भागलपुर : देश भर में गंगा के निर्मलीकरण व सफाई के लिए ह्यनमामि गंगेह्णअभियान और गांव-शहर की स्वच्छ-सुंदर बनाने के लिए स्वच्छता अभियान चलाया जा रहा है. लेकिन मूर्ति विसर्जन के नाम पर एक बार फिर शहर वासियों ने पुआल, केमिकल रंग, लोहे की कील और न जाने कितने खतरनाक और विषैले पदार्थों को गंगा में विसर्जित कर दिया. घाट किनारे से लेकर पूरे परिसर व गंगा नदी भी कूड़े-कचरे से बजबजायी नजर आयी.
दुर्गंध से गंगा किनारे खड़े रह पाना भी काफी मुश्किल था. घाट परिसर पर कुछ स्थानीय बच्चे द्वारा किये जा रहे झाड़ू-बहारू सफाई का दो प्रतिशत भी काम कर पाने में असक्षम थे. मालूम हो कि नाथनगर से लेकर सबौर सहित नगर निगम क्षेत्र में लगभग 78 जगह मां दुर्गा का मूर्ति स्थापन हुआ था, जिनमें से लगभग 50 मूर्तियों का विसर्जन चंपा नदी व गंगा में कर दिया गया.
* एक मूर्ति में क्या-क्या मेटेरियल
शहर के मूर्तिकार विजय गुप्ता बताते हैं कि एक मंदिर या पंडाल की दुर्गा, लक्ष्मी, सरस्वती, शिव, गणेश, कार्तिकेय व महिषासुर की मूर्ति बनाने में लगभग 3 मन पुआल लगता है. इसके अलावा तीन किलो सुतरी, तीन किलो पटुआ(सन) व धान का भूसा लगता है. स्ट्रक्चर के लिए बत्ती के रूप में लगभग तीन बांस व एक किलो से ज्यादा लोहे की छोटी-बड़ी कांटी लग जाती हैं. मूर्तियों को कलर करने में दो किलो खल्ली, दो किलो गोंद व इमली का लट्ठा, एक किलो पाउडर(मीना व मरकरी) के अलावे बारीक कलाकारी में कैमल, फैब्रिक कलर भी लगता है.
* क्या कहते हैं विशेषज्ञ
शहर के जल विज्ञानी व रसायनशास्त्री प्रो विवेकानंद मिश्र बताते हैं कि मूर्ति में प्रयुक्त सारे मेटेरियल पानी में सड़ कर वैक्टीरिया और वायरस पैदा करते हैं. इससे गंगा में रह रहे डॉल्फिन समेत अन्य जलीय जीवों को खतरा होता है. विषाणुओं से पानी बुरी तरह दूषित होता है. काफी सूक्ष्म व छोटे-बड़े जलीय जीव मर जाते हैं. जिंदा रहने की स्थिति में जो जलीय जीव प्रदूषण कम करने में योगदान देते हैं, उनके मरने से गंगा प्रदूषित हो जाती है. लोहे की कांटी जल्दी अपघटित नहीं होती. धीरे-धीरे यह प्रतिक्रिया कर फेरिक हाइड्रॉक्साइड बनाता है और पानी में आयरन की मात्रा जरूरत से ज्यादा बढ़ने से बड़े रोग का कारण बनता है. इस प्रदूषण से गंगा का पानी न तो पीने लायक रह पाता है और न ही स्नान करने लायक.
* गांव से सीखे शहर
गांवों में मूर्ति विसर्जन के लिए छोटे तालाबों व धार का प्रयोग किया जाता है. जहां तालाब नहीं होता, वहां गड्ढा खोद कर तालाब बनाना चाहिए और मूर्ति विसर्जित करनी चाहिए. प्रो विवेकानंद मिश्र कहते हैं कि पंडाल संस्कृति को कम कर हमें इको फ्रेंडली पूजन को बढ़ावा देना चाहिए. ढाकामोड़ के धरहरा में केला के थंब पर बेल का सिर लगा कर मां की मूर्ति पूजन का उदाहरण देते हुए वह बताते हैं कि शहरों से सुदूर कई गांवों में यह संस्कृति जीवित है. इसे शहरों में भी अपनाने की आवश्यकता है. उन्होंने बताया कि गांव के लोग ज्यादा जागरूक हैं.