।।लखनऊ से राजेन्द्र कुमार।।
ब्राह्मणों को साथ लेकर बहुजन समाज पार्टी (बसपा) ने उत्तर प्रदेश में जिस सोशल इंजीनियरिंग की परिकल्पना की थी, उससे अब बसपा प्रमुख मायावती का मोह भंग होने लगा है. बीते लोकसभा चुनावों में पार्टी का खाता न खुलने और उसके बाद हुए हरियाणा तथा महाराष्ट्र के विधानसभा चुनावों में भी पार्टी का वोट बैंक घटने के चलते मायावती ने अब अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति के मतदाओं की तरफ लौटना शुरू कर दिया है. जिसके चलते ही बसपा प्रमुख ने राज्यसभा के चुनावों में अपने दोनों प्रत्याशी अनुसूचित जाति के ही चुने है.
मायावती ने राजाराम और वीर सिंह एडवोकेट को दोबारा पार्टी का उम्मीदवार बनाया है. बसपा के यह दोनों सदस्य निवर्तमान में भी राज्यसभा के सदस्य हैं. यूपी विधानसभा में सदस्य संख्या कम होने के कारण ब्रजेश पाठक तथा अखिलेश दास को दोबारा टिकट नहीं दिया गया है. बसपा प्रमुख के इस फैसले के चलते अखिलेश दास ने कुछ दिनों पूर्व ही पार्टी से त्याग पत्र दिया है. उल्लेखनीय है कि राज्यसभा में यूपी के दस सदस्यों का कार्यकाल खत्म हो रहा है.
यूपी विधानसभा में बसपा सदस्यों के संख्या बल के आधार पर पार्टी सिर्फ दो सदस्यों को ही इस बार राज्यसभा में भेज सकने की स्थिति में है. ऐसे में मायावती ने पिछले कई सालों से बामसेफ आंदोलन से जुडे़ रहे वीरसेन एडवोकेट और राजाराम को राज्यसभा में भेजने का निर्णय लिया. अपने इस फैसले की घोषणा मायावती ने बुधवार को पार्टी मुख्यालय पर पत्रकारों से वार्ता करते हुए की.
अपने इस फैसले को लेकर मायावती ने कहा कि दलित उम्मीदवारों के अलावा यदि किसी अन्य जाति के उम्मीदवार को उतारा जाता है तो दूसरे वर्ग के लोग नाराज होते हैं इसलिए पार्टी ने दलित वर्ग के ही दो उम्मीदवारों को राज्यसभा भेजने का निर्णय लिया है. मायावती के इस फैसले को बसपा के ब्राह्राणों से मोहभंग होने से जोड़ा जा रहा है. कहा जा रहा है कि लोकसभा चुनावों में मिली करारी हार के बाद यदि महाराष्ट्र व हरियाणा के विधानसभा चुनावों में बसपा को सफलता मिली होती तो मायावती अपर कास्ट (ब्राहाण) के एक उम्मीदवारो को भी राज्यसभा भेजती, पर ऐसा नहीं हुआ.
ऐसे में पार्टी के आधार वोट को बचाने के लिए बसपा प्रमुख को दलित एजेंड़े पर लौटने की जरूरत महसूस हुई और दलित समाज को यही संदेश देने के लिए मायावती ने वर्षों बाद ऐसा निर्णय लिया है. गौरतलब है कि बसपा प्रमुख मायावती ने वर्ष 2007 में हुए विधानसभा चुनाव के ठीक पहले ब्राह्मणों को अपने साथ जोड़ने की रणनीति के तहत सोशल इंजीनियरिंग का सूत्रपात किया था.
तब मायावती की यह रणनीति असरदार साबित हुई और वर्ष 2007 के विधानसभा चुनाव में 206 विधायकों की जीत के साथ पूर्ण बहुमत सरीखा जादुई कारनामा करने से मायावती प्रदेश की सत्ता पर काबिज हो गई थी. जिसके बाद मायावती ने सोशल इंजीनियरिंग के इस सूत्र को अधिक विस्तार देने की पहल की और वर्ष 2009 के लोकसभा चुनाव तथा उसके बाद वर्ष 2012 में हुए विधानसभा चुनावों तथा बीते लोकसभा चुनावों में मायावती ने अपरकास्ट के ब्राह्यण उम्मीदवारों को सबसे अधिक टिकट दिए.
हरियाणा और महाराष्ट्र में हुए विधानसभा चुनावों में भी उन्होंने यह प्रयोग दोहराया, पर परन्तु बसपा की सोशल इंजीनियरिंग कहीं नहीं चली और पार्टी का आधार वोट भी उससे खिसकने लगा. यह देखकर मायावती ने फिर अपने मूल पर लौटने की निर्णय लिया और प्रदेश में हो रहे राज्यसभा के चुनावों में उन्होंने बृजेश पाठक जैसे अपने पुराने वफादार साथी को राज्यसभा का उम्मीदवार ना बनाकर दलित वर्ग के राजाराम और वीर सिंह को राज्यसभा भेजने की स्वीकृति प्रदान कर दी. अपने इस फैसले को सही बता मायावती ने यह ऐलान भी किया है कि भविष्य में भी पार्टी राज्यसभा और विधान परिषद में दलित वर्ग के उम्मीदवारों को भेजने को प्राथमिकता देंगी ताकि पार्टी का आधार वोट खिसकने ना पाए.