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प्रधानमंत्री का आर्थिक राष्ट्रवाद

विदेशी कंपनियों को प्रधानमंत्री के आमंत्रण में नयी बात यह है कि भारत सरकार यह काम विदेशी निवेश को आकर्षित करने के नाम पर नहीं, बल्कि देश में विनिर्माण क्षेत्र को बढ़ावा देने और आयातों पर निर्भरता कम करने के लिए कर रही है. लाल किले की प्राचीर से वर्षो बाद किसी प्रधानमंत्री ने भाषण […]

विदेशी कंपनियों को प्रधानमंत्री के आमंत्रण में नयी बात यह है कि भारत सरकार यह काम विदेशी निवेश को आकर्षित करने के नाम पर नहीं, बल्कि देश में विनिर्माण क्षेत्र को बढ़ावा देने और आयातों पर निर्भरता कम करने के लिए कर रही है.

लाल किले की प्राचीर से वर्षो बाद किसी प्रधानमंत्री ने भाषण में अपने शासन का आर्थिक दर्शन प्रस्तुत किया, जिसमें विद्यालयों में बालिकाओं के लिए शौचालय निर्माण से लेकर देश में विनिर्माण तक की बात की. यह सब कैसे होगा, इसकी भी अपनी कल्पना देश के सामने रखी. 15 अगस्त के भाषण का देश के बजट पर कोई बोझ न पड़ना, यह भी इस भाषण की एक बड़ी खूबी रही.

पिछले 10-15 वर्षो से देश पर आयातों का बोझ बढ़ता जा रहा है. यह सही है कि उस बोझ में लगभग एक-तिहाई कच्चे तेल के आयात का बोझ है, जिसे कम करने की जरूरत है, लेकिन आयातों के बोझ में दूसरा सबसे बड़ा बोझ इलेक्ट्रॉनिक और टेलीकॉम आयातों का है. आज तक किसी राजनेता ने इस बात को इतने खुले तौर पर नहीं कहा. लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लाल किले की प्राचीर से यह बात कहते हुए देश और विदेश के उद्यमियों के सामने अपना स्पष्ट आर्थिक एजेंडा रख दिया. विदेशी कंपनियों को तो उन्होंने आमंत्रण दिया ही कि जो सामान वे विदेशों में बना कर भारत में बेचते हैं, वो भारत में ही बनायें. भारतीय उद्यमियों को भी कहा कि वे जीरो डिफेक्ट और पर्यावरण पर जीरो इफेक्ट करते हुए सामान बना कर दुनिया में भारत ब्रांड को चमकाने का काम करें. मेक-इन-इंडिया और मेड-इन-इंडिया का यह नारा यदि सही तौर पर अमल में लाया गया, तो देश में मैन्युफैरिंग की तसवीर ही नहीं बदलेगी, बल्कि आयातों पर देश की निर्भरता कम होती जायेगी.

हम देखते हैं कि पिछले 15-20 वर्षो में आमदनियों में जो भी वृद्घि हुई है, उसका ज्यादा बड़ा हिस्सा इलेक्ट्रॉनिक और टेलीकॉम पर खर्च हो रहा है. देश में इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों का आयात तो पहले से कई गुना ज्यादा हुआ ही है, साथ ही मोबाइल, कंप्यूटर, लैपटॉप, आइपैड, टैबलेट आदि ही नहीं, बल्कि बड़े-बड़े टेलीकॉम उपकरण भी आज विदेशों से आयात हो रहे हैं. गौरतलब है कि 2000-01 में देश में मात्र छह अरब डॉलर के टेलीकॉम और इलेक्ट्रॉनिक सामान आयात होते थे, वे 2012-13 तक बढ़ कर 32 अरब डॉलर तक पहुंच गये. एक देश जो अंतरिक्ष उपग्रह, पीएसएलवी सरीखे प्रक्षेपण यान, एटम बम, हजारों किमी की मारक क्षमता वाले मिसाइल, सुपर कंप्यूटर से भी ज्यादा क्षमता वाला परम कंप्यूटर बना सकता है, वह मोबाइल फोन नहीं बना सकता, यह छोटी सी बात हमारी समझ के परे है.

अंतरराष्ट्रीय व्यापार के इस युग में हमें दुनिया भर के देशों के साथ प्रतिस्पर्धा करनी पड़ती है और कम से कम लागत पर सामान बना कर दुनिया के बाजारों में बेच कर ही हम प्रतिस्पर्धा में टिक सकते हैं. लेकिन पिछले कुछ एक-डेढ़ दशक का अनुभव यह रहा है कि भारत को चीन से प्रतिस्पर्धा करनी पड़ती है और कई कारणों से चीन के सस्ते आयातों के सामने भारत के उद्योग प्रतिस्पर्धा नहीं कर पाते और देश में चीनी सामान का आयात लगातार बढ़ता जा रहा है. भारत से चीन को किये जानेवाले निर्यातों में ज्यादातर कच्चा माल, विशेषतौर पर लौह खनिज ही महत्वपूर्ण है. वास्तविकता यह है कि बड़ी-बड़ी अंतरराष्ट्रीय कंपनियों ने चीन में अपनी फैक्ट्रियां लगा रखी हैं, जहां से सामान भारत में पहुंचता है. दरअसल, अमेरिकी-यूरोपीय और अन्य देशों की कंपनियों को भारत में न्योता पहली बार नहीं दिया गया है. सामानों को बनाने के लिए विदेशी कंपनियों को देश में पहले से ही अनुमति मिली हुई है. लेकिन प्रधानमंत्री के आमंत्रण में नयी बात यह है कि भारत सरकार यह काम विदेशी निवेश को आकर्षित करने के नाम पर नहीं, बल्कि देश में विनिर्माण क्षेत्र को बढ़ावा देने और आयातों पर निर्भरता कम करने के लिए कर रही है.

पहले जब भी विविध क्षेत्रों को विदेशी निवेश के लिए खोला गया, सदैव यही कहा गया कि इससे देश से निर्यात बढ़ेंगे और आयातों पर निर्भरता कम होगी, लेकिन ऐसा नहीं हो सका. प्रधानमंत्री के ताजा बयानों की सार्थकता यह है कि नयी सरकार प्रारंभ से ही देश में मैन्युफै रिंग को बढ़ावा देने की बात करती रही है. भारत के इंजीनियर दुनिया में अपनी पहचान रखते हैं. उद्योगों के लिए इन्फ्रास्ट्रर भी मौजूद है और सरकार की इच्छाशक्ति से उसे और मजबूत किया जा सकता है. पहले भी भारत के लघु उद्योगों ने खासी प्रगति दिखायी थी. पिछले दो दशकों में चीनी प्रतिस्पर्धा के कारण छोटे उद्योग धंधे बंद हुए हैं. आशा करनी चाहिए कि नयी सरकार की नयी पहल से मैन्युफैरिंग को तो बल मिलेगा ही, रोजगार के अवसर बनेंगे, देश पर आयातों का बोझ घटेगा और निर्यातों में भी वृद्घि हो सकेगी. वर्तमान में चीन से स्पर्धा के संबंध में बेहतर परिस्थितियां हैं. आज चीन बढ़ती महंगाई और श्रम की बढ़ती लागत से ही नहीं, बल्कि बढ़ती ब्याज दरों और विकास के घटते अवसरों की समस्या से जूझ रहा है. ऐसे में भारतीय नेतृत्व का मैन्युफैरिंग को बढ़ावा देने का संकल्प बेहतर नतीजे ला सकता है.

डॉ अश्विनी महाजन

एसोसिएट प्रोफेसर, डीयू

ashwanimahajan @rediffmail.com

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