भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बिना किसी स्पष्ट एजेंडे के अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा से मिलने जा रहे हैं और इसका कोई प्रमाण चाहिए तो आपको द वॉल स्ट्रीट जर्नल में उनके लिखे लेख को पढ़ना चाहिए.
मोदी ने लेख में अपनी सरकार के आर्थिक एजेंडे पर आशावादी रुख अपनाया है और अमरीकी कारोबारियों और निवेशकों का ध्यान खींचा है.
लेकिन इसमें वह यह आभास दिलाने में विफल रहे हैं कि भारत अगले पांच साल में अमरीका के साथ अपने रिश्तों को कहां देखता है.
लेख में जिस तरह के शब्दों ‘स्वाभाविक वैश्विक सहयोगी’, ‘साझा मूल्य’, ‘कॉम्प्लीमेंट्री स्ट्रेंथ’ का इस्तेमाल किया गया है, वे हर उस देश पर भी लागू हो सकते हैं, जिनके साथ भारत के क़रीबी संबंध हैं.
लेकिन अमरीका सिर्फ़ कोई दूसरा देश नहीं है और भारत को साफ होना चाहिए कि वह अमरीका के साथ साझेदारी कर क्या हासिल करना चाहता है.
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परमाणु और रक्षा समझौते से बने द्विपक्षीय संबंधों के नौ साल बाद भी, भारत और अमरीका के बीच सामरिक रिश्ते दिशाहीन नज़र आते हैं.
अमरीका की शिकायतें
इससे बुरा यह है कि ओबामा प्रशासन इन संबंधों को लेकर बहुत उत्साहित नहीं है और भारत पर आरोप लगाता रहा है कि अहम परमाणु समझौता अब भी फलदायी नहीं हैं और रक्षा सहयोग को लेकर भी उस तरह की बात नहीं हुई जैसा कि पेंटागन और अमरीकी सैन्य सामान निर्माताओं को उम्मीद थी.
अमरीका भारत के परमाणु जवाबदेही क़ानूनों और पेटेंट नियमों के साथ-साथ खाद्य सब्सिडी और रीटेल और रक्षा क्षेत्र में विदेशी निवेश की नीतियों पर आपत्ति जताता आया है.
इन सबसे बढ़कर, अमरीका मानता है कि जो कुछ भारत के लिए किया गया है वह इसके लिए कृतार्थ महसूस नहीं करता.
स्पष्ट एजेंडा ज़रूरी
मोदी को अपने लेख का इस्तेमाल भारत की पेटेंट, परमाणु दायित्वों, रक्षा सहयोग और विश्व व्यापार व्यवस्था की नीतियों को लेकर अमरीकियों में व्याप्त गलतफ़हमियों को दूर करने में करना चाहिए था ताकि व्हाइट हाउस में अगले हफ़्ते होने वाली मुलाक़ात के दौरान अमरीकी राष्ट्रपति ठीक यही सवाल दोहराने में समय बर्बाद न करें.
मोदी ने पहले कुछ स्मार्ट एजेंडा दिखाया है. मसलन, प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में उन्होंने सौर ऊर्जा पर भारत को एक विश्व सम्मेलन बुलाने की आवश्कता बताई थी या फिर जब उन्होंने अपने शपथ ग्रहण समारोह में दक्षिण एशिया के राष्ट्र प्रमुखों को आमंत्रित किया था.
लेकिन प्रधानमंत्री के रूप में उन पर दिनचर्या में फंस जाने का ख़तरा है. अगर मोदी बिना किसी रणनीतिक एजेंडे के व्हाइट हाउस जाते हैं, तो वह पाएंगे कि ओबामा उनके मुख्य विषय का इंतज़ार कर रहे हैं.
भारत क्यों ज़रूरी?
अमरीका की शीर्ष रणनीतिक प्राथमिकता भारत को अमरीका के पाले में वापस लाने की होगी.
ताकि एशिया में चीन के ख़िलाफ़ अमरीका, जापान, भारत और ऑस्ट्रेलिया का चतुष्कोणीय समन्वय बन सके. साथ ही अमरीका चरमपंथी संगठन इस्लामिक स्टेट के ख़िलाफ़ कार्रवाई में भी भारत का सहयोग चाहेगा.
अमरीका के दोनों एजेंडे भारत के लिए सतही अपील भर हैं, लेकिन इनका सावधानीपूर्वक मूल्यांकन करने की ज़रूरत है, क्योंकि इनके साथ समानान्तर जोख़िम और परिणाम भी जुड़े हैं.
दूरदर्शिता की कमी
सचमुच, यहीं दूरदर्शी विदेशी नीति पर अच्छे सलाहकारों की कमी दिखती है और यह कमी मोदी और भारत को महंगी पड़ सकती है.
अपनी अन्य दक्षताओं के बावजूद राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल विश्व कूटनीति के दांव-पेचों को समझने में कुछ समय लेंगे.
हालाँकि प्रधानमंत्री उनसे वैसी भूमिका की उम्मीद कर रहे होंगे जैसी कि बृजेश मिश्रा, जेएन दीक्षित, शिवशंकर मेनन और एमके नारायणन ने निभाई थी.
सामान्य तौर पर, इस दरार को पाटने के लिए विदेश मंत्रालय आगे आता है, राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार के युग से पहले प्रधानमंत्री प्राथमिक संसाधन के लिए विदेश मंत्रालय पर ही निर्भर रहते थे- लेकिन इसका मतलब सुषमा स्वराज और उनकी टीम को ताक़त देना होगा, जो कि मोदी नहीं चाहेंगे.
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