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‘दिल के भरे रिवाल्वर की बेचैनी का ज़ोर’

ज्ञानेंद्रपति वरिष्ठ कवि गजानन माधव मुक्तिबोध का 1964 में निधन हुआ और उसी वर्ष उनका पहला कविता संग्रह ‘चाँद का मुँह टेढ़ा है’ प्रकाशित हुआ जिसे वो अपनी आँखों देख नहीं पाए. इन पचास वर्षों में हिन्दी कविता पर जिस एक महत्तर कवि का सर्वाधिक सृजनात्मक प्रभाव महसूस किया गया है, जो आगे की कवि […]

गजानन माधव मुक्तिबोध का 1964 में निधन हुआ और उसी वर्ष उनका पहला कविता संग्रह ‘चाँद का मुँह टेढ़ा है’ प्रकाशित हुआ जिसे वो अपनी आँखों देख नहीं पाए.

इन पचास वर्षों में हिन्दी कविता पर जिस एक महत्तर कवि का सर्वाधिक सृजनात्मक प्रभाव महसूस किया गया है, जो आगे की कवि पीढ़ी की धमनियों में बहता है वह निस्संदेह मुक्तिबोध हैं.

आधुनिक हिन्दी कविता में जो स्थिति सूर्यकांत त्रिपाठी निराला ने अपनी काव्यात्मक सर्जना से हासिल कर ली थी उस तरह की एक दूसरी उपस्थिति उनके अनंतर मुक्तिबोध की बनती है.

निराला के जीवनकाल में ही उनकी उपस्थिति महसूस कर ली गई थी लेकिन 47 वर्ष से भी कम उम्र में आकस्मिक ढंग से गुज़र जाने वाले मुक्तिबोध की रचनात्मक उपस्थिति को उनके जाने के बाद ही महसूस किया जा सका.

पढ़िए, ज्ञानेंद्रपति का लेख विस्तार से

निराला अपनी कविता में भारतीय ग्रामीण जीवन के प्रसंगों को उठाते हैं और उनका संदोहन करके अपनी वह भावयात्रा शुरू करते हैं जो भारतीय गाँवों से बढ़कर नगर की चौखट पर पहुँचती है.

निराला उन्नाव के एक गाँव में रहे, उसके बाद लखनऊ और इलाहाबाद में भी उन्होंने समय बिताया. उन्होंने भारतीय मनुष्य को गाँवों से निकलकर ‘इलाहाबाद के पथ पर तोड़ती पत्थर तक’ पहुँचते देखा यानी ग्रामीण मूल का व्यक्ति शहर आकर जिस तरह अकुशल श्रमिक बन रहा है उन्होंने उसे देखा.

उसके आगे की जो जीवनकथा है एक भारतीय नागरिक की, या दूसरे शब्दों में यह कहें कि जब औद्योगिक पूँजीवाद का समय आता है और इस तरह के कुशल शिल्पियों तथा मज़दूरों की ज़रूरत पड़ती है और एक ग्रामीण मनुष्य का भी एक नागरिक जीवन शुरू होता है, वह सब मुक्तिबोध की कविता में प्रकट होता है.

व्यस्क होती कविता

इसलिए मुक्तिबोध के साथ हिन्दी कविता अपने को बहुत तेज़ी से व्यस्क महसूस करती है. उनकी कविता से एक तरह से हिन्दी कविता के नागरिक जीवन का आरम्भ होता है.

नागरिक जीवन का आरम्भ बेशक नई कविता के दूसरे कवियों में भी दिखाई देता है. लेकिन यह एक औद्योगिक जीवन की भी अपनी प्रतिछवि बनाता है. जिसमें उनके दूसरे समकालीन कवि उतने सफल नहीं हो पाए.

जैसे अज्ञेय को ही देखें तो वो एक बहुत ही अच्छे कवि हैं लेकिन उनकी एक आत्मबद्ध छवि बनकर रह जाती है. उनके समय का विविधताओं भरा जो भारतीय जनजीवन है उसकी अंतरकथाएँ नहीं प्रकट हो पातीं.

जबकि मुक्तिबोध औद्योगिक समय के अनुभवों को पहचानने की कोशिश करते हुए एक नई शब्दावली गढ़ने का प्रयास कर रहे थे.

मुक्तिबोध के पहले यह कहना संभव नहीं था कि "दिल के भरे रिवाल्वर में बेचैनी ज़ोर मारती ही है." मुक्तिबोध के पहले यह कहना भी संभव नहीं था कि "ज़िंदगी बुरादा तो बारूद बनेगी ही."

