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बंदर सपने के अंदर और बाहर

शिकोह अलबदर प्रभात खबर, रांची शहर चुनावी रंग में रंग गया है. इसी बीच मुहल्ले के लड़कों से पता चला कि शहर को हाइवे से जोड़नेवाले मोड़ के पास, बरगद के पेड़ पर दर्जन भर से अधिक बंदरों ने अड्डा जमा रखा है. वहां जाने की उत्सुकता हुई. पहुंचने पर देखा कि बंदरों के झुंड […]

शिकोह अलबदर
प्रभात खबर, रांची
शहर चुनावी रंग में रंग गया है. इसी बीच मुहल्ले के लड़कों से पता चला कि शहर को हाइवे से जोड़नेवाले मोड़ के पास, बरगद के पेड़ पर दर्जन भर से अधिक बंदरों ने अड्डा जमा रखा है. वहां जाने की उत्सुकता हुई. पहुंचने पर देखा कि बंदरों के झुंड में दो-चार बूढ़े और अधेड़ बंदर भी थे.
उम्रदराज बंदर बहुत देर तक एक डाल पर बैठे रहे मानो कोई महत्वपूर्ण मंत्रणा कर रहे हों. वहीं नौजवान बंदर दिन भर पेड़ों पर धमाचौकड़ी मचा रहे थे. दो दिन बाद वापस उस स्थान पर गया तो पाया कि सभी बंदर नदारद थे.
हैरत की बात यह थी कि बंदरों का यह झुंड शहर में दिख रहा था. अलग-अलग झुंड में शामिल बंदर लोगों के आकर्षण का केंद्र बने हुए थे. लेकिन कुछ ही समय बाद, एक बार फिर ये बंदर शहर से गायब हो गये. मुङो लगा कि हो न हो, बंदर बरगद के उसी पेड़ पर होगें. मेरी बात सही निकली. लेकिन इस बार वो कुछ बदले-बदले थे. उनके हाथों में रंगीन कपड़ों की विभिन्न डिजाइन की पट्टियां थीं. ये पट्टियां शहर और चौराहों पर लटके उन फटे-पुराने झंडों की तरह लग रही थीं जो अमूमन किसी चुनावी सभा या रैली के बाद खंभों पर लगे छोड़ दिये जाते हैं. अपने एक दोस्त को मैंने यह फोन पर बताया, तो उसने थोड़ी देर में वहीं मिलने की बात कह कर फोन काट दिया. तभी अचानक ऐसा लगा कि बरगद के पेड़ पर भूचाल सा आ गया है. बंदर एक दूसरे को नोचने-काटने लगे.
झुंड छोटे-छोटे दलों में बंट गया था. मैं एक डाल से दूसरी डाल और फिर दूसरी से तीसरी डाल पर तेजी से कूदते बंदरों और उनके गले व सिर पर बेतरतीबी से बंधी रंगीन पट्टियों को निहार रहा था. बुजुर्ग बंदर विभिन्न युवा बंदरों को टोपी पहना रहे थे या उनके गले में हरे-लाल व पीले रंग की पट्टियां बांध रहे थे. तभी धप्प की आवाज आयी. मुड़ कर देखा कि एक बूढ़ा, भारी-भरकम शरीर वाला बंदर हाथों में मैली सी रंगीन पट्टी लिये मेरी ओर बढ़ा चला आ रहा था. मैं डर गया.
मैंने उसे पुचकारने की कोशिश की, लेकिन जवाब में वह खूंखार तरीके से चिल्लाया. तभी मुङो एक उपाय सूझा. मैं बंदर को पुचकारने के बजाये उसे रंगीन कपड़े का एक टुकड़ा दिखाने लगा. इंकलाब जिंदाबाद.. हमारा नेता कैसा हो.. इस बार आर या पार.. जैसे नारे स्वत: फूटने लगे. तभी किसी ने मेरे बदन को झझकोर कर रख दिया था. मैंने पाया कि मैं नींद में था. पत्नी जोर-जोर से मुङो हिला रही थी. मेरी आंख खुल चुकी थी. पत्नी ने चाय और पानी का गिलास बढ़ाते हुए तेज आवाज में पूछा : ‘‘इतनी जोरों से नींद में क्या बड़बड़ा रहे थे?’’ उसके सवाल पर मैंने महज एक मुस्कान फेंकी. रसोईघर की व्यस्तता के कारण उसने मेरा जवाब पाना जरूरी नहीं समझा और अखबार मेरे सामने कर दिया. अखबार के पहले पन्‍नों पर एक बार फिर किसी नेता के दल बदलने की खबर मुङो एकबारगी उन बंदरों की याद दिला रही थी.

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