सदी के महानायक अमिताभ बच्चन का आज जन्मदिन है. आज वह 72 साल के हो गये. बॉलीवुड में अपने करीब 43 साल के कार्यकाल में एक से एक बेहतरीन फिल्म दी. अमिताभ का जादू आज भी कायम है. बच्चे-बूढ़े सब उनके दीवाने हैं. हम भी दुआ करते हैं कि यू हीं चलता रहे अमिताभ बच्चन के जीवन और काम करने का सिलसिला..
अमिताभ बच्चन का कैरियर हमेशा उतार-चढ़ाव से भरा रहा है. अभिनय में प्रशिक्षण लेने और शोध करनेवाले छात्रों को उनकी कैरियर-यात्र से ज्ञान लेना चाहिए कि उन्होंने किस तरह खुद को स्थापित किया. हिंदी सिनेमा को अपने सौ साल के सफर में अमिताभ बच्चन के 43 अहम साल भी मिले हैं. आज भी यह सिलसिला जारी है. हिंदी सिनेमा के इतिहास को अमिताभ से पहले का सिनेमा और अमिताभ के बाद का सिनेमा के रूप में जाना जाता है.
अमिताभ एक योद्धा हैं. यह एक योद्धा का ही व्यक्तित्व है कि वह आज उम्र के 72 साल के पड़ाव पर पहुंच कर भी किसी सीमा से नहीं बंधे हैं. उनके चेहरे की चमक बरकरार है और आज भी वे बुजुर्ग दर्शकों से लेकर युवा पीढ़ी तक को अपील करनेवाले महानायक हैं. आज जब वह कान जैसे प्रतिष्ठित महोत्सव में लियोनाडरे के साथ खड़े होते हैं और हिंदी में दर्शकों को संबोधित करते हैं, तो तालियां बजती हैं. लोग खड़े होकर अमिताभ का सम्मान करते हैं. यह अमिताभ के अभिनय और उनके प्रभाव का ही नतीजा है कि वह जुड़े तो हिंदी सिनेमा से हैं, लेकिन उन्हें स्टार ऑफ द मिलेनियम का खिताब पश्चिम से मिला. उम्र को किसी सीमा में न बांध कर आज भी उनकी कोशिश है कि वे खुद को प्रयोग करने के लिए तैयार रखते हैं. यही वजह है कि उन्होंने टीवी के फिक्शन शोज की तरफ रुख किया. ‘युद्ध’ नामक शो में बिल्कुल अपने मिजाज से अलग किरदार निभाया और साबित कर दिया कि वे अभी थके नहीं हैं.
जिस अमिताभ को कभी अपनी आवाज की वजह से आकाशवाणी में नौकरी नहीं मिली, वही अमिताभ आज अगर केबीसी के मंच पर देवियों और सज्जनों भी कह देते हैं, तो दर्शक मंत्रमुग्ध हो जाते हैं. आज अमिताभ केबीसी के पर्याय बन चुके हैं. केबीसी की यह खूबी है कि वहां पेड ऑडियंस नहीं बैठती. वहां सभी अमिताभ को एक झलक निहारने के लिए आते हैं.
केबीसी के अंत में जब अमिताभ ऑडियंस से बारी-बारी से मिलते हैं, तो बच्चों से लेकर बुजुर्गो तक के चेहरे पर संतुष्टि का भाव होता है.
जिस आत्मीयता से लोगों के दिलों में उन्होंने अपना स्थान बरकरार रखा है, वह काबिले-तारीफ है.अमिताभ का मतलब सिर्फ अभिनय तक सीमित नहीं है. उनका एक प्रभामंडल है. उनकी एक झलक पाने के लिए अब भी हर रविवार उनके बंगले के सामने भीड़ जमा होती है. अमिताभ के क्रेज पर यूं ही अनुराग कश्यप ने फिल्म नहीं बना डाली. कॉमेडी नाइट्स विद कपिल के जिस एपिसोड में अमिताभ आये, उसको सबसे ज्यादा टीआरपी मिली. चूंकि कई वर्षो बाद उन्होंने वहां गाना गाया. वे बच्चे की तरह नजर आये.
