नयी दिल्लीः कांग्रेस की लोकसभा में विपक्ष की नेता के मांग के बीच आज लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन ने कहा कि लोकसभा में कोई विपक्ष का नेता नहीं होगा. गौरतलब है कि 2014 की लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को विपक्ष के नेता का पद का दावेदार होने के लिए आवश्यक सीट भी नहीं मिल पाया. जिसके कारण लोकसभा अध्यक्ष ने संवैधानिक व्यवस्था का पालन करते हुए कांग्रेस के विपक्ष की मांग को खारिज कर दिया.
सुमित्रा ने कांग्रेस को नेता प्रतिपक्ष का दर्जा नहीं दिए जाने के अपने निर्णय के बारे में प्रेट्र से कहा, ‘‘मैंने नियमों और परंपराओं का अध्ययन किया है.’’ स्पीकर के इस निर्णय के बारे में कांग्रेस को पत्र लिख कर बता दिया गया है. कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने सुमित्रा को पत्र लिख कर लोकसभा में कांग्रेस के नेता मल्लिकार्जुन खडगे को नेता प्रतिपक्ष का दर्जा देने का आग्रह किया था.
यह निर्णय करने से पहले स्पीकर ने अटॉर्नी जनरल मुकुल रोहतगी के विचार भी लिए जिन्होंने कहा कि कांग्रेस के पास सदन में वह आवश्यक संख्या नहीं है जिससे उसे नेता प्रतिपक्ष का दर्जा दिया जा सके.
लोकसभा में कांग्रेस 44 सीटों के साथ दूसरी सबसे बडी पार्टी है. 282 सीटों के साथ भाजपा सबसे बडी पार्टी है. स्पीकर ने नियमों का हवाला देते हुए कांग्रेस से कहा है कि वह इस स्थिति में नहीं हैं कि सदन में पार्टी के नेता को नेता प्रतिपक्ष का दर्जा दे सकें. यह दर्जा पाने के लिए 543 सदस्यीय लोकसभा में किसी दल के पास इस संख्या का कम से कम से 10 प्रतिशत यानी 55 सीट होना आवश्यक है.
समझा जाता है कि अपने इस निर्णय के संदर्भ में सुमित्रा ने 1980 और 1984 के उदाहरणों का भी हवाला दिया जब लोकसभा में किसी विपक्षी दल के पास यह संख्या नहीं होने के कारण किसी को नेता प्रतिपक्ष का दर्जा नहीं दिया गया था.
खडगे ने इस निर्णय पर कहा कि वह इस बारे में कुछ कहने से पहले कांग्रेस आलाकमान और पार्टी के विधि प्रकोष्ठ की राय लेंगे. उन्होंने कहा, ‘‘मान्यता प्राप्त नेता प्रतिपक्ष होना एक बात है और फ्लोर लीडर के रुप में काम करना दूसरी बात.’’ केंद्रीय सूचना आयोग और केंद्रीय सतर्कता आयोग जैसी सांविधिक निकायों की नियुक्तियों में कानूनी जरुरतों को देखते हुए नेता प्रतिपक्ष के दर्जे की अहमियत बढ गई है.
क्या हैं संवैधानिक व्यवस्था
भारतीय संविधान में यह प्रावधान है कि यदि किसी पार्टी को सदन में कुल सदस्य संख्या का 1/10 भाग सीट प्राप्त नहीं होता है तो वह पार्टी विपक्ष के नेता का हकदार नहीं हो सकता है. और अगर एक से अधिक पार्टियों को इससे अधिक सीट मिलता है तो उसमें से सबसे बडी पार्टी को विपक्ष का दर्जा दिया जाएगा. मौजूदा स्थिति के अनुसार लोकसभा में विपक्ष के नेता का दावेदार होने के लिए कांग्रेस के पास 543 सीटों में से कम-से-कम 55 सीट होने चाहिए थे. लेकिन उसके इस चुनाव में मात्र 44 सीट थे.
पहली बार ऐसा नहीं हुआ है
यह पहली ऐसी घटना नहीं है जब लोकसभा में कोई भी पार्टी विपक्ष के नेता के पद का हकदार नहीं बन पाया.पहली से लेकर पांचवी लोकसभा तक अर्थात 1952 से लेकर 1977 तक संवैधानिक रुप से लोकसभा में कोई भी विपक्ष का नेता नहीं रहा. 1952 में जब पहली लोकसभा का गठन हुआ तब उस वक्त केवल सीपीआई ही दूसरी पार्टी थी. सीपीआई को 489 में से केवल 16 सीटें मिली थी. इसलिए संवैधानिक रुप से किसी को भी विपक्ष के नेता का पद नहीं दिया गया था. हालांकि सीपीआई नेता एके गोपालन को अनौपचारिक तौर पर विपक्ष का नेता कहा जाता था.
1975 में इंदिरा गांधी की सरकार के दौरान जब आपातकाल लगाया गया तो इससे कांग्रेस की सरकार को गहरा धक्का लगा. 1979 में जब नयी सरकार बनी तो कांग्रेस पहली बार विपक्ष की भूमिका में आया और कांग्रेस नेता वाईबी चौहान संवैधानिक रुप से लोकसभा में विपक्ष के पहले नेता बने.
अब औपचारिक रुप से तो कांग्रेस को विपक्ष का पद देने से लोकसभा अध्यक्ष ने इनकार कर दिया है लेकिन मानवीयता के आधार पर किसी को विपक्ष का दर्जा दिया जा सकता है जैसा की पहले भी किया जा चुका है. लेकिन अब इसके लिए सत्ता पक्ष और विपक्ष में क्या सहमति होती है यह देखना होगा.