पाकिस्तान में लोकतंत्र फिर खतरे में दिख रहा है. चुनावी गड़बडि़यों और भ्रष्टाचार का आरोप लगा कर प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को सत्ता से हटाने का अभियान हिंसक रूप ले चुका है. इमरान खान और मौलाना कादरी के नेतृत्व में उनके समर्थकों ने जिस तरह से सरकार विरोधी प्रदर्शनों के जरिये पूरी व्यवस्था को बंधक बना लिया है, उससे साफ है कि इन दोनों का लोकतांत्रिक संस्थाओं और तौर-तरीकों में यकीन नहीं है. संकेत यह भी है कि इन प्रदर्शनों को समर्थन देकर सेना नागरिक सत्ता में अपनी हिस्सेदारी बढ़ाना चाहती है.
जाहिर है, समय रहते इसका समाधान नहीं निकाला गया, तो हिंसा और अराजकता की लपटें पाकिस्तान में फिर से प्रत्यक्ष या परोक्ष सैनिक शासन की वापसी के मार्ग प्रशस्त कर सकती हैं. पाकिस्तानी जनता ने दशकों के सैन्य शासन, राजनीतिक अस्थिरता, बेनजीर भुट्टो की हत्या, इसलामी चरमपंथ का उभार और अर्थव्यवस्था का बिखराव देखे हैं.
पाकिस्तानियों ने 1990 के दशक में सरकारों के बनने और गिरने का दौर भी देखा. लेकिन, जून, 2013 में पाकिस्तान ने एक राजनीतिक इतिहास रचा, जब नवाज शरीफ ने चुनाव जीतने के बाद अपने मुख्य विरोधी और तत्कालीन राष्ट्रपति आसिफ जरदारी के जरिये प्रधानमंत्री पद की शपथ ग्रहण की. इस तरह पाकिस्तान में पहली बार एक सरकार द्वारा कार्यकाल पूरा करने के बाद चुनाव के माध्यम से दूसरी सरकार के हाथ में सत्ता का हस्तांतरण संपन्न हुआ, न कि पाकिस्तानी सेना की ताकत अथवा प्रभाव से.
दुनियाभर में इसका स्वागत हुआ और माना गया कि पाकिस्तान में लोकतंत्र की जड़ें मजबूत हो रही हैं. इसके बाद अनुमान लगाया गया था कि पाकिस्तानी सेना जनादेश को स्वीकार करेगी और सत्ता में दखल के अपने मंसूबों को त्याग देगी. हालांकि, नवाज शरीफ सरकार का अब तक का कार्यकाल उथल-पुथल भरा रहा है और अब पाकिस्तान फिर से एक बड़े राजनीतिक संकट में घिर गया है.
हालांकि सर्वे बताते हैं कि पाकिस्तानी अवाम शासन में सेना की दखलंदाजी और उसकी खुफिया इकाई आइएसआइ से तंग आ चुकी है. इसलिए नवाज शरीफ का इस्तीफा या सैन्य हस्तक्षेप जैसे समाधान को देश की बड़ी आबादी का समर्थन हासिल नहीं है. निष्पक्ष विश्लेषकों का मानना है कि अगर चुनावों में धांधली हुई है, तो मामले को कोर्ट में ले जाया जा सकता था, लेकिन नवाज शरीफ को सत्ता से हटाने के नाम पर इमरान खान और कादरी लोकतांत्रिक व्यवस्था का बेड़ा गर्क कर रहे हैं और कट्टरपंथी ताकतें उनकी कामयाबी की दुआ कर रही हैं.
