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नेहरू आज सबसे ज्यादा प्रासंगिक

उच्च तकनीक की बात करनेवाला एक प्रधानमंत्री जब पुरातन-प्राचीन परिकल्पनाओं को विज्ञान बतायेगा, तो मैं समझता हूं कि यह देश को अंधकार की ओर ले जानेवाली बात है. जबकि पंडित नेहरू कभी भी पीछे मुड़ कर नहीं देखते थे, वे हमेशा नये विचारों का सृजन करते थे. उनका साइंटिफिक टेंपर का यथार्थ यानी ‘देखा-समझा’ पर […]

उच्च तकनीक की बात करनेवाला एक प्रधानमंत्री जब पुरातन-प्राचीन परिकल्पनाओं को विज्ञान बतायेगा, तो मैं समझता हूं कि यह देश को अंधकार की ओर ले जानेवाली बात है. जबकि पंडित नेहरू कभी भी पीछे मुड़ कर नहीं देखते थे, वे हमेशा नये विचारों का सृजन करते थे. उनका साइंटिफिक टेंपर का यथार्थ यानी ‘देखा-समझा’ पर आधारित था, ‘सुना-समझा’ पर आधारित नहीं था. इसलिए नेहरू के विचारों को और आगे ले जाने की जरूरत है.

भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू की 125वीं जयंती पर उनकी और उनके विचारों की प्रासंगिकता आज सबसे ज्यादा नजर आती है. सवाल उठ सकता है कि ऐसा क्यों, जबकि तब का भारत और वर्तमान भारत में फर्क है. इसे समझने के लिए हमें आजादी के ठीक बाद बंटवारे के कारण देश के भीतर उपजी परिस्थितियों पर गौर करने की जरूरत है. वर्तमान परिप्रेक्ष्य में किसी भी ऐतिहासिक तथ्य की प्रासंगिकता को समझने के लिए इतिहास के पन्नों को पलटना बहुत जरूरी हो जाता है. उसी ऐतिहासिकता के मद्देनजर पहली बात यह है कि जिस चीज के लिए पंडित नेहरू जाने जाते हैं, वह यह है कि उन्होंने भारत को ‘हिंदू इंडिया’ नहीं बनने दिया, जबकि उधर ‘मुसलिम पाकिस्तान’ की स्थापना हो गयी थी.

आजादी के तुरंत बाद जब सांप्रदायिक दंगे होने लगे थे, सांप्रदायिक भावना चरम पर थी, पांच लाख से ज्यादा लोग मारे जा चुके थे और हजारों की संख्या में लोग बेघर हो चुके थे. उस स्थिति में पंडित नेहरू ने तीन साल के अंदर चुनाव करवाया. वह चुनाव बेहद शांतिपूर्ण ढंग से संपन्न हुआ और उस चुनाव में भारत की जनता ने पाकिस्तान के ‘मुसलिम पाकिस्तान’ की तरह ‘हिंदू हिंदुस्तान’ को नकार कर ‘धर्मनिरपेक्ष हिंदुस्तान’ के लिए वोट किया. आजादी के तुरंत बाद पंडित नेहरू की यह सबसे बड़ी कामयाबी है. यही नहीं, पंडित नेहरू ने उस वक्त हिंदुस्तान के दस में से एक आदमी से मिलने के लिए लाखों मील की यात्राएं की और उनसे सीधा संवाद स्थापित किया. उन्होंने लोगों की बातें सुनी और सांप्रदायिकता के चरम से ‘रिलिजियस इंडिया’ के मुहाने पर खड़े भारत का रुख मोड़ कर एक ‘सेक्युलर इंडिया’ के अपने ख्वाब को हकीकत की शक्ल में जमीन पर उतार दिया.

