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गांधी, मोदी और मार्केट इकोनॉमी

पुष्परंजन ईयू-एशिया न्यूज के नयीदिल्ली संपादक विश्व नेता बनने की महत्वाकांक्षा पाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, भारत की कूटनीति का इतना विस्तार न कर दें कि वह संभाले नहीं संभले. यह तो महात्मा गांधी की सादगी थी, जिस कारण दुनिया ने उनको स्वत: ही महान नेता स्वीकार कर लिया था. उसके लिए इवेंट मैनेजरों की जरूरत […]

पुष्परंजन
ईयू-एशिया न्यूज के नयीदिल्ली संपादक
विश्व नेता बनने की महत्वाकांक्षा पाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, भारत की कूटनीति का इतना विस्तार न कर दें कि वह संभाले नहीं संभले. यह तो महात्मा गांधी की सादगी थी, जिस कारण दुनिया ने उनको स्वत: ही महान नेता स्वीकार कर लिया था. उसके लिए इवेंट मैनेजरों की जरूरत नहीं पड़ी थी!
मार्केट इकोनॉमी में महात्मा गांधी का क्या स्थान है? प्रधानमंत्री बनने से पहले मोदीजी ने 4 नवंबर, 2013 को मुंबई में इंटरनेशनल एडवरटाइजिंग एसोसिएशन (आइएए) के प्लैटिनम जुबली समारोह में इवेंट मैनेजरों और विज्ञापन गुरुओं से यह प्रश्न पूछा था. इसका उत्तर स्वयं मोदी ने एक उदाहरण के साथ दिया, ‘नवजीवन प्रकाशन की स्थापना गांधीजी ने की थी. आजादी के दशकों बाद तक नवजीवन प्रकाशन की छपी पुस्तकें ऐसी ही पड़ी रहती थीं.
लेकिन, रिचर्ड एटनबरो की फिल्म ‘गांधी’ के रिलीज होते ही तीस-चालीस साल पुरानी पुस्तकें देखते-देखते बिक गयीं.’ मोदी ने विज्ञापन गुरुओं को ज्ञान दिया कि आपलोग किस तरह पचास साल से मानव कल्याण के ‘आइकॉन’ बने गांधी को ब्रांड इंडिया का हिस्सा बना सकते हैं. न्यूयॉर्क के मेडिसन स्क्वॉयर गार्डन (एमएसजी) के बहुप्रचारित शो में जब महात्मा गांधी की तसवीरें स्क्रीन पर दिखने लगीं, तब यह बात समझ में आयी कि नरेंद्र मोदी, गांधीजी की छवि की ब्रांडिंग कैसे करने लगे हैं. अमेरिका में 2016 में चुनाव है. चालीस लाख भारतीय-अमेरिकी आबादी का एक बड़ा हिस्सा इस बार जिस तरह भावविभोर होकर नमो-नमो कर रहा था, उस वोट बैंक की ताकत को ओबामा समझ रहे हैं. ओबामा-मोदी मिलन से पहले योजनाबद्घ तरीके से ऐसा माहौल बनाया गया.
मोदीजी मंगलवार की सुबह वाशिंगटन स्थित गांधी मेमोरियल पर पुष्प अर्पित कर आये थे. उसके प्रकारांतर वह ऐतिहासिक पल था, जब प्रधानमंत्री मोदी ओबामा के साथ अफ्रीकी-अमेरिकी मानवाधिकार के प्रणोता मार्टिन लूथर किंग जूनियर को श्रद्घांजलि व्यक्त करने गये थे. हत्यारों के शिकार रहे महात्मा गांधी और मार्टिन लूथर किंग जूनियर, क्या हिंसा को हिंसा से समाप्त करने की बात करते थे? ओबामा के साथ जो बहुत सारी बातें तय हुईं, उनमें सबसे अहम अफगानिस्तान से इराक तक मुसलिम आतंकवाद को समाप्त करने के वास्ते भारत-अमेरिका सहयोग है. यानी, जहर को जहर से मारने, हिंसा को हिंसा से समाप्त करने का संकल्प, विश्व के दो महान गणतंत्र के नेता ले चुके हैं!
महात्मा गांधी, नरेंद्र मोदी की कूटनीति का प्रतीक 17 सितंबर को भी बने थे, जब साबरमती आश्रम में चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग का पदार्पण हुआ था. एक ओर लद्दाख के दमचोक और चुमार सीमा पर चीनी सैनिक बंदूक ताने खड़े थे, दूसरी ओर साबरमती आश्रम में चीनी राष्ट्रपति चरखे पर सूत कात रहे थे. हमारे मोदीजी चरखा चलाने के तरीके समझाते हुए शी के साथ तसवीरें खिंचवा रहे थे. निवेश का लोभ जो न कराये. कबीर ने सही लिखा था, ‘माया महा ठगिनी हम जानी’!
