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संस्कृति पर सरकार की सुस्ती

ललित कला अकादमी, साहित्य अकादमी और संगीत नाटक अकादमी जैसी शीर्ष संस्थाएं संस्कृति विभाग की नौकरशाही के शिकंजे में जकड़ी व्यर्थ राजनीति का अखाड़ा बन गयी हैं.. संस्कृति का मतलब किसी संकीर्ण विचारधारा को थोपना नहीं होता है. यह विचारों के पल्लवित-पुष्पित होने और रचनात्मक उत्कृष्टता के लिए सहयोगी संरचना उपलब्ध कराने से संबद्ध है. […]

ललित कला अकादमी, साहित्य अकादमी और संगीत नाटक अकादमी जैसी शीर्ष संस्थाएं संस्कृति विभाग की नौकरशाही के शिकंजे में जकड़ी व्यर्थ राजनीति का अखाड़ा बन गयी हैं.. संस्कृति का मतलब किसी संकीर्ण विचारधारा को थोपना नहीं होता है. यह विचारों के पल्लवित-पुष्पित होने और रचनात्मक उत्कृष्टता के लिए सहयोगी संरचना उपलब्ध कराने से संबद्ध है. क्या हमारी नयी सरकार इस तथ्य को अंगीकार करेगी?

बिल्कुल उचित कारणों से अर्थव्यवस्था का प्रबंधन किसी भी सरकार की सबसे महत्वपूर्ण प्राथमिकता होती है. अगले पायदान पर रक्षा और विदेश नीति के मामले आते हैं, और इन्हें सुर्खियां भी खूब मिलती हैं. लेकिन, भारत एक युवा गणराज्य ही नहीं है, बल्कि एक प्राचीन सभ्यता भी है. पांच हजार वर्षो से अधिक की यात्र में इस सभ्यता ने अपनी प्राचीनता, निरंतरता, विविधता, समावेशीकरण और अतुलनीय सांस्कृतिक परिष्करण की ऊंचाइयां हासिल की है.

संस्कृति उपलब्धियों के वैविध्य की प्रतिनिधि होती है. यह सिर्फ विभिन्न कलाओं से ही संबद्ध नहीं है, बल्कि अपनी विस्तृत व्याख्या में, समाज द्वारा रचनात्मक और बौद्धिक अभिव्यक्ति के हर क्षेत्र में हासिल उत्कृष्टता का समुच्चय है. रचनात्मक संस्कार के इसी स्तर से देश का सॉफ्ट पॉवर बनता है. अमूमन यह स्वीकार कर लिया गया है कि विदेश नीति में सॉफ्ट पॉवर पारंपरिक कूटनीति या सैन्य क्षमता के समान ही प्रभावशाली है.

एक समय था, जब इसी सॉफ्ट पॉवर ने भारत के पद-चिह्न् को इसकी भौगोलिक सीमाओं से बाहर पहुंचाया. दक्षिण और दक्षिण-पूर्व एशिया में रहा भारतीय संस्कृति का हजार वर्ष का प्रभाव इस बात को पुष्ट करता है. प्राचीन और मध्यकालीन युग में बिना सैनिक विजय के होनेवाले महत्वपूर्ण सांस्कृतिक निर्यात का शायद यह एक मात्र उदाहरण है. ईसा पूर्व छठी शताब्दी के बाद से बौद्ध धर्म के संदेश विदेश पहुंचने लगे थे. ये संदेश पाली में थे, जो प्राकृत की एक बोली थी और संस्कृत की तुलना में आसान थी तथा आम लोगों की भाषा थी. पाली आज भी श्रीलंका, म्यांमार और दक्षिण-पूर्व एशिया के बड़े हिस्से के बौद्धों की भाषा है. द्वितीय शताब्दी में अमरावती काल से लेकर गुप्त, पल्लव, पाल और चोल वंशों के शासन के परवर्ती शताब्दियों में, 12वीं शताब्दी तक हिंदू संस्कृति समूचे दक्षिण और दक्षिण-पूर्व एशिया में फैल गयी थी.

विश्व का सबसे बड़ा हिंदू मंदिर और ब्रह्ना को समर्पित दो मंदिरों में से एक कंबोडिया के अंकोरवाट में स्थित है. कंबोडिया, लाओस, थाइलैंड और म्यांमार में महाकाव्य रामायण के अत्यंत लोकप्रिय स्थानीय रूपांतरण विद्यमान हैं. वर्तमान वियतनाम के केंद्रीय हिस्से में कभी हजार वर्ष तक शासन करनेवाले चंपा वंश के शासक हिंदू थे और भारत के सांस्कृतिक रीति-रिवाजों और तौर-तरीकों को मानते थे, जिनमें शाक्य कैलेंडर भी शामिल था. मलयेशिया और सिंगापुर में तमिल आधिकारिक भाषा के रूप में मान्य है, और बौद्ध बहुसंख्या वाले थाइलैंड में लोगों के नाम संस्कृत के रूपांतरण हैं. उस पूरे क्षेत्र में, फिलीपींस तक, मिले पुरातात्विक शोध इंगित करते हैं कि संस्कृत और उसमें रचित महत्वपूर्ण सेकुलर और धार्मिक ग्रंथ स्थानीय संस्कृतियों का हिस्सा थे. इंडोनेशिया में स्थित बोरोबदूर मंदिर हिंदू दर्शन और वास्तु शिल्प के सिद्धांतों के प्रभाव का शानदार उदाहरण है. बाली द्वीप आज भी बहुसंख्यक इसलामिक राष्ट्र में एक बड़ी हिंदू बस्ती है.

