इन दिनों दिल्ली और अन्य महानगरों से बिहार, झारखंड और पूर्वी यूपी की ओर आनेवाली ट्रेनों की जो स्थिति है, उसने इन हिंदी प्रदेशों की पीड़ा को फिर सामने ला दिया है. ‘पलायन’ इन इलाकों की दुखती रग है, तो अपने गांव की मिट्टी से जुड़े रहने की लालसा में ट्रेन की ‘कष्टकारी यात्री’ मजबूरी है. ये दोनों व्यवस्थाजनित पीड़ा है और इसकी मार उस तबके को ङोलनी पड़ती है, जो वंचित है. रोजी-रोटी के लिए अपने गांव से दूसरे विकसित प्रदेशों में पलायन करने वाले लोग छठ पर्व के मौके पर इन दिनों ट्रेनों से अपने गांव लौट रहे हैं. स्थिति यह है कि दिल्ली से आनेवाली हर ट्रेन पर करीब सात-आठ सौ की संख्या में अतिरिक्त यात्री सवार होकर आ रहे हैं. यानी ट्रेनों की जितनी क्षमता है, उससे करीब दोगुना.
शनिवार को नयी दिल्ली स्टेशन पर अफरातफरी के बीच एक यात्री की मौत भी हो गयी. ट्रेनों से लौटे यात्री जो बयां कर रहे हैं, उससे साफ है कि यात्रियों की तादाद के आगे रेलवे के इंतजाम छोटे पड़ गये या फिर रेलवे के दावे और जमीनी इंतजाम में काफी बड़ा फासला है. रेलवे का दावा है कि छठ के मौके पर विभिन्न राज्यों के लिए करीब तीन सौ अतिरिक्त ट्रेनें चलायी गयी हैं. हर साल छठ के पहले बड़े-बड़े दावे किये जाते हैं, लेकिन स्टेशनों पर अफरातफरी और ट्रेनों के शौचालयों में बैठ कर सफर यात्रियों की मजबूरी बन जाती है. ऐसे में यदि यह सवाल उठ रहा है कि देश में हाइ स्पीड ट्रेन और बुलेट ट्रेन चलाने की कार्य योजना तैयार करने के पहले यात्रियों को सकुशल उनके गंतव्य तक पहुंचाने की व्यवस्था के बारे में क्यों नहीं सोचा जाना चाहिए, तो यह गलत भी नहीं है. सूर्योपासना के पर्व छठ के साथ बिहार, झारखंड व पूर्वी उत्तरप्रदेश के लोगों की गहरी आस्था जुड़ी है.