विकासशील देशों को इंफ्रास्ट्रर के लिए पैसा और तकनीकी मदद चाहिए. चीन के पास दोनों चीजें हैं. भारत के पड़ोसी देशों को वह अंतरिक्ष तकनीक से जोड़ रहा है. अब सवाल यह है कि यह काम हमने क्यों नहीं किया?
पिछले तीन महीने में भारत की सामरिक और विदेश नीति से जुड़े जितने बड़े कदम उठाये गये हैं, उतने बड़े कदम पिछले दो-तीन दशकों में नहीं उठाये गये. इसकी शुरुआत 26 मई को नयी सरकार के शपथ ग्रहण समारोह से ही हो गयी थी. इसमें पड़ोसी देशों के राष्ट्राध्यक्षों को बुला कर भारत ने जिस नये राजनय की शुरुआत की थी, उसका एक चरण 25 से 27 नवंबर को काठमांडू में पूरा होगा. दक्षेस देशों के वे सभी राजनेता शिखर सम्मेलन में उपस्थित होंगे, जो दिल्ली आये थे. प्रधानमंत्री ने 14 जून को देश के नये विमानवाहक पोत विक्रमादित्य पर खड़े होकर एक मजबूत नौसेना की जरूरत को रेखांकित करते हुए समुद्री व्यापार-मार्गो की सुरक्षा का सवाल उठाया था. उन्होंने परंपरागत भारतीय नीति से हटते हुए यह भी कहा था कि हमें रक्षा सामग्री के निर्यात के बारे में भी सोचना चाहिए.
अब तक भारत सरकार शस्त्र निर्यात के खिलाफ रही है. पिछले महीने वियतनाम के प्रधानमंत्री न्युन तंग जुंग की भारत यात्र के बाद खबरें आयीं कि रूस के सहयोग से विकसित ब्रह्मोसस मिसाइल वियतनाम को निर्यात करने का समझौता होनेवाला है. ऐसा हुआ, तो भारत की रक्षा-नीति में यह एक बड़ा बदलाव होगा. बहरहाल इस दौरान जापान, चीन और अमेरिका के साथ बातचीत के निर्णायक दौर पूरे हो चुके हैं. देश की व्यापारिक, सामरिक और राजनयिक नीतियों के अंतर्विरोध भी सामने आये हैं. उन अंतर्विरोधों को दूर करने की कोशिशें भी शुरू हुई हैं. हाल में रक्षा सामग्री खरीद के कुछ प्रस्ताव पास हुए हैं. साथ ही भारत सरकार ने ‘मेक इन इंडिया’ की अवधारणा को आगे बढ़ाया है.
भारत और जापान के बीच यूएस-2 एम्फीबियस विमान की खरीद और उसके भारत में निर्माण का समझौता अंतिम दौर में है. यह समझौता भारत में एक नयी तकनीक के आगमन की घोषणा के साथ ही जापान की भावी सामरिक नीतियों पर से परदा उठानेवाला भी होगा. भारत और ऑस्ट्रेलिया के बीच सामरिक सहयोग का नया क्षितिज खुला है. 1998 में भारत के परमाणु परीक्षण के बाद से दोनों देशों के रिश्तों में जो ठंडापन आ गया था, वह खत्म हो रहा है. 2009 के भारत-अमेरिका न्यूक्लियर डील की तार्किक परिणति के रूप में ऑस्ट्रेलिया से यूरेनियम की सप्लाई का समझौता भी अंतिम चरण में है. लेकिन, उससे ज्यादा महत्वपूर्ण है सामरिक दृष्टि से ‘इंडो-पैसिफिक’ अवधारणा का विकास.
इस क्षेत्र में भारत, ऑस्ट्रेलिया, जापान, इंडोनेशिया और वियतनाम की नयी साङोदारी उभर रही है, जो चीन की बढ़ती ताकत के बरक्स तैयार हुई है. संभावना है कि भारत-ऑस्ट्रेलिया और जापान के सहयोग से सोयरू क्लास की पनडुब्बियां बनाने का समझौता भी भविष्य में हो. जापान के पास दुनिया की सर्वश्रेष्ठ तकनीक उपलब्ध है. वह अपनी संवैधानिक व्यवस्थाओं के कारण रक्षा सामग्री का निर्यात नहीं करता, लेकिन अब अपनी नीतियों में बदलाव ला रहा है. हिंद महासागर में चीन की गतिविधियां बढ़ने के बाद से भारत ही नहीं, ऑस्ट्रेलिया भी बेचैन है. चीन ने श्रीलंका में बंदरगाहों के निर्माण में मदद देकर अपनी जगह बना ली है. हालांकि उसके सामरिक इरादे स्पष्ट नहीं हैं, पर हाल में दो बार श्रीलंका के बंदरगाहों पर चीनी पनडुब्बियां देखी गयीं. बेशक चीन का उद्देश्य अपने मालवाही पोतों के आवागमन को सुनिश्चित करना है. लेकिन, भारत का नजरिया अपने क्षेत्र की रक्षा के साथ-साथ अपने व्यापार के दायरे को बढ़ाना भी है. भारत और ऑस्ट्रेलिया के बीच 15 अरब डॉलर का कारोबार होता है, जबकि ऑस्ट्रेलिया और चीन के बीच 150 अरब डॉलर का कारोबार है. अब भारत को देखना है कि उसे अपने कारोबार का विस्तार किस तरह करना है.
