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आमदनी नहीं, परंपरा निभाने को विवश हैं कुम्हार

1इचाक1 में- मिट्टी के बरतन की रख-रखाव करती लीला देवी.1इचाक2 में- अपनी समस्या सुनाती महिलाएं. इचाक .दीपावली और छठ का समय करीब आते ही खामोश बैठा कुम्हार का चाक घूमना शुरू हो जाता है. पारंपरिक मिट्टी के बरतन का निर्माण करने की प्रक्रिया भी शुरू हो जाती है. ये सपरिवार इस पारंपरिक व्यवसाय में जुट […]

1इचाक1 में- मिट्टी के बरतन की रख-रखाव करती लीला देवी.1इचाक2 में- अपनी समस्या सुनाती महिलाएं. इचाक .दीपावली और छठ का समय करीब आते ही खामोश बैठा कुम्हार का चाक घूमना शुरू हो जाता है. पारंपरिक मिट्टी के बरतन का निर्माण करने की प्रक्रिया भी शुरू हो जाती है. ये सपरिवार इस पारंपरिक व्यवसाय में जुट जाते हैं. कैसे बनता है मिट्टी के बरतन : बरकाखुर्द निवासी लीला देवी, धनेश्वरी देवी व उर्मिला देवी ने बताया कि दीपावली और छठ में उपयोग होनेवाले दीया, ढकनी, चुकनी, तेलाई, कलश, घड़ा सहित अन्य मिट्टी के बरतन बनाने का काम एक माह से शुरू कर देते हैं. लाल, चिकनी व बालुई मिट्टी को पानी के साथ एक निश्चित अनुपात में मिला कर गूंथना पड़ता है. फिर चाक की सहायता से बरतन तैयार करते हैं. बाजार में कीमत : दीया 10 रुपये दर्जन, ढकनी पांच रुपये पीस, चुकनी 10 रुपये पीस, तेलाई 20-25 रुपये पीस, घड़ा 25 से 50 रुपये पीस. समस्या : बरकाखुर्द व मनाई के मथुरा प्रजापति, धनु प्रजापति, चांदो प्रजापति, सीटन प्रजापति समेत लगभग 15 परिवार इस व्यवसाय से जुड़े हैं. कुंती देवी ने बताया कि अब इस व्यवसाय में आमदनी नहीं रही. हमलोग केवल पुराने रीति-रिवाज को साथ लेकर चलते आ रहे हैं. सारा परिवार इसमें दिन रात मेहनत करते हैं और तैयार दीया, ढकनी, चुकनी को गांव-गांव में घूम-घूम कर बेचते हैं. फिर भी पूरी तरह से मेहनताना नहीं मिल पाता है.

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