सकारात्मक संबध के लिए यह जरूरी है कि सभी पक्ष धारणाओं और पूर्वाग्रहों को परे रख कर सहमति तक पहुंचने का प्रयास करें. इस प्रयास में परस्पर लाभ का भी ध्यान रखना जरूरी होता है, क्योंकि इसके बिना सहमति या सहयोग का लंबे समय तक टिक पाना संभव नहीं होता.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की नेपाल यात्रा को अगर इस आधार पर देखें, तो यह दोनों देशों के संबंधों को बेहतर बनाने की दिशा में एक अहम पड़ाव है. नरेंद्र मोदी और नेपाली प्रधानमंत्री सुशील कोईराला के बीच पूर्व से चल रही परियोजनाओं से जुड़े समझौते ही हुए हैं, लेकिन इस यात्रा ने दोनों देशों के बीच पिछले कुछ वर्षों में बनी दूरी को काफी हद तक पाटने में कामयाबी पायी है.
अंतरराष्ट्रीय संबंधों में भरोसे का बड़ा महत्व होता है और मोदी ने वह भरोसा बहाल करने की सफल कोशिश की है. बीते 17 वर्षों में किसी भारतीय प्रधानमंत्री की यह पहली नेपाल यात्रा थी, जबकि इस दौरान नेपाल के राष्ट्राध्यक्ष छह बार और उनके प्रधानमंत्री नौ बार भारत आ चुके हैं. दोनों देशों के बीच 1,800 किलोमीटर से अधिक लंबी खुली सीमा है. 60 लाख से अधिक नेपाली नागरिक भारत में काम करते हैं. नेपाल का लगभग 80 फीसदी व्यापार भारत के साथ होता है.
नेपाल से बड़ी नदियां भारतीय क्षेत्र में बहती हैं. ऐसे में दोनों देशों को एक-दूसरे के साथ की जरूरत है. वक्त के साथ बदलती वैश्विक व क्षेत्रीय राजनीति में आपसी संबंध पारंपरिक धारणाओं पर आधारित नहीं हो सकते हैं. इसे मोदी बखूबी समझते हैं और इसका संकेत भी दिया है. उन्होंने कहा है कि नेपाल के आंतरिक मामलों में भारत हस्तक्षेप नहीं करेगा तथा वे 1950 के शांति व मैत्री समझौते से जुड़ी नेपाल की चिंताओं को दूर करने के लिए भी तैयार हैं.
जिस तरह से वहां की सरकार, राजनीतिक दलों, मीडिया और जनता ने प्रधानमंत्री का स्वागत किया है, वह नेपाल के सकारात्मक रुख का सूचक है. मोदी ने आर्थिक सहायता, पनबिजली उत्पादन को बढ़ाने, दोनों देशों के बीच तेल पाइप लाइन बिछाने का प्रस्ताव भी रख दिया है. बहरहाल, उन्हें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि इस तरह के इरादे पहले भी व्यक्त किये गये, लेकिन उन्हें अमल में नहीं लाया जा सका. जाहिर है, भारत-नेपाल संबंधों का भविष्य दोनों पक्षों की गंभीरता और सक्रियता पर निर्भर है.