दक्षिण प्रशांत सागर में 13 देशों का समूह संयुक्त राष्ट्र का बड़ा वोट बैंक है. इस ‘वोट बैंक’ को मोदी अपने आईने में उतारते हैं, तो यह संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् में भारत की सदस्यता वाले सुप्त एजेंडे के काम आयेगा.
शतरंज का घोड़ा ढाई कदम ही क्यों चलता है? शतरंज का घोड़ा दुलकी नहीं मार सकता. न ही उड़ान भरते हुए सरपट भाग सकता है. भारतीय कूटनीति भी शतरंज के घोड़े की तरह है. प्रधानमंत्री मोदी इस ढाई कदम वाले घोड़े पर सवार होकर दस दिन के लिए म्यांमार, ऑस्ट्रेलिया और फिजी की यात्र पर निकले हैं. लौटने के बाद मोदी जी 26-27 नवंबर को दक्षेस बैठक के लिए काठमांडा रवाना हो जायेंगे. कूटनीति के लिहाज से मोदी का यह व्यस्त महीना है. 12-13 नवंबर को म्यांमार में 25वीं आसियान-भारत शिखर बैठक और 18 सदस्यीय इस्ट एशिया समिट (इएएस) में मोदी मौजूद रहेंगे. उसके बाद उन्हें जी-20 की बैठक के लिए ऑस्ट्रेलिया और 19 नवंबर को दक्षिणी प्रशांत देशों के शिखर सम्मेलन के लिए फिजी रवाना होना है. बुधवार को नाय-प्यी-दो में भारत-आसियान शिखर बैठक की ‘उत्तम व्यवस्था’ के लिए बधाई देनेवाले प्रधानमंत्री मोदी खुद बदइंतजामी के शिकार हो गये. उनके बीज वक्तव्य के शुरुआती हिस्से को देश सुन ही नहीं पाया. थैंक्स फॉर वाचिंग दूरदर्शन!
प्रधानमंत्री मोदी की म्यांमार यात्र में न्यूयॉर्क के मेडिसन स्क्वॉयर गार्डन सभागार जैसा-‘इंडिया इज रॉकिंग’, ‘मोदी इज रॉकिंग’! लेजर शो! उत्तेजना, हंगामा नहीं बरपा हो रहा है. शायद मोदी जी यह समझने लगे हैं कि जहां विश्व भर के नेता मिलते हैं, वहां कूटनीति का घोड़ा ढाई घर ही चलता है. यदि तेज चलता तो 3,200 किमी भारत-म्यांमार-थाइलैंड राजमार्ग कब का बन चुका होता. फिर भी, थाइलैंड में संस्कृत सम्मेलन और पूर्वी एशिया के दस देशों को ‘बौद्ध सर्किट’ से जोड़ने के लिए राजी करना मोदी की कूटनीतिक उपलब्धियों का हिस्सा है. मोदी ने नाय-प्यी-दो में 12वीं आसियान-भारत शिखर बैठक में बुधवार को बीज वक्तव्य में कहा कि हमारी सरकार नयी है, लेकिन इस दौरान जितनी प्रबलता से हमारी सरकार ने पूरब की ओर ध्यान दिया है, वह इसका प्रमाण है कि हमने हर क्षेत्र में साथ चलने को प्राथमिकता दी है.
अपने पूर्ववर्ती प्रधानमंत्रियों की तरह मोदी जी भी पूर्वी एशिया को राजमार्ग से जोड़ने को लेकर चिंता व्यक्त कर रहे हैं. भारत-म्यांमार-थाइलैंड सड़क परियोजना के 2016 तक बन जाने की बात होती रही है. अब म्यांमार शिखर बैठक में 2018 तक इस सड़क के बनने की बात हो रही है. इस राजमार्ग पर काम चलने की रफ्तार, हमारी पूर्वी एशियाई कूटनीति की तरह है. ‘कलादान मल्टीमॉडल ट्रांसपोर्ट प्रोजेक्ट’ का भी यही हाल है. इंफाल से मंडाले बस सेवा अक्तूबर, 2014 से शुरू होनी थी. वह भी कछुए की चाल में है. भारत जिस तेजी से पश्चिम एशिया के बरास्ते यूरोप से जुड़ा, वह तेजी पूरब की ओर नहीं थी. उसका लाभ चीन उठाता चला गया. प्रधानमंत्री मोदी पूरब की ओर देखो पॉलिसी में ‘लिंक वेस्ट, लुक इस्ट’(पश्चिम से जुड़ो, और पूरब की ओर देखो) के साथ ही ‘एक्ट इस्ट’ का तड़का मार रहे हैं.
