महाराष्ट्र और हरियाणा विधानसभाओं के निर्वाचन में भारतीय जनता पार्टी की जोरदार जीत के साथ ही भारतीय राजनीति में सकारात्मक परिवर्तन का प्रवाह और अधिक प्रबल हो गया है. एक हद तक यह कहना उपयुक्त होगा कि भारतीय जनता ने अपने राजनीतिक मानस को नये सिरे से व्यवस्थित करने की शुरुआत की है, जिसके केंद्र में जनतांत्रिक मूल्यों का संरक्षण और विकास की राजनीति अपरिहार्य रूप से आवश्यक अंग हैं.
यह सही है कि हमारे नीति-नियंताओं ने राजनीति को तमाम भ्रष्ट-तत्वों की गिरफ्त से अलग करने के मसले पर गंभीरता से कार्य करने की अपनी प्रतिबद्धताओं को बार-बार दोहराया है, परंतु कथनी और करनी में अंतर का ऐसा उदाहरण भारतीय राजनीतिक इतिहास में ढूंढ़ पाना बेहद मुश्किल काम हैं. वर्तमान राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में सिद्धांत और व्यवहार के बीच जो अंतर उत्पन्न हुआ है, वह हमारे लोकतंत्र के लिए खतरे की घंटी है.
ऐसे में यह सवाल पूछना स्वाभाविक है कि हमने सत्ता-प्राप्ति के सफर में जनतंत्रीय गरिमा और स्वस्थ राजनीतिक पद्धति का ख्याल कहां तक रखा है? सभी जानते हैं कि आजकल राजनीतिक-स्वार्थ साधने के खेल में भले-बुरे, उचित-अनुचित में कोई भेद नही किया जाता है. यह किसी त्रसदी से कम नहीं है कि हमने अपने संविधानिक-मूल्यों को ताक पर रख कर उनकी प्रासंगिकता पर कीचड़ उछाला है. चुनाव के रणक्षेत्र में जिस तरह से हमने राष्ट्र निर्माताओं और देशभक्तों की आत्मा पर प्रहार किये हैं, उससे देश और लोकतंत्र के प्रति हमारी खोखली श्रद्धा और और आस्था उजागर हुई है. आज समय शेष रहते इन समस्याओं का समाधान ढूंढ़ निकालना हमारी पहली प्राथमिकता है.
नीरज कुमार निराला, भटौलिया, मुजफ्फरपुर