पंडित जवाहरलाल नेहरू ने भारत में लोकतंत्र को एक ट्रेडिशन यानी परंपरा बनाया. नेहरू जी जानते थे कि भारत एक समृद्ध संस्कृति वाला देश है और इसलिए गुलामी से उबरने के बाद सबसे पहले देश की जनता को उनके मूलभूत अधिकारों का एहसास दिलाना बहुत जरूरी है. इस एहसास का एक मुख्य हिस्सा था चुनाव, जिसमें जनता खुद से अपना प्रतिनिधि चुनने के लिए स्वतंत्र होती है. इस तरह पंडित नेहरू ने देश के अवाम के दिलों में उनकी खुद की ताकत का एहसास कराया और उनमें लोकतंत्र की समझ को विकसित किया. वह लोकतंत्र हमारे देश में आज बेहद कामयाब है, जबकि दुनिया के किसी भी पोस्ट कोलोनियल कंट्री (औपनिवेशिक देश) यानी ब्रिटिश गुलामी से आजाद हुए नये-नये देशों में यही लोकतंत्र उतना कामयाब नहीं हो पाया और भारत की तरह एक लंबे अरसे तक नहीं चल पाया. उन देशों ने लोकतंत्र की परिकल्पना को एक वक्त के बाद नकार दिया और अपनी देशकालिक संस्कृति के ऐतबार से उन्होंने सत्ता-शासन के नये कायदे-कानून गढ़ लिये. जबकि वही लोकतंत्र भारत में ऐसा रच-बस गया है कि आज हम दुनिया का महान लोकतंत्र के रूप में जाने जाने लगे हैं.

किसी भी देश को आधुनिक बनने के लिए वहां विज्ञान और तकनीक का विकास जरूरी होता है. इसलिए पंडित नेहरू ने साइंटिफिक टेंपर की बात की. अंधविश्वास और पुरानी विचारधारा को छोड़ कर वैज्ञानिक युग में प्रवेश करने के लिए उन्होंने नववैचारिक मूल्यों की स्थापना की. उन्हीं मूल्यों की आज जरूरत है, उनकी प्रासंगिकता है, क्योंकि कहीं न कहीं ऐसा लग रहा है कि वर्तमान सत्ता परिवर्तन के बाद हम उन मूल्यों से विमुख होते नजर आ रहे हैं. हमें फिर से पुराने अंधविश्वास की ओर धकेला जा रहा है और यह खुद हमारे प्रधानमंत्री कर रहे हैं. यहां कोई यह सवाल उठा सकता है कि ऐसा कैसे! क्योंकि हमारे प्रधानमंत्री मोदी ने मुंबई में एक समारोह में डॉक्टरों को संबोधित करते हुए यह कहा कि भारत में प्राचीन काल में प्लास्टिक सर्जरी हुआ करती थी. एक इंसान के ऊपर हाथी का सिर लगाना यानी गणोश जी प्लास्टिक सर्जरी की सबसे अच्छी मिसाल हैं. प्रधानमंत्री ने दूसरी बात यह कही कि हमको स्टेम सेल का ऑपरेशन भी करना आता था. जब गांधारी के बच्चे नहीं हो रहे थे, उनका गर्भपात हुआ तो उनके पेट से एक मांस का बीज निकला. उसको एक ऋषि ने सौ टुकड़े करके ठंडे घी में दो साल तक रखा, जिसमें से एक-एक करके सौ कौरव निकले. यह है प्राचीन स्टेम सेल ऑपरेशन पद्धति. कर्ण कैसे पैदा हुए? प्रधानमंत्री ने कहा कि चूंकि हमें टेस्ट टय़ूब बेबी बनाना आता था, इसलिए हमने कर्ण को मटके में पैदा कर दिया. समय-समय पर ऐसी कई बातें हमारे प्रधानमंत्री ने उद्धरित की हैं. अब आप बताइये कि उच्च तकनीक की बात करनेवाला एक प्रधानमंत्री जब पुरातन- प्राचीन परिकल्पनाओं को विज्ञान बतायेगा, तो मैं समझता हूं कि यह देश को अंधकार की ओर ले जानेवाली बात है. लेकिन वहीं पंडित नेहरू कभी भी पीछे मुड़ कर नहीं देखते थे, वे हमेशा नये विचारों का सृजन करते थे. उनका साइंटिफिक टेंपर का यथार्थ यानी ‘देखा-समझा’ पर आधारित था, ‘सुना-समझा’ पर आधारित नहीं था. अंधविश्वास और कपोल-कल्पनाएं सब सुनी-सुनायी बातें होती हैं, इनका हकीकत से कहीं कोई संबंध नहीं है. ऐसे में आज देश के लिए यह एक ऐसा वक्त है कि जब नेहरू को रोज याद करने और उनके विचारों को और आगे ले जाने की जरूरत है. मैं समझता हूं कि अगर पंडित नेहरू की वैचारिकी पर सार्थक चर्चा की जाये, तभी 125वीं जयंती मनाना सार्थक होगा.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भारत के पहले गृहमंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल को लेकर कई तरह की चर्चाएं गर्म हैं. मसलन, भारत का पहला प्रधानमंत्री नेहरू के बजाय पटेल को होना चाहिए था, नरेंद्र मोदी एकदम नेहरू के नक्शे-कदम पर चल रहे हैं, वगैरह-वगैरह! लेकिन मैं समझता हूं कि अगर पटेल पहले प्रधानमंत्री हुए होते यह संभव है कि आज भाजपा का अस्तित्व ही नहीं होता. गांधी जी की हत्या के बाद हुए जांच में पटेल ने पाया कि यही लोग हैं, जिन्होंने गांधी जी की हत्या की थी. पटेल ने हजारों संघ कार्यकर्ताओं को जेल में डाल दिया था. आज उसी संघ की राजनीतिक इकाई भाजपा के रूप में देश की सत्ता पर काबिज है. पंडित नेहरू ने संघ कार्यकर्ताओं को जेल से छुड़वा दिया. नेहरू ने कहा कि किसी को जेल में डाल कर नहीं, बल्कि उनकी विचारधारा से लड़ाई करनी है. आप बताइये कि क्या आज कोई विचारधारा की लड़ाई लड़ रहा है? इसलिए नेहरू हमें याद आते हैं, क्योंकि विचारों को लेकर वे मतभेद का सम्मान करते थे और मनभेद को कोसों दूर रखते थे.