साबरमती आश्रम से बाहर होते ही चीन-भारत के नेता बाजारवाद के उस विस्तृत डोमेन में प्रवेश कर चुके थे, जिसके विरुद्ध इस देश में विदेशी कपड़ों की होली जली थी. वह गांधी का भारत था, जहां गांव-कस्बों के कुटीर उद्योगों को बचाने के लिए ‘स्वदेशी’ की बात होती थी, यह मोदी का ‘मेक इन इंडिया’ है, जिसमें विदेशी पूंजी निवेश के लिए टोक्यो से वाश्ंिागटन तक ‘रॉक एंड रोल’ हो रहा है. यों, स्वदेशी की अवधारणा को ढहाने की शुरुआत नेहरू से ही हुई थी. भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू, स्तालिन की औद्योगीकरण वाली राह पर चल पड़े थे. उनके बाद के कांग्रेसी नेताओं ने अपने शासनकाल में गांधीजी को ब्रांड के रूप में कितना इस्तेमाल किया, इससे देश भली-भांति वाकिफ है. मोदी, राष्ट्रपिता की छवि को अपनी राजनीति के लिए पेटेंट न करा लें, यह चिंता कांग्रेसियों को सताये जा रही है.
महात्मा को मोदी से जोड़े रखना है, इस मंत्र को भाजपा के इवेंट मैनेजरों ने समझ लिया है. महात्मा और मार्टिन लूथर, अब बाजारवाद का हिस्सा हो चुके हैं. अमेरिका से पार्टनरशिप के बाद देश को क्या पाना और खोना है, इसकी समीक्षा होनी चाहिए. इस सच को स्वीकार कीजिए कि भारत और अमेरिका की दोस्ती से दुनिया का कूटनीतिक मानचित्र बदलेगा. हिंद व प्रशांत महासागर से लेकर दक्षिण चीन सागर तक घनघोर प्रतिस्पर्धा शुरू होगी. चीन, रूस, पाकिस्तान, ईरान, उत्तर कोरिया गठजोड़, हर हाल में अमेरिका-भारत के ‘ग्रेट गेम’ को विफल करने की कोशिश करेगा. इससे मुकाबले के लिए जापान, सिंगापुर, ऑस्ट्रेलिया, दक्षिण कोरिया, फिलीपींस, वियतनाम और थाईलैंड जैसे देश हैं, जो पहले से अमेरिकी प्रभामंडल में हैं और एशिया-प्रशांत में उसके रणनीतिक सहयोगी हैं.
यह खबर आ रही है कि शांघाई कॉरपोरेशन ऑर्गेनाइजेशन (एससीओ) भारत को पूर्ण सदस्यता का प्रस्ताव देनेवाला है. क्या चीन और रूस, भारत के आगे चुग्गा फेंक रहे हैं? ब्रिक्स में जो बड़ी-बड़ी बातें हुईं, उसका क्या होगा? अभी दक्षेस में रस्साकशी होगी. दक्षेस में मोदीजी नेपाल और भूटान को दोस्त समझ सकते हैं. लेकिन श्रीलंका, बांग्लादेश, मालदीव, अफगानिस्तान वे देश हैं, जहां चीन-पाकिस्तान ने रणनीतिक सक्रियता बढ़ा रखी है. इस ब्यूह को तोड़ना होगा. महिंदा राजपक्षे को मोदी से प्रभावित करने के प्रयास प्रारंभ हैं, जो संयुक्त राष्ट्र में दिख रहा था. अब मोदीजी के ‘सार्क सेटेलाइट’ प्रस्ताव को दक्षेस नेता कितना स्वीकार कर पाते हैं, इसका पता तो इस साल नवंबर में होनेवाली काठमांडो शिखर बैठक में चलेगा.
भारत ने अमेरिका से खुफिया साङोदारी और इसलामी आतंकवाद के नाश में सहयोग के लिए जो हामी भरी है, उससे 56 इंच के सीने को और चौड़ा करने की जरूरत नहीं है. भारत अब एक ऐसे अमेरिकी फंदे में फंस चुका है, जिससे बचने का प्रयास पिछली सरकारें करती रही हैं. अफगानिस्तान में भारत की नयी भूमिका को पाकिस्तान कितना पचा पायेगा, यह भी एक सवाल है. 2015 आते-आते भारतीय सैनिक अफगानिस्तान में अमेरिकी फोर्स के साथ खड़े न दिखें.
क्या इसके लिए भारतीय संसद की मंजूरी चाहिए? भारत बड़ी मुश्किल से कश्मीर में आतंकवाद को काबू कर पाया है. लेकिन अब मोदीजी अलकायदा, आइसिस, तालिबान जैसे अंतरराष्ट्रीय अतिवादियों को अपनी जमीन पर जिहाद के लिए न्योता दे रहे हैं. मोदीजी को पता होना चाहिए कि इस्लामी मुल्कों में भारत का ‘वर्क फोर्स’ कितना है और कितनी बड़ी संख्या में इराक के करबला से लेकर मक्का-मदीने तक हमारे लोगों को तालीम और धार्मिक यात्रा ओं के लिए जाना होता है.
कूटनीति के मंगलयान पर सवार मोदीजी का मध्य एशिया, यूरोप और अफ्रीका का दौरा होना है. इजराइल के साथ प्रधानमंत्री मोदी का पिक्चर अभी बाकी है. इजराइली प्रधानमंत्री नेतन्याहू, भारत में कृषि, रक्षा, ऊर्जा और हथियार निर्माण की नयी परियोजनाओं के साथ आना चाहते हैं. विश्व नेता बनने की महत्वाकांक्षा पाले मोदी, भारत की कूटनीति का इतना विस्तार न कर दें कि संभाले नहीं संभले. यह सादगी थी, जिस कारण दुनिया ने महात्मा गांधी को स्वत: महान नेता के रूप में स्वीकार कर लिया था. उसके लिए इवेंट मैनेजरों की आवश्यकता नहीं पड़ी थी!

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