यह सिलसिला फिल्म सात हिंदुस्तानी से शुरू हुआ. पहले अमिताभ का किरदार टीनू आनंद निभानेवाले थे, लेकिन बाद में निर्देशक ख्वाजा को अमिताभ जंच गये. और यहीं से उनके फिल्म कैरियर की शुरुआत हुई. फिर फिल्म आनंद में अमिताभ का बाबू मोशाय किरदार महमूद करनेवाले थे, लेकिन जब फिल्म में किशोर कुमार की जगह राजेश खन्ना को लिया गया, तो बाबू मोशाय के लिए अमिताभ को चुना गया. बांबे टू गोवा महमूद ने किसी और को ध्यान में रख कर लिखी थी, लेकिन यह फिल्म मिली अमिताभ को. फिल्म जंजीर पहले राजकुमार और धर्मेद्र को ऑफर हुई थी. उन्होंने ठुकराया, तो अमिताभ को मिली और इसी फिल्म से अमिताभ की एंग्री यंगमैन की छवि का जन्म हुआ. फिल्म शोले में अमिताभ का किरदार शत्रुघ्न सिन्हा को ऑफर किया गया था. फिल्म चुपके-चुपके में भी ऋषिकेश मुखर्जी अमिताभ की जगह नये चेहरे को लेना चाहते थे, लेकिन धर्मेद्र की जिद पर अमिताभ को यह फिल्म मिली. फिल्म दीवार भी पहले राजेश खन्ना और शशि कपूर को ध्यान में रख कर लिखी गयी थी. उन्होंने ठुकराया तो अमिताभ को मिली. एक के बाद एक सारी फिल्में अमिताभ के लिए उनके कैरियर की महत्वपूर्ण फिल्में बनीं और हिंदी सिनेमा को एक ऐसा कलाकार मिला, जो एंग्री यंगमैन भी बन सकता था, तो चुपके-चुपके जैसी फिल्मों में लोगों को हंसा भी सकता था. वह बाबू मोशाय बन कर भावनात्मक भी हो सकता था. इससे स्पष्ट हो गया और अमिताभ के लिए रास्ते बनते चले गये.
अमिताभ के लिए 70 का दशक बेहद महत्वपूर्ण रहा है. दरअसल, अमिताभ ने अपने फिल्मी कैरियर की पहली और सबसे अहम सफलता का स्वाद 70 के दशक में ही चखा. फिल्म जंजीर से ही उन्हें पहली बार स्टारडम का खिताब मिला. इसके बाद उन्होंने फिल्म दीवार, चुपके-चुपके, मिली, शोले, कभी-कभी, हेराफेरी, अमर अकबर एंथनी, खून पसीना, त्रिशूल, जमीर, मुकद्दर का सिकंदर, डॉन, गंगा की सौंगध, कसमे वादे, सुहाग, नटवरलाल, दो और दो पांच सहित लगातार 40 फिल्में कीं, जिसमें उन्हें करीब 90 फीसदी सफलता हासिल हुई. उनकी फिल्मों का दौर कायम रहा. वर्ष 1975 में एक साथ उनकी चार फिल्में रिलीज हुई थीं और सभी ब्लॉकबस्टर रहीं. 70 के दशक में ही उन्होंने बॉक्स ऑफिस हैट्रिक भी लगायी. 1974 में कसौटी, मजबूर और चुपके चुपके बॉक्स ऑफिस पर सुपरहिट साबित हुई. 1975 में एक साथ मिली, दीवार, शोले हिट रही. 1976 में कभी-कभी, अमर अकबर एंथनी, हेराफेरी सफल रही. 1977 में खून पसीना, परवरिश और गंगा की सौगंध कामयाब रही. 1978 में त्रिशूल, डॉन, मुकद्दर का सिकंदर ब्लॉकबस्टर रही. 1979 में नटवरलाल, काला पत्थर, सुहाग लगातार सुपरहिट फिल्में रहीं. यह वह दौर था जब हिंदी सिनेमा में पहली बार किसी अभिनेता ने एक करोड़ के जादुई आंकड़े को छुआ. तरन आदर्श बताते हैं कि अमिताभ पहले अभिनेता थे, जिनकी फिल्म ने एक साथ मुंबई के नौ सिनेमाघरों में गोल्डन जुबली मनायी.
अमिताभ ने विश्व सिनेमा के स्तर पर हिंदी और भारत को पहचान दिलायी है. खुद अमिताभ मानते हैं कि पहले उनकी फिल्मों को विदेशों में हेय दृष्टि से देखा जाता था. लेकिन पिछले कुछ वर्षो में लोगों का नजरिया बदला है. अमिताभ में ही वह क्षमता है कि वह अपनी दूसरी पारी में ब्लैक, नि:शब्द और पा जैसी फिल्में दे सकते हैं. आज भी अमिताभ को ध्यान में रख कर उनके किरदार गढ़े जाते हैं. एक दौर में उन्होंने यश चोपड़ा को कह दिया था कि आप कोई भी रोल दे दें, मैं कर लूंगा. उस दौर में भी उन्होंने मोहब्बतें में महत्वपूर्ण किरदार निभाया. अमिताभ उस फिनोमिना का नाम है, जो रुकेगा नहीं. थकेगा नहीं. चलता रहेगा.. और यह सिलसिला यूं ही चलता रहेगा.
रऊफ अहमद
वरिष्ठ फिल्म समीक्षक