इस संकट का एक त्रासद पहलू यह भी है कि पाकिस्तान का संकट महज उसका अंदरूनी मसला भर नहीं है, इसका प्रभाव भारत और अफगानिस्तान पर भी पड़ना तय है. हाल में जम्मू-कश्मीर में भारत-पाकिस्तान नियंत्रण रेखा पर गोलाबारी की घटनाओं में अप्रत्याशित रूप से वृद्धि हो गयी है और भारत-पाकिस्तान के बीच तनाव चरम पर पहुंच चुका है. पाकिस्तान के मौजूदा संकट और पड़ोसी देशों पर उसके संभावित प्रभाव को विशेषज्ञों की नजर से समझने का प्रयास कर रहा है आज का नॉलेज…
* घरेलू और बाहरी नायकों द्वारा कराया जा रहा है पाकिस्तान में उथल-पुथल
।। डॉ सुभाष कपिला ।।
दक्षिण एशिया मामलों के जानकार
पाकिस्तान की सेना लोकतांत्रिक तरीके से चुनी गयी देश की सरकार के खिलाफ चलाये जा रहे आंदोलन पर नजर रखे हुए है, जो राजनीतिक रूप से खुद ही हंसी का पात्र बन चुकी है. पाकिस्तान में उथल-पुथल के इस हालात को खत्म करने के लिए पाकिस्तानी सेना के पास प्रभावी उपाय है, लेकिन वह पीटीआइ के प्रमुख इमरान खान और पाकिस्तानी-कनाडाइ धर्मगुरु ताहिरुल कादरी सरीखे अपने कारिंदों के माध्यम से इसलामाबाद में संदिग्ध राजनीतिक प्रदर्शन की गतिविधियों को अंजाम देने में शुमार है. इस तरह के घटनाक्रम के बीच भारत-पाक सीमा पर गोलीबारी की घटनाओं के लिए पाक सेना कुख्यात है. पाक फौज भारतीय सीमा पर युद्धविराम का उल्लंघन कर रही है, ताकि किसी प्रकार के भयावह हालात के बीच सेना द्वारा संभावित तख्तापलट की घटना को सही ठहराया जा सके.
पाकिस्तान की सेना को इस बात का जवाब देने की जरूरत है कि आखिर राजनीतिक प्रदर्शनकारियों को इसलामाबाद के रेड जोन में घुसने और वहां धरना-प्रदर्शन करने की अनुमति कैसे दी गयी? इस इलाके में पाकिस्तान नेशनल एसेंबली, प्रधानमंत्री आवास और देश की अन्य संवैधानिक संस्थाएं मौजूद हैं. कोई भी यह सवाल नहीं कर रहा कि जब इसलामाबाद की सुरक्षा व्यवस्था पाकिस्तानी सेना के हवाले है, तो ऐसे में सेना की सुरक्षा वाले इस सुरक्षित रेड जोन में इमरान खान इतनी बड़ी तादाद में लोगों को लेकर कैसे पहुंच गये?
रावलपिंडी की कुख्यात 111 इन्फेंट्री ब्रिगेड को इसलामाबाद की सुरक्षा की जिम्मेवारी सौंपी गयी है. काबिलेगौर है कि पाकिस्तान में लोकतांत्रिक तरीके से चुनी गयी सरकारों के खिलाफ तख्तापटल की घटना में इस ब्रिगेड की अहम भूमिका रही है. आखिर इसलामाबाद में सरकार के अत्यधिक प्रभाव वाले इलाके को पर्याप्त सुरक्षा मुहैया कराने की जिम्मेवारी इसे ही क्यों सौंपी गयी? या कहीं ऐसा तो नहीं कि पाक सेना किसी ऐसी योजना को अंजाम देने का इंतजार कर रही हो, जिसके तहत देश के भीतर सुरक्षा के हालात और भारतीय सीमा पर चुनौती को पाकिस्तान के लिए बाहरी सुरक्षा का खतरा बताते हुए यानी घरेलू और विदेशी मोरचे पर सुरक्षा चुनौतियों के संदर्भ में मार्शल लॉ की घोषणा का उसका इरादा है!
* घरेलू नायक
पाकिस्तान के मौजूदा राजनीतिक उथल-पुथल का घरेलू नायक पाकिस्तानी सेना ही है, इमरान खान तथा ताहिरुल कादरी तो उसकी राजनीतिक कठपुतली के रूप में हैं, जिन्होंने पाकिस्तान की अदालतों में जाकर संवैधानिक तरीके से हल निकालने की बजाय पाकिस्तान की सेना के साथ सांठ-गांठ करने को प्राथमिकता दी है. इमरान खान की पाकिस्तान तहरीक -ए-इंसाफ पार्टी नेशनल एसेंबली में केवल 34 सीटों पर जीत हासिल कर पायी है और चार निर्वाचन क्षेत्रों में चुनावों में धांधली को लेकर विवाद है.