अब आइए दूसरी बात पर, अगर मोदी, नेहरू जैसे होते तो साइंटिफिक टेंपर की बात करते, प्राचीन कल्पनाओं की नहीं. अगर मोदी, नेहरू जैसे होते तो सेक्युलर इंडिया की बात करते, किसी एक समुदाय विशेष की नहीं. नेहरू की सोच है कि गरीबों की तरफ अपनी नजरें मोड़ो, लेकिन मोदी मनरेगा को रोक रहे हैं. मनरेगा को खत्म करने की बात की जा रही है. ऐसे में मोदी नेहरूवियन कैसे हो गये? सिर्फ बोलने से कोई किसी जैसा नहीं हो जाता है. किसी भी कोण से नरेंद्र मोदी की तुलना पंडित नेहरू से नहीं की जा सकती है. नेहरू राष्ट्र-निर्माता थे, जबकि मोदी आजाद भारत में पैदा हुए प्रधानमंत्री हैं, जिनके पास पहले से ही एक समृद्ध देश है. लेकिन हां, मोदी अब मनरेगा खत्म कर, पूंजीवाद को बढ़ावा देकर, गरीबों को भगा कर, हो सकता है एक नये राष्ट्र का निर्माण करें. लेकिन तब यह दावे के साथ कहा जा सकता है कि वह गांधी, पटेल, नेहरू का लोकतंत्र नहीं होगा. यानी सच्चे अर्थो में वर्तमान भारत को जैसा लोकतंत्र चाहिए, वह वैसा लोकतंत्र नहीं होगा.