अगर संस्कृति इतनी महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है, तो फिर हमारी केंद्र सरकारें इसे लगभग एक ऐच्छिक अतिरिक्त वस्तु की तरह क्यों प्रयुक्त करती हैं? यह समझना आवश्यक है कि सॉफ्ट पॉवर का प्रभाव सिर्फ एक संयोग भर नहीं होती. जब संस्कृति अपने घर में उत्कृष्टता प्राप्त करती है, तो स्वाभाविक रूप से उसका बाहर विस्तार होता है. लेकिन जब उसमें ठहराव आ जाता है या उसे राज्य का सहयोग मिलना कम हो जाता है या अभिव्यक्ति के अवसर कम हो जाते हैं, तब सैन्य ताकत भी उसके सतत निर्यात की गारंटी नहीं दे सकती है. आज विदेशों में भारतीय संस्कृति को पसंद किया जाता है, लेकिन यह हमारी संभावनाओं से बहुत कम है, और जो है, वह बॉलीवुड और चिकन टिक्का जैसे गैर-सरकारी तत्वों के कारण है. निश्चित रूप से यह स्थिति सरकार की स्पष्ट सांस्कृतिक नीति के अभाव को रेखांकित करती है.

एक अपेक्षा थी, कम-से-कम कुछ लोगों के मन में तो जरूर थी, कि भारतीय संस्कृति पर अतिशय गर्व करनेवाली, भले ही बड़े संकुचित तौर पर, भाजपा सरकार इसके प्रचार-प्रसार के लिए कदम उठायेगी. लेकिन यह उम्मीद पूरी तरह से टूट चुकी है. पता नहीं क्या कारण थे कि यूपीए सरकार में बहुत लंबे समय तक कोई पूर्णकालिक संस्कृति मंत्री नहीं था. संस्कृति को पर्यटन मंत्रलय के साथ जोड़ दिया गया था. जिसे भी संस्कृति और पर्यटन की संभावनाओं का अंदाजा है, वह कह सकता है कि दोनों विभागों की जिम्मेवारी संभालनेवाला एक मंत्री एक के साथ भी न्याय नहीं कर सकता है. अब, भाजपा सरकार ने भी एक ही मंत्री के जिम्मे दोनों विभाग दे दिये हैं. इससे भी चिंताजनक बात यह है कि जिम्मेवार मंत्री श्रीपाद नाईक को राज्यमंत्री का ही दर्जा दिया गया है.

सांस्कृतिक क्रियाकलापों से संबंधित लगभग सभी सरकारी संगठन सुस्त पड़े हुए हैं. दिल्ली स्थित राष्ट्रीय आधुनिक कला दीर्घा में हर वर्ष हजारों लोग जाते हैं, लेकिन पेरिस के लूर या लंदन के टेट कला दीर्घा में जानेवालों की संख्या लाखों में होती है और वहां प्रवेश-शुल्क भी बहुत महंगा है. आजादी के तुरंत बाद मौलाना आजाद द्वारा स्थापित भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद्, जो हमारे सॉफ्ट पॉवर के प्रसार के लिए निर्दिष्ट है और विदेश मंत्रलय के अंतर्गत एक स्वायत्त संगठन है, का अभी कोई प्रमुख नहीं है और वहां धन की भारी कमी है. यह संगठन अपने स्तर पर अगर कुछ कर सकता था, वह भी संस्कृति विभाग ने हथिया लिया है. दोनों को अपनी भूमिकाएं स्पष्ट नहीं हैं.

ललित कला अकादमी, साहित्य अकादमी और संगीत नाटक अकादमी जैसी शीर्ष संस्थाएं संस्कृति विभाग की नौकरशाही के शिकंजे में जकड़ी व्यर्थ राजनीति का अखाड़ा बन गयी हैं. अभी संगीत नाटक अकादमी, राष्ट्रीय संस्कृति कोष, राष्ट्रीय अभिलेखागार, भोपाल स्थित राष्ट्रीय मानव संग्रहालय तथा हैदराबाद के खूबसूरत सालार जंग संग्रहालय का अभी कोई मुखिया नहीं है. राष्ट्रीय संग्रहालय को कई महीनों तक बिना किसी प्रमुख के रहने के बाद पिछले वर्ष दिसंबर में महानिदेशक मिल सका. कला दीर्घाओं की संख्या कम है, उनके पास साज-सज्जा और पेशेवर प्रशिक्षण प्राप्त संचालकों का भारी अभाव है. कुछ उत्कृष्ट संस्थानों को छोड़ दें, जो ऐसा इस वजह से है कि ये सरकारी नियंत्रण से बाहर हैं, तो सांस्कृतिक परिदृश्य एक उजाड़ बंजर है. मुख्य रूप से इस स्थिति का कारण राजनीतिक इच्छा-शक्ति और कल्पनाशीलता का अभाव तथा लाल फीताशाही है. कुछ राज्य सरकारों, विशेषकर बिहार, ने सांस्कृतिक संस्थाओं को पुनर्जीवित करने का प्रयास किया है, लेकिन उनके पास इस काम के लिए धन की कमी है.

संस्कृति का मतलब किसी संकीर्ण विचारधारा को थोपना नहीं होता है. यह विचारों के पल्लवित-पुष्पित होने और रचनात्मक उत्कृष्टता के लिए सहयोगी संरचना उपलब्ध कराने से संबद्ध है. क्या हमारी नयी सरकार इस तथ्य को अंगीकार करेगी?

पवन के वर्मा

सांसद एवं पूर्व प्रशासक

pavankvarma1953@gmail.com

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