मान लिया जाये कि यदि चुनाव आयोग इन चारों ही सीटों का परिणाम पीटीआइ के पक्ष में दे देती है, जिसका इमरान खान ने इंतजार नहीं किया है, तो उसके बावजूद वे नवाज शरीफ की सरकार को सत्ता से हटा नहीं पायेंगे, क्योंकि इस सरकार के पास पर्याप्त बहुमत है. या फिर इमरान खान की क्या यह शिकायत है कि नेशनल एसेंबली की 300 से ज्यादा सीटों पर धांधली की गयी है? इससे तो यूरोपियन यूनियन और संयुक्त राष्ट्र के चुनाव पर्यवेक्षकों द्वारा पाकिस्तान में 2013 के आम चुनावों को व्यापक तौर पर ठीक -ठाक तरीके से निपटने को प्रमाणित करने के फैसले पर एक प्रकार से सवालिया निशान लगाया गया है.
स्पष्ट रूप से, इमरान खान ने खुद ही उस धुन को बजाने में रुचि दिखायी है, जिसका संगीत पाकिस्तानी सेना और आइएसआइ ने तैयार किया है. खुद पीटीआइ के अध्यक्ष द्वारा दिये गये बयान से यह सच भी सामने आया है कि भीड़ को पार्लियामेंट हाउस की ओर कूच करने के पीटीआइ के एजेंडे को महज दो रात पहले दिशानिर्देश देने का काम इमरान खान की ओर से नहीं, बल्कि किसी और की तरफ से आया था. स्पष्ट रूप से यह दिशानिर्देश पाकिस्तान की सेना की ओर से जारी किया हुआ प्रतीत होता है, जिसके जरिये राजनीतिक हिंसा को उकसाया गया है और इससे पाकिस्तान की सेना को अपने अनुकूल ह्यबना-बनाया माहौलह्ण मिल गया है.
पाकिस्तानी सेना की ओर से जारी प्रेस विज्ञप्ति में कहा गया है कि पाकिस्तान के मौजूदा हालात की भारत गलत व्याख्या कर सकता है. सेना एक लोकतांत्रिक सरकार को गिराने के पक्ष में भले ही न हो, लेकिन सरकार को राजनीतिक स्थिरता की ओर ध्यान देना चाहिए. पाकिस्तान की सेना इमरान खान और कादरी को यह सुझाव क्यों नहीं देती है कि मौजूदा गतिरोध के हल के लिए उन्हें न्यायिक और संवैधानिक तरीका अपनाने चाहिए?
* बाहरी नायक
अब आते हैं बाहरी नायकों की ओर जो पाकिस्तान में सेना द्वारा की जानेवाली किसी प्रकार की राजनीतिक उठापटक की स्थिति में सामने आते हैं. ये हैं अमेरिका, सऊदी अरब और चीन. सेना के इन तीनों संरक्षकों ने पाकिस्तानी सेना में व्यापक निवेश कर रखा है और पाकिस्तानी सेना की रणनीति भी अपने संबंधित रणनीतिक निवेशकर्ताओं की सेवा करना है. अमेरिकी-पाकिस्तानी सेना का संबंध पाकिस्तान में लोकतंत्र को एक किनारे रखते हुए अमेरिकी राजनेताओं और रणनीतिक उपयोगिता के मुताबिक किये जानेवाले प्रयोगों की एक घिनौनी गाथा है. हालिया मामले में भी, अनौपचारिक रूप से पता चला है कि अमेरिका की प्राथमिकता इस बात को लेकर है पाकिस्तान में राजनीतिक नियंत्रण के लिए सेना बेहतर है.
