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देश के ‘भविष्य’ संग रेल का सफर-1

इसी इतवार की बात है. लखनऊ के चारबाग रेलवे स्टेशन पर मैं ट्रेन पकड़ने के लिए खड़ा था. शेक्सपीयर चूंकि अंगरेज थे, इसलिए उन्होंने यह कहने की जुर्रत कर डाली कि नाम में कुछ नहीं रखा है. लेकिन अपने हिंदुस्तान में तो नाम में ही सब कुछ है. और नाम से ज्यादा उपनाम या कुलनाम […]

इसी इतवार की बात है. लखनऊ के चारबाग रेलवे स्टेशन पर मैं ट्रेन पकड़ने के लिए खड़ा था. शेक्सपीयर चूंकि अंगरेज थे, इसलिए उन्होंने यह कहने की जुर्रत कर डाली कि नाम में कुछ नहीं रखा है. लेकिन अपने हिंदुस्तान में तो नाम में ही सब कुछ है. और नाम से ज्यादा उपनाम या कुलनाम में.

विलायत में ‘बूचर’ और ‘गोल्डस्मिथ’ एक समान होंगे. पर अपने यहां ‘चिकवा’ और ‘सोनार’ को बराबर बताया, तो समङिाए कि आपका हिसाब बराबर हो जाना है.. इसलिए मैं ट्रेन का नाम बता देता हूं, ताकि आपको उसकी सामाजिक हैसियत का अंदाजा हो जाये. बिल्कुल साहब, ट्रेन की भी जाति होती है.

शताब्दी, राजधानी वगैरह सवर्ण हैं, तो पैसेंजर गाड़ियां दलित. दलित गाड़ियों को रोक कर सवर्ण गाड़ियों को निकाला जाता है. दलित गाड़ियों के समय की क्या कीमत, वे इंतजार कर सकती हैं. वैसे भी, उनमें सवार लोगों को कौन सा देश चलाना है. और फिर, रेलवे के लिए समाज की रीत थोड़े बदले जा सकती है. खैर, मैं नीलांचल एक्सप्रेस का इंतजार कर रहा था, जिसे आप अन्य पिछड़ा वर्ग में शामिल मान सकते हैं. लेकिन, यादव, कुर्मी वाला नहीं, बल्कि लोहार, बढ़ई वाला पिछड़ा मानिए. अपनी हैसियत के मुताबिक, मात्र डेढ़ घंटे लेट से ट्रेन आती दिखी. प्लेटफार्म पर भीड़ सामान्य से बहुत ज्यादा लग रही थी. पीठ पर झोला लटकाये नौजवान सैकड़ों की तादाद में थे. ट्रेन जब काफी करीब आ गयी, तो ये नौजवान प्लेटफार्म से कूद-कूद कर पटरी पार करने लगे. अब कोई विदेशी होता तो इसे छात्रों का साहस या रोमांच का शौक समझ लेता, लेकिन हर हिंदुस्तानी भलीभांति जानता है कि यह रिजर्वेशन धारकों से पहले ट्रेन में दूसरी तरफ से घुस कर सीटों पर कब्जा कर लेने का कारगर नुस्खा है.

ट्रेन रुकने से पहले ही ‘हू.. हू..’ के घोष के साथ नौजवान ट्रेन पर टूट पड़े. जैसे रेडियो के पुराने श्रोता सुबह-सवेरे आकाशवाणी को उसकी ‘सिग्नेचर ट्यून’ से पहचान लेते हैं, वैसे ही ‘हू.. हू..’ से मैंने पहचान लिया कि ये नौजवान, छात्र हैं. मने कि देश के भावी कर्णधार. मुङो पहली बार एहसास हुआ कि मेरी आवाज ही पहचान है.. गाने में कितनी गहराई है. अगर आपने महाभारत, टीपू सुल्तान जैसे पौराणिक व ऐतिहासिक सीरियल टीवी से चिपक कर देखे हैं, तो आप समझ जायेंगे कि छात्रों के लिए ‘हू.. हू..’ का मतलब वही है, जो ‘यलगार हो..’ और ‘आक्रमण..’ का है. वैसे इस ‘हू.. हू..’ से मेरा पहला परिचय हॉस्टल में रहने के दौरान हुआ था. हॉस्टल के सामने से गुजरने वाली लड़कियों को देख कर छात्र इसी तरह की ‘कुकुर ध्वनि’ करते थे. यह समानता सिर्फ आवाज तक सीमित नहीं थी. जैसे कुत्ते झुंड में शेर से बढ़ कर होते हैं, वैसे ही छात्र अपना ‘पराक्रम’ तभी दिखाते, जब वे झुंड में होते. दिल को सुकून पहुंचा कि पीढ़ियां बदल गयीं, पर छात्र नहीं बदले. जो हो, मैं किसी तरह ट्रेन में दाखिल हो ही गया..

सत्य प्रकाश चौधरी

प्रभात खबर, रांची

satyajournalist@gmail.com

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