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हिंदी दिवस के ढकोसले को बंद कीजिए

आज हिंदी दिवस है. हर साल की तरह इस बार भी सरकारी-गैर सरकारी स्तर पर गोष्ठी-सेमिनार करके हिंदी की खूब जय-जय की जायेगी. नतीजा फिर वही ढाक के तीन पात जैसा होगा. प्रस्तुत लेख में लेखक ने हिंदी दिवस मनाने का कड़ा विरोध किया है और कहा है कि इससे न तो हिंदी का भला […]

आज हिंदी दिवस है. हर साल की तरह इस बार भी सरकारी-गैर सरकारी स्तर पर गोष्ठी-सेमिनार करके हिंदी की खूब जय-जय की जायेगी. नतीजा फिर वही ढाक के तीन पात जैसा होगा. प्रस्तुत लेख में लेखक ने हिंदी दिवस मनाने का कड़ा विरोध किया है और कहा है कि इससे न तो हिंदी का भला हो रहा है और न ही हिंदी सेवियों का……

।। योगेंद्र यादव ।।

हर साल 14 सितंबर के दिन ऊब और अवसाद में डूब कर हिंदी की बरसी मनायी जाती है. सरकारी दफ्तर के बाबू हिंदी की हिमायत में इसका कसीदा और स्यापा दोनों एक साथ पढ़ते हैं. हिंदी की पूजा-अर्चना व अतिशयोक्तिपूर्ण महिमामंडन के मुखौटे के पीछे हिंदी के चेहरे पर पराजयबोध साफझलकता है. मानो, इस दिन दुनिया की (चीनी,स्पेनिश व अंगरेजी के बाद) चौथी सबसे बड़ी भाषा अपना जीवित-श्राद्ध आयोजित कर रही है. हर साल हिंदी दिवस के इस कर्मकांड को देख मेरा खून खौलता है.

पूछना चाहता हूं कि इस देश में अंगरेजी दिवस क्यों नहीं मनाया जाता है? (बाकी 364 दिन अंगरेजी दिवस ही तो हैं!) सरकारी दफ्तरों के बाहर हिंदी पखवाड़े के बेनूर बैनर को देख चिढ़ होती है. उत्तर भारत में तमिल का पखवाड़ा मने, दिल्ली में हिंदी की सैकड़ों विलुप्त होती बोलियों का पखवाड़ा मने, तो समझ में आता है, लेकिन अगर पचास करोड़ लोगों की भाषा को अपने ही देश में अपनी आकांक्षा को एक पखवाड़े भर में सिकोड़-समेट लेना पड़े, तो लानत है! हर बार यह सब देख के रघुवीर सहाय की कविता हमारी हिंदी याद आती है. सुहागिन होने की खुशफहमी तले दुहाजू की नयी बीबी जैसी हमारी यह हिंदी सीलन और चीकट से घिरी है, दोयम दरजे का जीवन जीने को अभिशप्त है.

हिंदी दिवस पसरते जाते हैं, हिंदी सिकुड़ती जाती है. आज इस देश में हिंदी भाषा अंगरेजी की दासी, अन्य भारतीय भाषाओं की सास और अपनी ही दर्जनों बोली या उप-भाषाओं की सौतेली मां बन गयी है. संघ लोक सेवा आयोग के सी-सैट पर्चे की परीक्षा के विरुद्ध आंदोलन ने एक बार फिर अंगरेजी के बरक्स हिंदी की हैसियत का एहसास कराया है. चाहे प्रश्न-पत्र हो या सरकारी चिट्ठी, राज-काज की मूल प्रामाणिक भाषा अंगरेजी है. रैपिड इंग्लिश स्पीकिंग कोर्स के सर्वव्यापी विज्ञापन और कुकरमुत्ते की तरह उगते इंगलिश मीडियम के स्कूल अंगरेजी के साम्राज्य का डंका बजाते हैं.

