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आगे-आगे देखिये, अमेरिका करता है क्या!

पुष्परंजन ईयू-एशिया न्यूज के नयी दिल्ली संपादक सवाल यह है कि मोदी सरकार अचानक अमेरिकी मंत्रियों के स्वागत में इतना व्यस्त क्यों हो गयी है? अमेरिका एक व्यापारी देश है, और अपनी कूटनीति आक्रामक तरीके से करता है. भारत को उसके तौर-तरीके सीखने की जरूरत है. ‘नमस्ते, अस्सलाम-ओ-अलैकुम, दिल्ली में आपका स्वागत है. मुझे यह […]

पुष्परंजन

ईयू-एशिया न्यूज के नयी दिल्ली संपादक

सवाल यह है कि मोदी सरकार अचानक अमेरिकी मंत्रियों के स्वागत में इतना व्यस्त क्यों हो गयी है? अमेरिका एक व्यापारी देश है, और अपनी कूटनीति आक्रामक तरीके से करता है. भारत को उसके तौर-तरीके सीखने की जरूरत है.

‘नमस्ते, अस्सलाम-ओ-अलैकुम, दिल्ली में आपका स्वागत है. मुझे यह जान कर खुशी है कि डिफेंस एक्सपो में अमेरिकी कंपनियों के भाग लेने की संख्या 20 प्रतिशत बढ़ी है. यह बढ़ते बाजार और भारत में रुचि का प्रतीक है. हमारा भारत के साथ भागीदारी बढ़ाना जारी रहेगा.’ 6 फरवरी, 2014 को अमेरिका की तत्कालीन दूत नैंसी पावेल के दिये भाषण का यह अंश इसका संकेत देता है कि वाशिंगटन के इरादे क्या हैं. सरकारें बदलीं और यदि हमारी विदेश नीति में किसी बदलाव के संकेत नहीं हैं, तो अमेरिका के लिए इससे अच्छी बात क्या हो सकती है? शायद इसलिए अमेरिकी प्रतिरक्षा मंत्री चक हेगेल 20 हजार करोड़ की डिफेंस डील के लिए नयी दिल्ली पधारे हुए हैं. चक हेगेल गुरुवार से तीन दिनों के लिए नयी दिल्ली में हैं. उनका आना ऐसे समय हुआ है, जब संसद सत्र चल रहा है. अमेरिकी विदेश मंत्री के आने के एक दिन पहले भारत की कैबिनेट कमेटी ने प्रतिरक्षा में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की सीमा 26 प्रतिशत से बढ़ा कर 49 प्रतिशत को मंजूरी दे दी है. रक्षा मंत्री अरुण जेटली इस बात का खंडन कर सकते हैं कि रक्षा क्षेत्र में 49 प्रतिशत एफडीआइ के फैसले का उनके अमेरिकी समकक्ष चक हेगेल के आने से कोई संबंध नहीं है. शायद पिछले सप्ताह नयी दिल्ली आये अमेरिकी विदेश मंत्री कैरी निर्देश दे गये हों?

अभी शहर ठीक से बसा नहीं है, लेकिन अमेरिकी मंत्रियों के आने का सिलसिला जिस तरह से शुरू हुआ है, उससे लगता है कि मोदी सरकार को आईने में उतारने का अमेरिकी प्रयास प्रारंभ है. पिछले चार दशकों तक रूस, भारत का सबसे बड़ा हथियार सप्लायर देश था. लेकिन 2013 में अमेरिका ने रूस की लकीर छोटी कर दी थी. 2013 में सुरक्षा विश्लेषक समूह ‘आइएचएस’ ने जानकारी दी थी कि अमेरिकी सैन्य साजो-सामान सबसे अधिक सऊदी अरब खरीदता रहा है, लेकिन अब उसकी जगह भारत ने ले ली है. 2013 में भारत ने 1.9 अरब डॉलर के अमेरिकी सैन्य साजो-सामान खरीदे थे, जिसमें सी-17 ग्लोबमास्टर थ्री और पी-81 मल्टीमिशन एयरक्राफ्ट भी शामिल था. 2009 में भारत अमेरिका से 237 मिलियन डॉलर के हथियार खरीदता था, जिसमें आठ गुणा वृद्घि हो चुकी है. भारत अब भी 70 प्रतिशत मिल्ट्री हार्डवेयर बाहर से मंगाता है. यह तसवीर क्या प्रतिरक्षा में 49 प्रतिशत एफडीआइ के बाद बदल जायेगी? यों भाजपा ने इस कदम का स्वागत किया है. बल्कि कुछ राष्ट्रवादी प्रतिरक्षा में सौ फीसद एफडीआइ की वकालत कर रहे हैं.

