दस राज्यों में हुए उपचुनावों के नतीजे ने दो स्थितियां बहुत साफ कर दी हैं. पहली, विकास के सिर्फ नारों में अब मतदाता नहीं उलझेगा, उसे परिणाम चाहिए. विकास की जो धारा इस देश में बह रही है, उसमें सिर्फ उपभोक्तावाद है, एफडीआइ है, इंफ्रास्ट्रक्चर के नाम पर कंस्ट्रक्शन है और बड़ी कंपनियों को लाभ पहुंचाना है. इन चीजों से आम मतदाताओं को खास मतलब नहीं है. दूसरी स्थिति यह कि बीते बीस बरस में मंडल की राजनीति ने जिस खास तबके के लिए मलाई पैदा की थी, वे अब सत्ता के साथ जुड़ कर मलाई खा सकते हैं या सत्ता से जुड़े रह सकते हैं. तो जो स्थिति बन रही है, उसमें क्या अब मंडल-2 का दौर शुरू होगा? इससे पहले मंडल-1 में गैर-कांग्रेसवाद की राजनीति थी, तो क्या अब मंडल-2 में गैर-भाजपावाद की राजनीति चलेगी?
उत्तर प्रदेश में उपचुनावों से बसपा हमेशा ही बाहर रहती रही है. ऐसे में दलित और मुसलिम मतदाताओं के पास एक ही रास्ता था. वह रास्ता जिस दिशा में गया, उसका परिणाम सामने है. जिस वक्त यूपी में भाजपा सबसे बुरी हालत में थी और सपा की लहर चल रही थी, उस वक्त भाजपा ने जो सीटें जीती थी, अब उसे गंवानी पड़ी है. यानी पिछले एक-दो साल में भाजपा ने जो राजनीतिक प्रयोग किये हैं, जनता उसके दायरे में चीजों को समझ रही है. लोकसभा चुनाव और अब के दौर में एक बड़ा अंतर दिखा.
तब मोदी इस बात से लगातार बचते रहे कि प्रचार में हिंदुत्व का तड़का लगे, सांप्रदायिकता की बात आये. बल्कि उन्होंने जिस तेवर और तल्खी के साथ कुछ मुद्दों को उठाया था, उसमें तो मुसलिम तुष्टकीकरण दिख रहा था. मोदी ने लोकसभा चुनाव में जिस तरीके से महंगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार आदि मुद्दों को उठाया, विदेश नीति के मामले में चीन-पाकिस्तान को लेकर जोश दिखाया, ये सारे मुद्दे भारतीय समाज की जरूरत थे.
लेकिन, सत्ता में आने के बाद से जो नया प्रयोग नजर आया, उसमें चाहे लव जिहाद का मामला हो, योगी आदित्यनाथ हों, साक्षी महाराज का जिक्र हो, या मोहन भागवत के हिंदू राष्ट्रवाद की बात हो, इन स्थितियों ने दिखला दिया कि आप कहीं न कहीं एक ऐसी लकीर खींच रहे हैं, जिससे हिंदू वोट बैंक तो एकजुट नहीं हो रहा है, लेकिन सांप्रदायिक आधार पर दूसरी चीजें जरूर प्रभावित हो रही हैं.
एक और महत्वपूर्ण बात यह है कि नरेंद्र मोदी केंद्र की सत्ता में आकर जिस तरह से केंद्रित हो गये, भाजपा के केंद्र में आकर खड़े हो गये, इससे यह लग रहा है कि यह सरकार और पूरी पार्टी सिर्फ ढाई-तीन लोगों की बन कर रह गयी है, जिसमें एक मोदी हैं, दूसरे अमित शाह हैं और तीसरे या आधे अरुण जेटली हैं, बाकी कुछ बचा ही नहीं है. यानी कहीं न कहीं केंद्र में पार्टी खत्म, संगठन खत्म.
इसका असर यह हुआ कि जीत तय करने के लिए सक्रिय हुआ समूह पूरी तरह से शांत दिख रहा है, जो आम चुनाव में सशक्त कार्यकर्ता के तौर पर सड़क पर दिख रहा था. वह चाहे गुजरात हो या राजस्थान, यह स्थिति हर जगह है. राजस्थान में तो कुछ महीने पहले ही भाजपा की सरकार बनी थी. वहां भी पार्टी को मुंह की खानी पड़ी. यह भी पूछा जा सकता है कि इस उपचुनाव में आरएसएस की राजनीतिक सक्रियता नहीं थी, जैसा कि आम चुनाव के दौर में थी, तो क्या इस कारण से भाजपा के चुनाव प्रचार पर असर पड़ा?