बॉस को खुश करने को लालायित जूनियर, मेहमान के सामने बच्चे को पेश करते मां-बाप या प्रेमिका को पटाने की कोशिश में लगा लड़का…जहां-जहां अभिलाषा है. वहां-वहां अंगरेजी है. सत्ता का व्याकरण हिंदी में नहीं अंगरेजी में प्रकट होता है. ऐसे में राज-भाषा का तमगा एक ढकोसला है!

दरअसल यह ढकोसला हिंदी के लिए अभिशाप बनता जा रहा है. हिंदी के पल्ले और कुछ तो है नहीं, बस राज भाषा होने का एक खोखला अहंकार है. इसके चलते हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के बीच एक खाई बनी रहती है. हमारा संविधान कहीं राष्ट्र-भाषा का जिक्र नहीं करता, लेकिन अपने गरूर में हिंदी वाले मान कर चलते हैं कि उनकी भाषा इस देश की राष्ट्र-भाषा है. वे हिंदी को मकान मालिक समझते है, बाकी भाषाओं को किरायेदार.

हर गैर हिंदीभाषी को स्कूल में हिंदी सीखनी पड़ती है लेकिन हिंदीभाषी दक्षिण या पूर्व भारत की एक भी भाषा नहीं सीखते. इसके चलते अन्य भारतीय भाषाओं के बोलने वालों को हिंदी से चिढ़ होती है.और तो और, आज हिंदी और उर्दू के बीच भी फांक बना दी गयी है. इस झगड़े का फायदा उठा कर अंगरेजी का राज बदस्तूर चलता रहता है.

हिंदी-दिवस का ढकोसला हमारी आंखों से खुद हिंदी की बनावट को ओझल करता है. यह इस गलतफहमी को पैदा करता है कि आकाशवाणी-दूरदर्शन की खड़ी बोली पचास करोड़ देशवासियों की मातृभाषा है. हम सब अब भोजपुरी, मगही, अवधी, मेवाती, बागड़ी, मारवाड़ी, भीली, हाड़ोती, मालवी, छत्तीसगढ़ी, संथाली जैसी भाषाओं को महज बोली कहने लगे हैं. नतीजतन इन भाषाओं में उपलब्ध सांस्कृतिक धरोहर और रचनात्मकता का भंडार आज विलुप्त होने के कगार पर है. अंगरेजी के बोझ तले दबी हिंदी खुद इन भाषाओं को दबाने का औजार बन गयी है.

अगर आज भी हिंदी में कुछ जान बची है तो इस राजभाषा के कारण नहीं. सरकारी भाषा-तंत्र के बाहर बंबइया फिल्मों, क्रि केट कमेंट्री और टीवी तथा अखबार ने हिंदी को आज भी जीवित रखा है. न जाने कितने गैर हिंदीभाषियों ने बंबइया फिल्मांे के माध्यम से हिंदी सीखी. पिछले बीस सालों में टीवी के अभूतपूर्व प्रसार ने हिंदी का अभूतपूर्व विस्तार किया. समकालीन हिंदी साहित्य किसी भी अन्य भाषा के श्रेष्ठतम साहित्य से हल्का नहीं है. पिछले कुछ सालांे से अंगरेजीदां हिंदुस्तानी भी हिंदी के कुछ जुमले बोलते वक्त झेंप महसूस नहीं करते. लेकिन इस सब का राजभाषा संवर्धन के सरकारी तंत्र से कोई लेना-देना नहीं है .

इसलिए, मै गुस्से या खीज में नहीं, ठंडे दिमाग से यह प्रस्ताव रखना चाहता हूं कि हिंदी दिवस के सरकारी ढकोसले को बंद कर देना चाहिए. योजना आयोग की तरह राजभाषा प्रसार समितियों को भी भंग कर देना चाहिए. सरकार इस ढकोसले को बंद करना नहीं चाहेगी. अंगरेजी वाले भी नहीं चाहेंगे. ऐसे में हिंदी के सच्चे प्रेमियों को हिंदी दिवस का बहिष्कार करना चाहिए. इसके बदले 14 सितंबर को भारतीय भाषा संकल्प दिवस के रूप में मनाना चाहिए.