ऑस्ट्रेलिया ने मंगलवार को घोषणा की कि वह शांतिपूर्ण उद्देश्यों के लिए भारत को यूरेनियम की आपूर्ति का इच्छुक है. नरेंद्र मोदी ने कहा कि दोनों देश असैन्य परमाणु करार को जल्द से जल्द पूरा करें, जिससे ऑस्ट्रेलिया इस क्षेत्र में भारत का भागीदार बन सके. दोनों देशों के बीच पांच समझौतों पर हस्ताक्षर किये गये, जो सामाजिक सुरक्षा, कैदियों की अदला-बदली, मादक पदार्थो के व्यापार पर लगाम लगाने और पर्यटन, कला एवं संस्कृति को आगे बढ़ाने से जुड़े हैं.
हिंद महासागर में चीन की सक्रियता बढ़ी है और उसकी पहलकदमी को श्रीलंका, मालदीव और पाकिस्तान का परोक्ष-अपरोक्ष समर्थन हासिल है. हमारे पड़ोसी देशों का यह अतिशय चीन-प्रेम क्यों? पाकिस्तान की बात समझ में आती है, पर श्रीलंका और मालदीव का भारत से किस बात पर टकराव है? पिछले कुछ वर्षो में चीन ने श्रीलंका पर जिस प्रकार की धन-वर्षा की है, उससे जाहिर है कि उसे इस इलाके में पैर रखने के लिए जमीन चाहिए, जिसकी वह कोई भी कीमत देने को तैयार है. चीन का जोर इंफ्रास्ट्रर पर है. श्रीलंका के हम्बनटोटा बंदरगाह के लिए भारत के सामने पहले प्रस्ताव आया था. उस पर बात चल ही रही थी कि चीन ने बेहद आकर्षक शर्तो के साथ उसे झपट लिया.
एक सच यह है कि भारत का व्यापारिक राजनय कमजोर है. चीन की ज्यादातर कंपनियां सरकारी हैं, जिन्हें सरकारी संस्थाओं का समर्थन मिलता है. उनके मुकाबले भारतीय निजी क्षेत्र की कंपनियों को देश की वित्तीय संस्थाओं का वैसा समर्थन नहीं मिलता. इंफ्रास्ट्रक्चर में यों भी चीन ने समय रहते बढ़त ले ली थी. निवेश के अलावा चीन से श्रीलंका को राजनयिक समर्थन भी मिलता है. संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद् में उसके खिलाफ प्रस्ताव के पक्ष में भारत वोट देता है और चीन समर्थन. भारत को तमिल नागरिकों के हितों को भी देखना होता है. 1987 के भारत-श्रीलंका समझौते के तहत भारत के खिलाफ श्रीलंका के किसी बंदरगाह का सामरिक इस्तेमाल नहीं हो सकता, पर इसकी गारंटी कौन लेगा? देश के संविधान के 13वें संशोधन के तहत देश के तमिल बहुल क्षेत्र को स्वायत्तता मिलनी चाहिए, पर इसमें आना-कानी की जा रही है.
विकासशील देशों को इंफ्रास्ट्रर के लिए पैसा और तकनीकी मदद चाहिए. चीन के पास दोनों चीजें हैं. भारत के पड़ोसी देशों को वह अंतरिक्ष तकनीक से जोड़ रहा है. यह काम हमने क्यों नहीं किया? शायद इसी को देखते हुए नरेंद्र मोदी ने दक्षिण एशियाई देशों के लिए एक उपग्रह तैयार करने की सलाह इसरो को दी है. इन सब देशों को जमीनी रास्ते से जोड़ने का काम भारत ही कर सकता है. अफगान को गेहूं भेजने के लिए भारत ने पाकिस्तान से सड़क मार्ग खोलने का आग्रह किया है. इसमें कई तरह के अड़ंगे लगाये जा रहे हैं. इस मनोवृत्ति को तोड़ने की जरूरत भी है. इस लिहाज से काठमांडू शिखर सम्मेलन पर हमें ध्यान देना होगा.
प्रमोद जोशी
वरिष्ठ पत्रकार
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