आजादी के बाद भारत की आर्थिक स्थिति के मद्देनजर जिन चीजों की सबसे ज्यादा जरूरत थी, पंडित नेहरू ने उन्हें पूरा करने की पूरी कोशिश की. उस वक्त के हिसाब से जो ठीक था, उन्होंने किया. नेहरू के समय की सारी नीतियां आज लागू तो नहीं हो सकतीं, लेकिन कुछ नीतियां जरूर ऐसी हैं, जिन पर आज भी विचार किया जाये, तो मैं समझता हूं कि अतिआधुनिक भारत का वर्तमान सपना पूरा हो जायेगा. क्योंकि यह तो कोई नहीं कह सकता कि गरीबों पर ध्यान देना गलत बात है. यह भी कोई नहीं कह सकता कि आप सोशलिज्म मत करिये, सिर्फ उदारीकरण करिये. अगर सिर्फ उदारीकरण ही करना है, तो ऐसा नहीं होगा कि उसमें गरीबों को कहीं बाहर फेंक दिया जाये. मुसलमानों को पाकिस्तान भेज कर और गरीबों को मार कर आखिर किस देश का निर्माण किया जा सकता है? आज जिस स्तर की रूढ़िवादिता देश के तकरीबन ज्यादातर हिस्सों में फैली हुई है, और गाहे-ब-गाहे शीर्ष नेतृत्व वाले हमारे नेता उसे और भी बढ़ावा देते नजर आ रहे हैं, उसे देखते हुए हमें पंडित नेहरू के अलावा कोई और याद भी नहीं आता. इसलिए उनकी प्रासंगिकता मैं समझता हूं कि आज सबसे ज्यादा है.

आजादी के बाद नेहरू के शासन काल के जो 15 साल थे, उसमें देश में चार प्रतिशत का ग्रोथ रेट रहा था, जो उस समय दुनिया भर में सबसे अच्छा ग्रोथ रेट माना जाता था. नेहरू की विकासात्मक रणनीति आज भी एक उदाहरण माना जाता है. दरअसल, कोई भी देश जब अपनी एक नयी जिंदगी की शुरुआत करता है और औद्योगिक विकास के रास्ते सर्वागीण विकास के सपने को पूरा करना चाहता है, तो इससे ज्यादा ग्रोथ रेट पर नहीं पहुंच पाता है. उदाहरणस्वरूप, अपने पैरों पर खड़े होने के बाद जापान अगले 50 साल तक इस ग्रोथ रेट पर नहीं पहुंच पाया था. आजादी के तीन साल पहले तो हमारे देश में 30 लाख लोग भुखमरी से मर गये थे. औद्योगिक विकास जीरो था, एक छोटी सी मशीन तक हम नहीं बना पाते थे. कोई फैक्ट्री लगाने के लिए 90 प्रतिशत मशीनें विदेश से मंगानी पड़ती थी. ऐसे में पंडित नेहरू ने महज 15 साल के शासनकाल में ही चार प्रतिशत ग्रोथ रेट देकर एक मिसाल कायम की थी. आज हमारे पास सब कुछ है, हम साधन संपन्न हैं, फिर भी 5-6 प्रतिशत ग्रोथ रेट के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा रहे हैं.

मौजूदा कांग्रेस पार्टी के लिए भी पंडित नेहरू की प्रासंगिकता है. इसमें कोई संदेह नहीं कि आज कांग्रेस को नेहरू की यानी उनके विचारों की सख्त जरूरत है. कांग्रेस में अब नेतृत्व का संकट दिख रहा है, इसे भरने के लिए कांग्रेस को चाहिए कि वह नेहरू के विचारों पर फिर से विचार करे. जिस तरह नेहरू सबको साथ लेकर चलते थे, उस नीति से कांग्रेस विमुख हो चुकी है. वर्तमान भारत धर्मनिरपेक्षता पर हो रही गंदी राजनीति से पीड़ित है. पंडित नेहरू धर्मनिरपेक्षता से कभी कोई समझौता नहीं करते थे. लोगों की मानसिकता को कैसे अच्छी बनायी जाये, वे इस पर खूब सोचा करते थे. लेकिन यह बात आज कांग्रेस के लोग भी नहीं सोचते, जिसका खामियाजा उन्हें मिल रहा है.