पारंपरिक रूप से और ईरान के साथ संबंधों में परमाणु गतिरोध की चुनौतियों के मद्देनजर सऊदी अरब की सत्ता से समर्थन हासिल करने की जिम्मेवारी पाकिस्तानी सेना के कंधों पर है. पाकिस्तान की राजनीतिक गतिविधियों में सऊदी अरब का भी राजनीतिक रूप से योगदान रहा है. दरअसल, सऊदी अरब ने सत्ता से बेदखल किये गये पाकिस्तान के राजनीतिक प्रमुखों और पाकिस्तानी सेना प्रमुखों को अपने यहां पनाह दी है.
चीन ने भले ही यह संदेश दिया हो कि पाकिस्तान की राजनीति में वह एक निष्क्रिय दर्शक की भांति है, लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि महज कुछ वर्षों पूर्व लाल मसजिद की घटना के दौरान चीन ने भी अपनी ओर से सक्रियता दिखायी थी, जब पाकिस्तान की सेना ने इस इलाके में कार्रवाई के लिए मोरचा संभाला था. अमेरिका अपनी ओर से भले ही यह दर्शा रहा हो और एक धीमी आवाज उठायी हो कि वह नहीं चाहता कि लोकतांत्रिक रूप से चुनी गयी पाकिस्तानी सरकार में कोई बदलाव हो, लेकिन अब ऐसा प्रतीत हो रहा है कि वह भी पाकिस्तानी सेना द्वारा तख्तापलट के इंतजार में है. पाक सेना के सत्ता में रहते हुए सऊदी अरब और चीन उसके साथ रहे हैं.
यह बेहद खेदजनक है कि पाकिस्तान में राजनीतिक बहुमत हासिल नेता चुप हैं और पाकिस्तानी सेना- इमरान खान- कादरी के संदिग्ध सांठगांठ का कोई जवाब नहीं दे रहे हैं, जो राजनीतिक विघटन के असंवैधानिक तरीकों द्वारा पाकिस्तान के लोकतंत्र को नष्ट करने पर आमादा हैं. इसीलिए अमेरिका और सेना (पाक) ने लोकतांत्रिक रूप से चुनी गयी सरकार को गिराये जाने की प्रक्रिया के बीच अपनी ओर से सरकार को बचाने के बारे में किसी तरह का संकेत नहीं दर्शाया है. पाकिस्तान में राजनीतिक बहुमत हासिल वर्ग मूकदर्शक बना हुआ है और केवल ईश्वर से यह प्रार्थना कर सकता है कि वे पाकिस्तानी सेना प्रमुख को सद्बुद्धि दें, ताकि सैन्य तख्तापलट की संभावित घटना न हो, जो किसी भी समय हो सकती है.
(साउथ एशिया एनालिसिस ग्रुप की वेबसाइट से साभार)
* अपनी हैसियत बढ़ाने में जुटी है पाक सेना
।। मेजर जनरल अफसर करीम ।।
पाकिस्तान में जो मौजूदा हालात हैं, ये फौज की रणनीति का हिस्सा हैं, जिसके तहत वहां की फौज चाहती है कि उसका वजूद मजबूत बना रहे. फिलहाल जो विरोध प्रदर्शन हो रहा है, वह पाकिस्तान का अंदरूनी मामला है, इससे उसके पड़ोसी देशों, भारत या दक्षिण एशिया के किसी भी देश पर पर कुछ खास असर नहीं होनेवाला है. लेकिन, गौर करनेवाली महत्वपूर्ण बात यह है कि वहां एक छोटी सी पार्टी ने प्रधानमंत्री के इस्तीफे की जो मांग की है, वह पाकिस्तान की जम्हूरियत के लिए उचित नहीं है.
मौजूदा हालात के मद्देनजर अभी यह देखना बाकी है कि वहां की सेना क्या करेगी, किसका समर्थन करेगी, जो उसकी कठपुतली हो सके. अब तक तो ऐसा होता रहा है कि पाकिस्तान में तख्ता पलट में सेना की बड़ी भूमिका होती थी, लेकिन इस बार सेना के अंदाज कुछ बदले-बदले से हैं. इसलिए भारत या बाकी पड़ोसी देशों पर इसका असर तभी दिखाई देगा है, जब आगे तख्ता पलट जैसा कुछ होता है.
