विदेशों में जमा कथित कालेधन की वापसी को लेकर शोर-शराबा मचानेवाले राजनीतिक दलों का रवैया अपनी कमाई के लेखा-जोखा को लेकर ही पारदर्शी नहीं है. एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफार्म्स की रिपोर्ट के मुताबिक 2004-05 से 2012-13 तक की अवधि में राष्ट्रीय पार्टियों ने 5,890.66 करोड़ रुपये की आमदनी घोषित की और इस राशि के महज 10 फीसदी हिस्से के ही स्नेतों की जानकारी दी गयी. इस आंकड़े में क्षेत्रीय दलों की आय शामिल नहीं है.
सिर्फ वित्तीय वर्ष 2012-13 में राष्ट्रीय दलों ने 991 करोड़ रुपये कमाये. नियमानुसार 20 हजार रुपये से अधिक दान देनेवाले स्नेत की ही जानकारी देना जरूरी है. पार्टियां आसानी से इसका हवाला देकर पूरी जानकारी देने से बच जाती हैं.
इतना ही नहीं, भाजपा और कांग्रेस के साथ-साथ कुछ प्रमुख क्षेत्रीय पार्टियों ने भी पांच महीने से अधिक समय बीत जाने के बाद भी लोकसभा चुनाव के खर्च का ब्योरा चुनाव आयोग को नहीं सौंपा है. 400 से अधिक लोकसभा सदस्यों ने अब तक संपत्ति की जानकारी भी नहीं दी है. राजनीतिक दलों को सीधे विदेशी धन लेने की मनाही है, फिर भी ये दल बाहर से चंदा-वसूली करते हैं.
यह आशंका भी वाजिब है कि राजनीतिक दल घोषित आय से बहुत अधिक राशि की उगाही करते हैं. अघोषित कमाई चुनावों में अंधाधुंध तरीके से खर्च की जाती है, जो किसी भी जागरूक नागरिक की नजर से छुपी हुई बात नहीं है. गत आम चुनाव में 300 करोड़ से अधिक नगदी और 1.6 करोड़ लीटर शराब पकड़ी गयी थी. इस साल 29 अगस्त को निर्वाचन आयोग ने पारदर्शिता और उत्तरदायित्व को सुनिश्चित करने के लिए राजनीतिक दलों को दिशा-निर्देश जारी किये थे, परंतु कालाधन के खिलाफ होने का दावा करनेवाले दल इन निर्देशों का पालन करने में असफल रहे हैं. ऐसे में सवाल खड़ा होता है कि जनता कालेधन के विरुद्ध इन दलों के कथित अभियान पर कैसे भरोसा करे? क्या काले धन की वसूली की मुहिम लिफाफे में बंद चंद नामों के अस्पष्ट खातों तक सिमट कर रह जायेगी या फिर ये दल अपने बही-खातों के अघोषित धन का हिसाब भी देंगे? यह मामला चुनाव सुधार से भी जुड़ा है. इसलिए जनता को जागरूक होना होगा और पारदर्शिता के लिए दलों पर जन-दबाव बढ़ाना होगा.