इसका अर्थ यह भी है कि भाजपा के भीतर गुजरात मॉडल या मोदी मॉडल को लेकर जो एक नया प्रयोग हुआ, उसे खुद भाजपा ही नहीं पचा पा रही है. भाजपा पर और उसके कार्यकर्ताओं पर वरदहस्त रखनेवाला नेता ही जब दूर हो गया, तो परिणाम तो यही होना था. यूपी के नतीजों के मद्देनजर अगर आप यह पूछें कि वहां सबसे ज्यादा खुश कौन होगा, तो जवाब यही आयेगा कि शायद राजनाथ सिंह, क्योंकि योगी आदित्यनाथ को आगे लाकर राजनाथ को काउंटर कर दिया गया.
केंद्र में भाजपा की सरकार बनने के बाद आप उत्तर प्रदेश को एक नये तरीके से देखना चाहते थे. आपने अमित शाह को अध्यक्ष बना दिया. मकसद था हर राज्य की सत्ता पर काबिज होना. इसी मकसद से हर जगह मिशन चलाया जा रहा था, जो कहीं मिशन 272 था, तो कहीं मिशन 44, कहीं मिशन कुछ और. इसका मतलब है कि आपका प्रमुख लक्ष्य सिर्फ चुनाव जीतना था, और उसके इतर जो मुद्दे रहते हैं, विचारधारा रहती है, पार्टी संगठन रहता है, ये सारी प्रक्रिया गायब हो गयी. जब ऐसी प्रक्रिया किसी पार्टी या संगठन को मजबूत करती है, तब तो उसके चेहरे को आगे की जा सकती है, लेकिन यदि ऐसा नहीं होगा, तो मिशन कैसे फेल होगा, इसका एक रूप हमने इन उपचुनावों में देख लिया है. उपचुनाव में प्रचार को लेकर अमित शाह सबसे पहले उत्तर प्रदेश ही गये थे, लेकिन वहां के लोकल मुद्दों का जिक्र किये बिना वे सिर्फ मोदी की ही बात करते रहे.
ऐसे में कहा जा सकता है कि लोकसभा चुनाव में जीत के स्वाद ने पार्टी को उन्माद दे दिया, उल्लास दे दिया. उन्माद पार्टी कार्यकर्ताओं का था और उल्लास पार्टी नेताओं का था, भाजपा की उस विचारधारा का था जिसे अब फिर से कौन कसेगा, यह एक सवाल बनता जा रहा है. जब नतीजे आपके अनुकूल नहीं हैं, तब आप यह स्वीकार करने के लिए खड़े नहीं हो पा रहे हैं कि जिन चीजों को आपने महत्वपूर्ण बनाया, वे ही इस हार का कारण बनी. माना तो यही जाता रहा है कि किसी क्षेत्र का विधायक यदि सांसद बनता है, तो उस क्षेत्र के उपचुनाव में उसकी सांसद होने की गरिमा का लाभ मिलता है, लेकिन हुआ इसका ठीक उल्टा.
उत्तर प्रदेश की दो सीटों- नोएडा और पूर्वी लखनऊ- पर भाजपा की जीत बताती है कि शहरी वोटर या महाशहरी वोटर अब भी भाजपा के तामझाम के साथ जुड़ा हुआ है, लेकिन जमीनी स्तर पर वोट पारंपरिक तौर पर बंटने शुरू हो गये हैं. जब सांप्रदायिक तौर पर ध्रुवीकरण का प्रयास शुरू हुआ, तो उसी से मंडल-2 की एक नयी धारा भी सामने आने लगी.
हालांकि इससे कहीं ज्यादा बड़ी स्थिति नजर आ रही है गुजरात और राजस्थान में. गुजरात की दो सीटें ऐसी हैं, जिन पर मोदी के मुख्यमंत्री रहते कांग्रेस कभी नहीं जीत पायी, पर अब उन सीटों पर भी कांग्रेस जीत गयी. इसका यही मतलब है कि भाजपा के लिए पार्टी संगठन और मुद्दे जिस तरह फेल हुए हैं, उसके केंद्र में हैं मोदी और विकास का कॉरपोरेटीकरण, जिनकी चकाचौंध ने राजनीतिक व्यवस्था में विकास की एक नयी धारा देने की कोशिश की है.
यह धारा इसलिए विफल हुई, क्योंकि उपचुनाव जिन क्षेत्रों में हुए, वे अभी उपभोक्तावाद से प्रभावित क्षेत्र नहीं हैं, वहां आम नागरिक रहते हैं, जो न्यूनतम हासिल करने की लड़ाई लड़ रहे हैं, लेकिन मौजूदा विकास न्यूनतम को पूरा करने के बजाय मुनाफा और बाजार ही देख रहा है. इसीलिए यह परिणाम विकास की उस दिशा के खिलाफ है, जिस दिशा में मोदी आगे बढ़ रहे हैं.