पिछले प्रधानमंत्रियों ने पूर्वी एशिया में जो कुछ किया, उनके अनुभवों से यही लगता है कि ऐसी बयानबाजी कूटनीति में तड़का भर है. राजमार्ग बनाने, पूर्वी एशियाई देशों से व्यापार करने, बौद्घ सर्किट को विस्तार देने और पर्यटन को बढ़ावा देने के संकल्प पहले भी होते रहे हैं. 2013-14 में भारत ने दस सदस्यीय आसियान देशों को 33.1 अरब डॉलर का निर्यात किया है. यह भारत के कुल निर्यात का साढ़े दस प्रतिशत है. क्या यह काफी है? मोदी जी आसियान नेताओं से लगातार उभयपक्षीय बैठकें कर रहे हैं. पता नहीं इन बैठकों का लाभ ‘मेक इन इंडिया’ को कितना मिलता है. इस बाधा दौड़ में चीन ही नहीं, बांग्लादेश और नेपाल भी हैं, जहां भरपूर संख्या में सस्ता श्रम उपलब्ध है.
आसियान के साथ-साथ ‘इस्ट एशिया समिट’ में पूर्वी एशियाई देश सक्रिय हैं. अकसर आसियान और इएएस बैठकें आगे-पीछे होती रही हैं. पूर्वी एशिया में ऊर्जा का भंडार है, व्यापार की असीम संभावनाएं हैं. यूरोप से पंद्रह गुना बड़ा यह इलाका दुनिया की विराट अर्थव्यवस्था में बदल चुका है. एशिया-प्रशांत आर्थिक सहयोग संगठन (एपेक) की पेइचिंग बैठक में शिंजो आबे और शी चिनपिंग की मुलाकातों का सकारात्मक असर पूर्वी एशिया की शिखर बैठकों में दिख रहा है. एपेक में यह भी तय हुआ कि एशिया में चीन और अमेरिका सैन्य प्रतिस्पर्धा नहीं करेंगे. चीन, अफगानिस्तान में बड़ी भूमिका चाहता है. ‘आसियान’ और ‘इएएस’ की बैठकों में इस बार चीन और जापान प्रतिस्पर्धी नहीं, ‘पार्टनर’ दिख रहे हैं. चीन और जापान एशिया-प्रशांत में यदि चिर शत्रु नहीं रहे, तो इस इलाके का कूटनीतिक भूगोल बदल जायेगा. तब भारत की क्या भूमिका होगी, इस बारे में क्या टीम मोदी ने कुछ सोचा है?
पूर्वी एशियाई देशों का संगठन बनाने की परिकल्पना 1991 में मलयेशिया के तत्कालीन प्रधानमंत्री महातिर बिन मोहम्मद ने की थी. लेकिन महातिर से साल भर पहले, 1990 में तब के प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव ‘लुक इस्ट पॉलिसी’ को विदेश नीति में शामिल कर रहे थे. नरसिम्हा राव का दुर्भाग्य रहा कि उनकी कूटनीतिक दूरदर्शिता को उनके परवर्ती प्रधानमंत्री कुबूलने से कतराते रहे. मनमोहन सिंह ने जो किया, उनके साथ भी वही हो रहा है. मोदी जी ने म्यांमार यात्र से पहले बयान दिया था कि जी-20 की बैठक में वे काले घन का मुद्दा प्रमुखता से उठायेंगे. यह नया नहीं है. 3 नवंबर, 2011 की कान बैठक में पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के लिए काला धन ‘की इश्यू’ था. बैंक पारदर्शिता, टैक्स संबंधी सूचनाओं का आदान-प्रदान और धन का अवैध लेन-देन रोकने संबंधी एमएए (म्यूचुअल एडमिनिस्ट्रिेटिव असिस्टेंस) यानी ‘परस्पर प्रशासकीय सहयोग’ जैसे नये कन्वेंशन पर जी-20 शिखर नेताओं की सहमति मनमोहन सिंह के लिए एक बड़ी उपलब्धि रही है. लेकिन कांग्रेस, इसे चुनाव में नहीं भुना पायी.
काले धन की वापसी के लिए नरेंद्र मोदी जी-20 को क्या प्रस्ताव देंगे, और जी-20 की पहल पर क्या काला धन वापस आ जायेगा? यह एक प्रोपेगंडा मात्र है. प्रधानमंत्री मोदी का अगला पड़ाव फिजी है, जहां 42 प्रतिशत भारतवंशी हैं. दक्षिण प्रशांत सागर में 13 देशों का समूह संयुक्त राष्ट्र का बड़ा वोट बैंक है. इस ‘वोट बैंक’ को मोदी अपने आईने में उतारते हैं, तो यह संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् में भारत की सदस्यता वाले सुप्त एजेंडे के काम आयेगा. इस इलाके में अमेरिका, फ्रांस और ऑस्ट्रेलिया के असर को चीन ने निवेश और इंफ्रास्ट्रर के जरिये काफी कम कर दिया है. इसलिए यह आसान नहीं कि दक्षिणी प्रशांत क्षेत्र में चीन को, ढाई कदम वाले घोड़े की चाल से मात दी जाये!
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संपादक, ईयू-एशिया न्यूज
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