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भ्रम, खीझ और युद्ध की स्थिति

ओबामा आधे दशक से अपने नोबेल पुरस्कार को सही ठहराने की कोशिश में हैं. उनकी असफलता का स्वागत करना चाहिए, क्योंकि शांति पुरस्कार का कोई मतलब नहीं है, अगर युद्ध जीता नहीं गया है. बीते शुक्रवार जब बराक ओबामा बर्मा की सुप्रतिष्ठित नेता आंग सान सू के साथ यंगून में उनके घर पर मीडिया से […]

ओबामा आधे दशक से अपने नोबेल पुरस्कार को सही ठहराने की कोशिश में हैं. उनकी असफलता का स्वागत करना चाहिए, क्योंकि शांति पुरस्कार का कोई मतलब नहीं है, अगर युद्ध जीता नहीं गया है.

बीते शुक्रवार जब बराक ओबामा बर्मा की सुप्रतिष्ठित नेता आंग सान सू के साथ यंगून में उनके घर पर मीडिया से मुखातिब हुए, तब वहां मंच तो जरूर कृत्रिम था, लेकिन माहौल में सहानुभूति स्वत:स्फूर्त थी. आधिकारिक ब्रिटिश माध्यम माने जानेवाले बीबीसी ने खबर बनायी थी कि एक नोबेल शांति पुरस्कार विजेता ने अमेरिका के राष्ट्रपति से मुलाकात की. दरअसल, यह सम्मान दोनों को ही मिला हुआ है, लेकिन यादें अपने हिसाब से फैसला करती हैं और अकसर अनुपयुक्त सम्मानों को अपने खाते से बाहर कर देती हैं.

इतिहास की किताबों में ओबामा को कई कारणों से जगह मिलेगी, लेकिन वे सकारात्मक नहीं होंगे. ओबामा को लेकर बना सकारात्मक माहौल तो अब अमेरिका में भी नहीं है, जहां इस माह हुए कांग्रेस के चुनाव में उनकी पार्टी के उम्मीदवारों को मतदाताओं ने बुरी तरह नकार दिया है. उनकी शिकायतों में एक बिंदु यह भी है कि ओबामा ने अमेरिका को कमजोर किया है. उनकी शिकायत का आधार इसलामिक स्टेट इन इराक एंड सीरिया (आइएसआइएस) का उभार है.

इसलामिक स्टेट का स्वयंभू खलीफा अबू बक्र अल-बगदादी अब अपनी आजादी के विभिन्न प्रतीक-चिह्नें को व्यवस्थित करने में लगा हुआ है. उसने एक शुरा (सर्वसम्मति से निर्णय लेनेवाली प्रारंभिक इसलामी संस्था) की स्थापना की है और ऐसे दिनार लाने का वादा किया है, जिनकी कीमतें सिक्कों के सोने, चांदी और तांबे की कीमत के बराबर होंगी. अगर आपने यह खबर न देखी हो, तो बता दें कि इन सिक्कों पर एक तरफ कुरान में वर्णित गेहूं की सात बालियां होंगी और दूसरी तरफ दुनिया का नक्शा बना होगा.

सिक्कों पर दुनिया का नक्शा उकेरने का क्या मतलब है? इसका सीधा जवाब है कि खलीफा पूरी दुनिया को अपने अधीन करना चाहता है. फिर सवाल है कि ऐसा कैसे कहा जा सकता है. चांदी के दिनार को देखें. इस पर तलवार और ढाल बने हैं, जो उसके जेहाद के प्रतीक हैं.

खलीफा से अलग, अल कायदा ने पहले से ही कई देशों के खिलाफ युद्ध की घोषणा किया हुआ है, जिनमें भारत और बर्मा भी शामिल हैं, लेकिन यह पूरी तरह से एक आतंकवादी उपक्रम है. खलीफा के पास पहले से ही निर्धारित भू-भाग है, और फिलहाल उसकी नजरें सऊदी अरब पर टिकी हुई हैं. इससे उसको और अधिक तेल का मालिकाना हासिल होगा और इससे भी बहुत अधिक महत्वपूर्ण यह है कि उसे मक्का और मदीना के पवित्र शहरों का नियंत्रण मिल जायेगा.

एक पश्चिमी नेता, जो इन बातों से बेपरवाह दिख रहा है, वह हैं ब्रिटेन के प्रधानमंत्री डेविड केमरन. कुछ दिन पहले लंदन में उन्होंने पत्रकारों को बताया कि जेहाद के लिए गये ब्रिटिश युवाओं को दो वर्ष तक देश में वापस आने की अनुमति नहीं होगी. लेकिन, 731वें दिन यानी दो वर्ष बाद सब कुछ ठीक हो जायेगा. सरकार के ही स्तर पर नहीं, ब्रिटिश समाज में भी कुछ अजीब चल रहा है. लंदन के संडे टाइम्स के एक सर्वेक्षण के अनुसार, हर सात नागरिकों में से एक इसलामिक स्टेट के प्रति नरम है. क्या अपने समुदाय के अंदर हो रहे सांस्कृतिक दबाव और सामाजिक विलगन के प्रतिरोध में मुसलिम युवा नकार के आकर्षण में खींचे जा रहे हैं? यह पाकिस्तान और कई अन्य मुसलिम देशों में देखा जा रहा है. हालांकि भारत में अभी भी यह रुझान हाशिये पर है, लेकिन खतरे को हमें नजरअंदाज नहीं करना चाहिए.

हमारे पड़ोसी पाकिस्तान में इस्लामिक स्टेट का बढ़ना तार्किक है. हमें नहीं भूलना चाहिए कि उत्तर-औपनिवेशिक काल में इसलामी राज्य बननेवाला पाकिस्तान पहला देश था. आतंक के विरुद्ध पश्चिम से जुड़ने के दौरान इस तथ्य को छुपाया गया. लेकिन राज्य का असली चरित्र देर-सबेर ढेर-सारे नागरिकों की चेतना में अपनी जगह बनाने की कोशिश जरूर करेगा. फिदायीन तैयार करनेवाली फैक्टरियों में जेहादियों की शायद अगली पीढ़ी तैयार की जा रही है. ऐसी स्थितियों का लाभ पाकिस्तान धन उगाहने में करता है. पहले सोवियत संघ से लड़ने के नाम पर दशकों तक उसने अमेरिका से पैसा उगाहा, लेकिन बाद में वह अमेरिका से भी पैसा लेता रहा और जेहादियों की पीठ भी थपथपाता रहा. अब पाक सेना प्रमुख इसलामिक स्टेट से लड़ने के नाम पर अमेरिका के सामने कटोरा रख रहे हैं.

बहरहाल, अच्छी खबर है कि अमेरिका आइएस खलीफा के खिलाफ लड़ने के लिए अब ईरान के साथ साङोदारी बढ़ा रहा है. ओबामा आधे दशक से अपने नोबेल पुरस्कार को सही ठहराने की कोशिश में हैं. हमें उनकी असफलता का स्वागत करना चाहिए, क्योंकि शांति पुरस्कार का कोई मतलब नहीं है, अगर युद्ध जीता नहीं गया है. और इस युद्ध का निर्णय होने में समय लगेगा.

एमजे अकबर

प्रवक्ता, भाजपा

delhi@prabhatkhabar.in

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