पाकिस्तान की सत्ता में सेना का दखल एक अलग तरह की लोकतांत्रिक व्यवस्था का वाहक है. अब भी वहां की सेना के हाथ में ही ताकत है, लेकिन जवाबदेही के लिए अपने सामने सत्ता को रख देती है. इसलिए उसका दखल मजबूत हो जाता है. फिर भी अभी इस बात के संकेत नहीं मिल रहे हैं कि पाकिस्तान की सत्ता पर सेना का कब्जा हो जायेगा और अभी पाकिस्तान के लोग भी यह नहीं चाहते कि सेना सत्ता संभाले. लेकिन मौजूदा हालात के मद्देनजर यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि जिस दिन सेना को कोई कठपुतली मिल जायेगी, उस दिन सेना सत्ता की बागडोर अपने हाथ में ले सकती है.
सेना को अभी अगर इस अफरा-तफरी को रोकना होता, तो वह कब का रोक चुकी होती, लेकिन उसने ऐसा नहीं किया और पूरी तरह से नवाज शरीफ पर जवाबदेही को लाद कर उनकी सत्ता को कमजोर करने में लगी हुई है. ऐसे में सिर्फ सेना को ही फायदा दिखता है, इससे मुल्क घाटे में जायेगा, इसकी संभावना प्रबल है.
जहां तक भारत द्वारा पाकिस्तान के साथ बातचीत रद्द किये जाने का सवाल है, तो भारत-पाक के बीच कई बार बातचीत हुई है, रिश्ते बने हैं-बिगड़े हैं, लेकिन इससे अभी तक तो भारत पर कोई खास फर्क नहीं पड़ा. भारत का यह अच्छा निर्णय था कि बातचीत को रद्द कर दिया गया. पिछले कुछ महीनों से भारत-पाक सीमा से जिन गतिविधियों की खबर आ रही है, उससे कहा जा सकता है कि पाक सेना अपनी हैसियत को बढ़ाना चाहती है.
एक दूसरी बात यह है कि अगर हम यहां खबर सुनते हैं कि पाकिस्तान हमले-पर-हमले किये जा रहा है, तो कुछ ऐसी ही खबर पाक मीडिया में भी आ रही है कि भारत जल्दी ही पाकिस्तान पर हमला करनेवाला है. इसलिए पाकिस्तान के लोग समझते हैं कि पाक सेना की ताकत कम नहीं होनी चाहिए, बल्कि उसकी हैसियत में और भी इजाफा होना चाहिए, क्योंकि भारत की तरफ से खतरा बढ़ता जा रहा है.
पाकिस्तान में कोई भी नागरिक यह यकीन करने को तैयार नहीं है कि सीमा पर पाक सेना हमला कर रही है. उनका मानना है कि भारत में जबसे नयी सरकार बनी है, तबसे भारत ही सीमा पर दखल दे रहा है. किसी भी लोकतांत्रिक देश में वहां के लोगों की ऐसी सोच से वहां की सेना की हैसियत बढ़ती है. इसी बात का फायदा पाक सेना उठाना चाहती है. (वसीम अकरम से बातचीत पर आधारित)
* पाकिस्तान के हालात को भारत के लोग ऐसे भी समझ सकते हैं!
।। वुसतुल्लाह खान ।।
बीबीसी संवाददाता, पाकिस्तान
पिछले एक पखवाड़े से भी अधिक समय से पाकिस्तान राजनीतिक उथल-पुथल के दौर से गुजर रहा है. इमरान खान और ताहिरुल कादरी प्रधानमंत्री नवाज शरीफ के इस्तीफे से कम पर मानने को राजी नहीं हैं. खान और कादरी समर्थक पत्थर-डंडे से लैस होकर और गैस मास्क पहन कर प्रधानमंत्री आवास को घेरे हुए हैं. सुरक्षा बलों के साथ उनकी झड़पें हो रही हैं. इन हालात में दिल्ली में बैठा कोई शख्स क्या महसूस कर रहा होगा, इसे अपने अनोखे अंदाज में पेश कर रहे हैं वुसतुल्लाह खान.
