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यह मस्ती है या मौत का पैगाम?

सुबह आंख खुलते ही दुनिया भर की खबरें समेटे हुए अखबार जब हाथ में आता है, तो कुछ ऐसी खबरें भी आंखों से गुजरती है, जिसे पढ़ने के लिए हिम्मत जुटानी पड़ती है. ये खबरें होती हैं सड़क हादसों और उससे हुई मौतों की. तुरंत एक सवाल तैर जाता है कौन, किसका और कैसे? वह […]

सुबह आंख खुलते ही दुनिया भर की खबरें समेटे हुए अखबार जब हाथ में आता है, तो कुछ ऐसी खबरें भी आंखों से गुजरती है, जिसे पढ़ने के लिए हिम्मत जुटानी पड़ती है. ये खबरें होती हैं सड़क हादसों और उससे हुई मौतों की. तुरंत एक सवाल तैर जाता है कौन, किसका और कैसे? वह कोई अपना तो नहीं था? वह कोई अपना न हो मगर अफसोस के कुछ अल्फाज जुबान से उछल ही जाते हैं. खास कर बात जब स्कूली बच्चों की हो तो दर्द कुछ ज्यादा होता है.

स्कूली बच्चों की अपने दोपहिया वाहनों से सरेआम सड़क पर कलाबाजियां करती तसवीरें अमूमन अखबारों में छपतीं है. यह हंसी-ठिठोली और मस्ती कितनी महंगी हो सकती है, शायद इसका अंदाजा उनको भी न होता हो. संभव है इनके अभिभावक तसवीर देख कर इन शरारतों पर बजाय सवाल करने के इतराते होंगे. कानून तोड़ने में जिम्मेदार व कानून के रखवाले भी पीछे नहीं रहते. सुरक्षा संदेशों को बकवास समझ बच्चे ही नहीं, हम भी कई बार दरकिनार कर देते हैं.

शहर के लगभग सभी ट्रैफिक और सेफ्टी साइन बोर्डों की धज्जियां हमने ही उड़ायी है. बच्चे तो हमारे दिये संस्कारों के वाहक हैं. जो देखते हैं अनुकरण करते हैं. हमें इस बात का भी गुमान नहीं कि हमारे ही पसीने की कमाई पर मंत्री से लेकर संतरी तक पूरा का पूरा महकमा हमारी सुरक्षा की खातिर हमारे ऊपर ही बैठा है. गाहे-बगाहे हम पर जुर्माने भी करते हैं.

माना कि न तो दुर्घटना अपने बस में है, न ही मौत. मगर जो हमारे बस में है हम उसी से परहेज कर बैठते हैं. इसे रोकने के लिए कानून तोड़ते लोगों की तसवीरों की होर्डिंग चौक-चौराहे पर लगानी चाहिए. फिर लोगों से पूछना चाहिए कि ट्रैफिक कानून तोड़ना मस्ती है, या फिर अपने ही मौत को बुलावा?

एम के मिश्रा, रातू

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