों की व्याख्याएं ज्यादा प्रभावी रहीं, जिन्होंने निराशा के माहौल में असुरक्षा और अतिवाद भर कर ऐसे जेहाद के लिए उकसाया, जो मुक्ति के भ्रम में लिपटे अव्यवस्था की तलाश में पागल हो गया है. यह पतन बहुत जल्दी हुआ है. पाकिस्तान से उत्तरी अफ्रीका के बीच फैला भू-भाग उत्पात से आक्रांत है, जहां ज्यादातर सरकारें अलग-थलग रह कर बची रहती हैं, जबकि देश नियंत्रण से बाहर होते जाते हैं.
इस्लामिक सिद्धांत के अनुसार जेहाद के लिए एक आवश्यक शर्त यह है कि इसकी घोषणा का अधिकार सिर्फ राज्य को ही है. उन्मत जेहाद का भयानक विस्तार उन खतरों का सबूत है, जो व्यवहार द्वारा सिद्धांतों को त्याग देने से पैदा होते हैं. लेकिन यह बात जेहाद के निशानों को सांत्वना देने के लिए पर्याप्त नहीं है. ये निशाने अनेक प्रकार के हैं: ‘दूरस्थ शत्रु’, मुख्यत: अमेरिका; ‘निकटस्थ शत्रु’, जेहादियों के कार्य-क्षेत्र के नजदीक बसे विरोधी; और ‘तीसरा दुश्मन’, वे देश जिनका मुसलिम स्थानों पर ‘कब्जा’ है. भारत और चीन (मुसलिम-बहुल शिनजियांग क्षेत्र के कारण) तीसरी श्रेणी में हैं.
यह युद्ध कब और कैसे समाप्त होगा, यह अनुमान लगाना कठिन है. लेकिन एक बात तो तय है कि यह युद्ध दूसरे समुदायों को नुकसान पहुंचाने से पहले मुसलिम समुदायों को ही बरबाद कर देगा.
(अनुवाद : अरविंद कुमार यादव)
एमजे अकबर
प्रवक्ता, भाजपा
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