(वसीम अकरम से बातचीत पर आधारित)

आदित्य मुखर्जी

इतिहासकार, जेएनयू

पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर की नजर से नेहरू के व्यक्तित्व के दूसरे पहलू

पंडित नेहरू ने जहां आधुनिक दुनिया से होड़ लेने के लिए भारत को प्रेरणा दी, वहां उनके मन में या कम-से-कम उनकी अभिव्यक्ति में गरीब के सवाल को राजनीति से जोड़ने का सदैव एक प्रयास रहा. उन्होंने एक बार कहा था कि अगर भूमि सुधारों को तेजी से लागू नहीं किया गया तो गांवों से एक ऐसी आंधी उठेगी, जिसमें हमारे शासन के तंत्र चरमरा कर टूट जायेंगे या उड़ जायेंगे. भूमि सुधार तो वह नहीं कर पाये, लेकिन समस्या को समझने में उनकी दृष्टि कम से कम बिल्कुल साफ रही. जवाहरलाल नेहरू में अदम्य साहस था. वह साहस व्यक्तिगत रूप से अपने जीवन में उन्होंने उतारा था. किसी भी उग्र भीड़ के सामने वह अकेले खड़े हो सकते थे. मैं नहीं कहता कि यह हर आदमी को करना जरूरी है, लेकिन जनतंत्र में जो व्यक्ति अपने ही लोगों से शंकालू हो, इतना भयभीत हो कि वह उनके बीच न जा सके, वह बहुत दिनों तक जनतंत्र को कायम नहीं रख सकता, व्यक्तिगत सुरक्षा के लिए राज्य की जो दमनकारी शक्तियां हैं, उन पर विश्वास करना पड़े तो उससे एक ऐसी मानसिकता पैदा होती है कि धीरे-धीरे यह व्यक्ति लोगों द्वारा स्वेच्छा से दिये गये सहयोग पर निर्भर रहता, बल्कि राजसत्ता के सहारे दमन की शक्तियों का उपयोग कर अपने को सत्ता में बनाये रखने का प्रयास करता है. यह मैं किसी व्यक्ति के बारे में नहीं कह रहा. ये मानवीय भावनाएं हैं, जिनसे हममें से कोई परे नहीं है. अगर हर दिन हम बंदूक के साये में रहेंगे, तो बंदूक का इस्तेमाल करना हमारा एक स्वाभाविक धर्म हो जायेगा. हमारी वृत्ति बन जायेगी. वह वृत्ति व्यक्ति के लिए नहीं, समाज के लिए घातक सिद्ध हो सकती है, खासकर तब, जब वह व्यक्ति शासन के ऊंचे पद पर हो. ये बातें किसी-किसी को रोमांटिक दिखाई पड़ेंगी, लेकिन मैं समझता हूं कि अंदर से जब तक बहुत अधिक आत्मविश्वास न हो, तब तक कोई आदमी ऐसा नहीं कर सकता. इस आत्मविश्वास की बहुत कमी आज हम लोगों में, राजनेताओं में (मैं सिर्फ सरकारी पक्ष की बात नहीं करता, विरोधी पार्टी के नेताओं में भी) दिखाई पड़ती है. कभी-कभी मैं सोचता हूं कि आज हम इस हालत में पहुंच गये हैं कि जहां न केवल सरकारी पक्ष में कुर्सियों पर बैठे हुए लोग बंदूक के साये में रहने के लिए विवश हैं, बल्कि विरोधी पक्ष के लोग भी बंदूक के साये में चलने में किसी तरह की ग्लानि या अवमानना महसूस नहीं करते. यह संकट की स्थिति है.

मैं नहीं जानता कि आज जवाहरलाल नेहरू की उस साहसिकता का कोई अर्थ हमारे राजनीतिक जीवन में काम करनेवाले लोगों के ऊपर है या नहीं. लेकिन कहीं न कहीं साहस दिखाना पड़ेगा. आज उस तरह के व्यक्तिगत साहस की प्रासंगिकता बहुत बढ़ी है- विचारों की अभिव्यक्ति में और आचरण में भी.

आचरण और सोच- दोनों में पंडित नेहरू ने कम से कम सही बातों को कहने का साहस किया, जिसका अभाव आज हमारे राजनीतिक और सामाजिक जीवन में भी दिखाई पड़ता है. चाहे वह सवाल गरीब का हो या धार्मिक उन्माद का, पंडित जवाहरलाल नेहरू ने इन सवालों पर कभी कोई समझौता नहीं किया.

– चंद्रशेखर से साक्षात्कारों पर आधारित वरिष्ठ पत्रकार रामबहादुर राय की पुस्तक ‘रहबरी के सवाल’ (राजकमल प्रकाशन) से साभार.

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