अंतःकरण का मार्मिक अंश

उनकी कविता हिन्दी कविता के अंतःकरण का सबसे मार्मिक अंश बन जाती है. और यह मार्मिकता वह आत्मसंघर्ष से अर्जित करती है. मुक्तिबोध से इतर प्रगतिवादी कविता ज़्यादातर आत्मसंघर्ष से शून्य है.

मुक्तिबोध कवि होने के साथ-साथ नई कविता के मर्मज्ञ आलोचक भी थे. उन्होंने हिन्दी काव्योलचना की क्षेत्र में बहुत मार्मिक, बहुत आगे का काम किया है.

उनका विस्तृत निबंध "नई कविता का आत्मसंघर्ष" वही लिख सकते थे. मसलन नामवर सिंह या रामविलास शर्मा की क़लम से इस तरह का वाक्य-खण्ड नहीं निकल सकता. नई कविता का कोई अभ्यासी ही उसके आत्मसंघर्ष को बयाँ कर सकता है.

भीतर झांकती कविता

मुक्तिबोध की कविता केवल बाहर को नहीं आंकती है बल्कि भीतर भी निरंतर झांकती रहती है. यही उसका आत्मसंघर्ष है.

जयशंकर प्रसाद की कामायनी को भी उन्होंने एक फंतासी की तरह देखा था. फंतासी के लिए उन्होंने कहा कि वह अनुभव की कन्या है, एक दुःस्वप्न शैली.

आधुनिकता के उदयकाल को परिभाषित करने वाले मनोवैज्ञानिक सिगमंड फ्रॉयड ने अवचेतन का सिद्धांत दिया जिसका साहित्य, संस्कृति, कलाओं की हमारी समझ, लेखन-चिंतन पर दूरगामी प्रभाव पड़ा.

फ्रॉयड स्वप्न को विशेष महत्व देते हैं. उनकी पहली किताब थी इंटरप्रिटेशन ऑफ़ ड्रीम्स(सपनों की व्याख्या). फ्रॉयड सपनों की व्याख्या करके चेतन से अवचेतन में उतरते हैं.

उसी तरह मुक्तिबोध भी अपने स्वप्नों के पास जाते हैं. लेकिन फ्रॉयड के यहाँ स्वप्न इच्छापूर्ति का माध्यम हैं जबकि मुक्तिबोध के यहाँ स्वप्न सत्यान्वेषण का माध्यम बनकर आते हैं.

ब्लैक एंड व्हाइट सपने

सपनों का अध्ययन करने वाले अनेक वैज्ञानिक कहते हैं कि हमारे सपनों का रंग ब्लैक एंड व्हाइट ही होता है.

इन वैज्ञानिकों का मत है कि कभी-कभार चाहे रंगो का बोध संप्रेषित हो भी जाता है लेकिन प्रायः हम सपने ब्लैक एंड व्हाइट में ही देखते हैं.

मुक्तिबोध की कविता का रंग क्या है, उसका रंग नीला है, काला है या सांवला है, ये प्रिय शब्द हैं उनके. हमेशा एक स्याही पुती रहती है वातावरण पर.

मुक्तिबोध की अत्यंत मशहूर और उनकी अंतिम कविता के रूप में ख्यात कविता ‘अंधेरे में’ जिसका मूल शीर्षक "आशंकाओं के द्वीपः अंधेरे में" रहा है, उसे समकालीन भारत की सबसे विश्वस्नीय एक्स-रे रिपोर्ट के रूप में पढ़ा जा सकता है, इसे पिछले कुछ वर्षों में इसी तरह पढ़ा भी गया है.

मुक्तिबोध अपनी रचना में बहिर्मुख प्रगतिवादी दृष्टिकोण को और लेखक की आत्मा को एक साथ संयोजित और प्रतिबिंबित करते हैं.

कविता का बीज शब्द

आत्मा शब्द मुक्तबोध की कविता का बीज शब्द बनकर आता है.

आत्मा के पुनर्जन्म में वो निस्संदेह विश्वास नहीं करते होंगे, क्योंकि ‘एक अरूप शून्य के प्रति’ कविता में वो अपने नास्तिक होने की मुक्त कंठ घोषणा करते हैं, लेकिन वो पुनर्जन्म का सृजनात्मक इस्तेमाल करने से नहीं चूकते हैं. चाहे वो किसी निहत योद्धावीर का सेवंती के फूलों में पुनर्जन्म क्यों न हो रहा हो, वो उसे लक्षित करते हैं.

हिन्दी कविता में मुक्तिबोध का हिन्दी कविता में दूरगामी महत्व है. उनके प्रभाव को आत्मसात करके ही आज के समय की और अगले समय की कविता लिखी जा सकती है.

(रंगनाथ सिंह से बातचीत पर आधारित)

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