कभी-कभी ऐसे दिन भी आते हैं जब न कुछ सोचा जाता है न लिखा जाता है, बस दिल चाहता है कि आदमी अकेला बैठा रहे. बात करना भी मेहनत करने जैसा लगता है. इस वक्त मेरा यही हाल है. टीवी बंद कर दिया है, लेकिन दिल चाहता है कि टीवी को खिड़की से बाहर फेंक दूं. मेरी तकलीफ समझनी है तो जरा देर के लिए आंखें बंद कर लें और तसव्वुर कर लें कि कोई एनआरआई आचार्यजी दिल्ली के इंदिरा गांधी एयरपोर्ट पर उतरते ही ऐलान कर दें कि लोकतंत्र तो एक फ्रॉड है और उसके नाम पर पिछले छह दशक से जनता पर जुल्म किया जा रहा है.
अगर लोकतंत्र ये है कि हर वर्ष हजारों किसान आत्महत्या कर लें, अगर लोकतंत्र ये है कि एक गरीब आदमी को किसी गुंडे से अपना मकान वापस लेने के लिए दस-दस साल अदालत के सामने नाक रगड़नी पड़े, मृत्यु प्रमाणपत्र लेने के लिए भी क्लर्क को घूस देनी पड़े, अगर किसी पुलिस ऑफिसर को अपनी ही पेंशन लेने के लिए चपरासी से लेकर ऊपर तक हरेक के सामने घिघियाना पड़े, तो लानत है ऐसे लोकतंत्र पर… मैं नहीं मानता ऐसी संसद को, सबको लपेट दो.
जिस समय आचार्यजी ऐलान कर दें कि ऐसे लोकतंत्र का तख्ता पलट करने के लिए वो आगरा से दिल्ली तक दस लाख लोगों के साथ क्रांति मार्च करेंगे, उसी समय यदि कोई सचिन तेंडुलकर यह ऐलान कर दे कि मोदी सरकार धांधली की उपज है, जिसने जनता का वोट चुराया है. इसलिए मेरे हजारों सहयोगी तब तक संसद नहीं चलने देंगे, जबतक कि मोदी सरकार इस्तीफा नहीं देती!
और फिर आचार्यजी और सचिन तेंडुलकर एक-दूसरे के आगे-पीछे नयी दिल्ली में दाखिल हों और संसद को घेर कर धरना दे दें और विपक्ष समेत किसी की भी बात सुनने से इनकार कर दें… और जब सत्रह दिन के धरने के बाद भी मोदी सरकार, प्रधान न्यायाधीश और चुनाव आयुक्त त्यागपत्र नहीं दें तो अचानक ये हजारों विरोधी हेलमेट पहन, मुंह पर गैस मास्क लगा, डंडे-गुलेलें और मिर्च स्प्रे हाथों में उठा, पत्थरों से भरे बैग कंधों से लटका, राष्ट्रपति भवन और प्रधानमंत्री निवास की ओर दौड़ पड़ें और उनकी दीवारें या दरवाजे अपने साथ लायी हुई क्रेन से तोड़ दें… पुलिस और अर्द्धसैनिक बलों से उनकी आंख मिचौली चलती रहे और अर्थव्यवस्था इतनी बिगड़ जाये कि मोदी सरकार को फौज की मदद मांगनी पड़ जाये… और फिर सेनापति यह कह दें कि फौज तो न्यूट्रल है, सरकार और बलवाई अपना झगड़ा खुद ही निपटाएं!
यह सब टीवी की स्क्रीन पर देख कर और सुन कर आपको कैसा लगेगा? बस, आपको जैसा लगेगा, वैसा ही मुझे इस वक्त इसलामाबाद में बैठ कर लग रहा है.
(बीबीसी हिंदी से साभार)