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पहले नेता या फिर यहां की जनता?

झारखंड गठन को 14 साल हो गये हैं, फिर भी स्थिति जस की तस है. आज सजग वोटरों को जागरूक करने के लिए अभियान चलाया जा रहा है. लेकिन वे किंकर्तव्यविमूढ़ है, क्योंकि सभी नेता एक समान हैं. आज लोग एक व्यक्ति की साफ छवि और उसके काम को भुनाने में लगे हैं, लेकिन कल […]

झारखंड गठन को 14 साल हो गये हैं, फिर भी स्थिति जस की तस है. आज सजग वोटरों को जागरूक करने के लिए अभियान चलाया जा रहा है. लेकिन वे किंकर्तव्यविमूढ़ है, क्योंकि सभी नेता एक समान हैं.

आज लोग एक व्यक्ति की साफ छवि और उसके काम को भुनाने में लगे हैं, लेकिन कल क्या उन्हें मौका नहीं मिला था? तब क्या हुआ, यह सब जानते हैं. किसी को जनता से सरोकार नहीं रहा, तभी तो यहां का विकास रुक गया. यहां ‘राम भरोसे’ सब कुछ चल रहा है. वही सिस्टम के सहारे चलनेवाला पुराना कानून चल रहा है. क्या यही लोकतंत्र है? क्या यही लोकतंत्र के मायने हैं? ऐसे कई सवाल अब भी अनुत्तरित हैं.

यदि पार्टियों में घोषणा पत्र लागू करने की क्षमता नहीं है, तो वे उसे जारी न करें. आम जनता को खुली स्पर्धाओं में अच्छे लोगों को चुनने का मौका दिया जाना चाहिए. जीत के बाद शपथ लेते समय ही नेता कोर्ट में भी जनता के कार्य करने की शपथ दें. यदि वह भ्रष्टाचार करेंगे, तो कानून के शिकंजे में होंगे. इससे उनमें डर और कानून के प्रति सम्मान पैदा होगा. फिर विकासवादी लोग सरकार बनायेंगे. मंत्री पद मतदाताओं की संख्या के अनुपात में मिले. यदि आदेशपाल, डॉक्टर, इंजीनियर की योग्यता अंकों के आधार पर तय होती है, तो फिर नेताओं की योग्यता मत संख्या पर क्यों नहीं?

वोटर अपना हाथ काट कर प्रतिनिधि चुनते हैं. जनता सब जान कर मजबूर है. यदि लोकतंत्र को बचाना है, तो नेता को पार्टी नहीं, बल्कि जनता की उम्मीदों पर खरा उतरना होगा. लोकतंत्र भी तभी बचेगा, जब लोग यह जानेंगे कि जनता पहले या

पहले नेता.

अशोक कुमार दास, देवघर

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