इस अवसर पर सभी भारतीय भाषाओं को एकजुट हो कर अंगरेजी भाषा के विरुद्ध नहीं बल्किअंगरेजी के वर्चस्व के विरुद्ध संघर्ष करने का संकल्प लेना चाहिए . लेकिन भाषा का संघर्ष केवल विरोध और बहिष्कार से नहीं हो सकता, इसमें नवनिर्माण सबसे जरूरी है.

इसका मतलब होगा कि हिंदी की पूजा-अर्चना छोड़ उसका इस्तेमाल करना शुरू करें. जैसे मिस्त्रियों ने हर कल पुर्जे के लिए अपनी हिंदी गढ़ ली है (पिलास, चिमटी, ठंडा/गर्म तार) उसी तरह हमें अर्थ-व्यवस्था, कानून, खगोलशास्त्र और डॉक्टरी के लिए भी एक नयी भाषा गढ़नी होगी. देश और दुनिया की तमाम भाषाओं से शब्द उधार लेने होंगे, शब्द-मैत्री की नयी रवायत बनानी होगी.

गुलजार की तरह हर पौराणिक कहानी को बाल साहित्य में बदलना होगा. सुकुमार राय के आबोल ताबोल की तर्ज पर बच्चों को हंसने-गुदगुदाने वाली कविताएं लिखनी होंगी. हैरी पॉटर का मुकाबला कर सकने वाला रहस्य और रोमांच से भरा किशोर साहित्य तैयार करना होगा. कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में हर विषय की मानक पाठ्यपुस्तकें तैयार करनी होगी. अंगरेजी में उपलब्ध ज्ञान के असीम भंडार का अनुवाद करना होगा. चीनी और जापानी की तरह हिंदी को भी इंटरनेट की सहज-सुलभ भाषा बनाना होगा. इसके बिना अंगरेजी के वर्चस्व का विरोध बेमानी है.

यह सब करने के लिए अन्य भारतीय भाषाओं के साथ सास जैसा व्यवहार छोड़ कर सखा-भाव बनाना होगा. अंगरेजी के वर्चस्व के खिलाफ लड़ाई तभी लड़ी जा सकती है जब तमाम भारतीय भाषाएं एक जुट हो जाएं. हिंदी संख्या के लिहाज से भारत की सबसे बड़ी भाषा भले ही हो लेकिन न तो सबसे वरिष्ठ है और न ही सबसे समृद्ध. हिंदी को तमिल के प्राचीन ग्रंथों, आधुनिक कन्नड़ साहित्य, मलयाली समाचार पत्रों, मराठी विचार-परंपरा, बांग्ला अकादमिक लेखन और उर्दू-फारसी की कानूनी भाषा से सीखना होगा. अपनी ही बोलियों को मान-सम्मान दे कर मानक हिंदी के दरवाजे इन सब भाषाओं के लिए खोलने होंगे. अगर हिंदी की गरिमा हिंद की गरिमा से जुड़ी है तो हिंदी को हिंदवी की परंपरा से दुबारा जुड़ना होगा, हिंद के भाषायी संसार का वाहक बनाना होगा.

हिंदी प्रेमियों को गैर-हिंदी इलाकों में हिंदी के प्रचार-प्रसार-विस्तार की कोशिशों से बाज आना होग. अगर वे हिंदीभाषी प्रदेशों में ही हिंदी को मान-सम्मान दिला पायें तो बहुत बड़ी बात होगी. हिंदी की वकालत का काम महात्मा गांधी, डॉक्टर आंबेडकर, काका कालेलकर, और चक्र वर्ती राज गोपालाचारी जैसे गैर हिंदीभाषियों ने किया था. यह उन्हीं को शोभा देता है .

(लेखक आम आदमी पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी और राजनीतिक मामलों की शीर्ष समिति के सदस्य हैं)

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