पूरे एशिया में चीन नंबर वन हथियार सप्लायर देश है, और विश्व में अमेरिका, रूस के बाद वह तीसरे नंबर पर आता है. चीन को इसके लिए प्रतिरक्षा में 49 प्रतिशत एफडीआइ की जरूरत नहीं पड़ी. चीन ने इस वास्ते घरेलू निर्माताओं को आगे किया. दुनिया के बहुतेरे मिलिट्री हार्डवेयर बनानेवाले सस्ते दर पर चीनी फैक्ट्रियों में माल बनाते, और उसे दूसरे देशों को सप्लाई कर देते हैं. चीन इनकी नकल करते-करते रक्षा सामग्री बनाने के मामले में आगे बढ़ गया. उदाहरण के लिए सुखोई एसयू-27 युद्घक विमान है, जिसे चीन ने रूस से आयात किया, और अपने ‘जे-11 फाइटर प्लेन’, एसयू-27 एयरफ्रेम को बेस बना कर विकसित कर लिया. भारत में सैन्य साजो-सामान बनाने और शोध के लिए अब तक सरकार डीआरडीओ (डीफेंस रिसर्च एंड डेवलपमेंट ऑर्गेनाइजेशन) पर निर्भर रही है. डीआरडीओ की 25 लेबोरेट्री, पांच हजार वैज्ञानिक, 39 ऑर्डिनेंस फैक्ट्री, 25 हजार सपोर्ट पर्सनल के होते हुए भारत क्यों हथियार बेचने का सबसे बड़ा विदेशी बाजार बना रहा, इस पर देश को सोचना चाहिए.

अपने देश में हथियार निर्माण और उसके अनुसंधान पर मात्र छह प्रतिशत राशि के आबंटन से कोई आम भारतीय यह क्यों नहीं सोचने पर विवश होगा कि सेना में कमीशनखोर लॉबी जान-बूझ कर भारत को विकसित देशों की कतार से बाहर रखे रहना चाहती है. स्टॉकहोम इंटरनेशनल पीस एंड रिसर्च इंस्टीट्यूट ‘सिपरी’ ने 2011 में जारी रिपोर्ट में जानकारी दी थी कि दुनिया भर में जितने हथियार बेचे जाते हैं, उसका अकेले 10 प्रतिशत भारत खरीदता है. चीन और पाकिस्तान इसके आधे भी नहीं खरीदते. दरअसल, प्रतिरक्षा मंत्रालय ऐसे महानुभावों के हाथों में रहा है, जिन्हें सेना की जरूरतों को समझाने में वर्षो लग जाते हैं. एके एंटनी कानून के जानकार थे, उनके हवाले रक्षा मंत्रालय कर दिया गया. सात साल तक एके एंटनी की समझ में नहीं आया कि देश को रक्षा निर्यात के क्षेत्र में आगे आना है, तो हमें करना क्या चाहिए. बस उनको इसी बात का गर्व है कि वह सबसे लंबे समय तक रक्षा मंत्री रहे हैं.

प्रतिरक्षा में 49 प्रतिशत एफडीआइ के दरवाजे हम खोल जरूर रहे हैं, लेकिन विदेशी निवेशक किन शर्तो पर भारत के हथियार निर्माण उद्योग में कदम रखेंगे? हमारे देसी निर्माता किस हद तक उनके साथ रक्षा तकनीक शेयर कर पायेंगे, हथियारों की गुणवत्ता क्या होगी? इन तमाम सवालों का जवाब ‘सैन्य सामग्री निर्माण नीति’ तय करने पर ही मिलेगा. सैन्य साजो-सामान निर्माण और उसका निर्यात, अब दिनों-दिन प्रतिस्पर्धी हो रहा है. भारत कितना मिल्ट्री हार्डवेयर बेच सकता है, इस पर पूरे होमवर्क की जरूरत है. सैन्य साजो-सामान निर्यात के मामले में एशिया में भारत के प्रतिस्पर्धी चीन और दक्षिण कोरिया हो सकते हैं.

सवाल यह है कि मोदी सरकार अचानक अमेरिकी मंत्रियों के स्वागत में इतना व्यस्त क्यों हो गयी है? महीने भर में उप विदेश राज्य मंत्री विलियम बर्न्‍स, विदेश राज्य मंत्री निशा देसाई बिस्वाल, उनके बॉस कैरी, वाणिज्य मंत्री पेनी प्रिट्ज्कर नयी दिल्ली आये, और अब अमेरिकी प्रतिरक्षा मंत्री चक हेगेल 20 हजार करोड़ की डीफेंस डील के लिए नयी दिल्ली पहुंच गये. अमेरिका एक व्यापारी देश है, और अपनी कूटनीति आक्रामक तरीके से करता है. भारत को उसके तौर-तरीके सीखने की जरूरत है. सुषमा स्वराज 8 से 11 अगस्त को आसियान विदेश मंत्रियों की बैठक में म्यांमार जा रही हैं. दक्षिण-पूर्व एशिया, अफ्रीका सैन्य साजो-सामान बिक्री का एक बड़ा बाजार है. लेकिन उस बाजार को पकड़ने के लिए भारत को रक्षा निर्माण के क्षेत्र में क्रांतिकारी बदलाव करना पड़ेगा. 20 हजार करोड़ के सौदे, आतंकियों से संबंधित सूचनाओं को शेयर करनेवाले समझौते से पहले, क्या भारत के प्रतिरक्षा मंत्री अपने अमेरिकी समकक्ष से पूछेंगे कि भारत में खुफियागीरी आप लोग कब रोकेंगे? कैरी, जवाब टाल गये थे, प्रतिरक्षा मंत्री चक हेगेल शायद ऐसा ही करें. अमेरिकी मित्रता का मोदी युग प्रारंभ हुआ है. ‘इब्तेदा-ए-इश्क है, रोता है क्या, आगे-आगे देखिये होता है क्या!’

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