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बदलाव हमारे भीतर से आना चाहिए

।। आकार पटेल ।। वरिष्ठ पत्रकार बड़ा बदलाव भीतर से आना चाहिए. हम बदलेंगे, तभी देश बदलेगा. सबको अपने काम के प्रति सजग होकर इसमें योगदान देना होगा, और भले यह पुरानी बात है, पर असुविधा के बावजूद परस्पर नैतिकता का पालन करना होगा.मैंने एक दफा हार्वर्ड विश्वविद्यालय के लैंट प्रिशेट का संभाषण सुना था. […]

।। आकार पटेल ।।

वरिष्ठ पत्रकार

बड़ा बदलाव भीतर से आना चाहिए. हम बदलेंगे, तभी देश बदलेगा. सबको अपने काम के प्रति सजग होकर इसमें योगदान देना होगा, और भले यह पुरानी बात है, पर असुविधा के बावजूद परस्पर नैतिकता का पालन करना होगा.मैंने एक दफा हार्वर्ड विश्वविद्यालय के लैंट प्रिशेट का संभाषण सुना था. वे उस समझ के सिद्धांतकार हैं, जिसमें कहा गया है कि भारत एक ‘मूसल राज्य’ है. प्रिशेट का मानना है कि सिर (केंद्र सरकार और उसकी नीतियों को लागू करनेवाली संस्थाएं) अपने अंगों (असलियत में नीतियों का लागू होना) से ठीक से नहीं जुड़ा हुआ है, और इस वजह से सुचारु ढंग से गतिशील होने की जगह भारत नीतियों को थोपता है.

अच्छी नीतियों का निर्धारण और नियमन करने का यह अर्थ कतई नहीं है कि उन्हें सचमुच में लागू कर ही दिया गया है.अपनी स्थापना को स्पष्ट करने के लिए प्रिशेट ने कुछ विद्वानों के तीन अध्ययनों को उद्धृत किया, जिनमें ‘पुअर इकोनॉमिक्स’ के लेखक एस्थर दुफ्लो एवं अभिजीत बनर्जी भी शामिल हैं. पहला, एक जांच समूह में यह बात पता चली कि अगर आप दलाल को पैसा नहीं देंगे, तो दिल्ली में आप चालक बनने की परीक्षा में असफल हो सकते हैं.

अगर आपने घूस दे दिया, तो आपको परीक्षा देने की जरूरत ही नहीं है. इसका मतलब यह हुआ कि अगर आप कानून का पालन करेंगे, तो आप दंडित किये जायेंगे, और यदि आपने घूस दे दिया है, तो नहीं जानते हुए भी आप गाड़ी चलाने के लिए स्वतंत्र होंगे.

दूसरा उदाहरण एक जांच थी, जिसमें दुफ्लो और बनर्जी ने अभिनेताओं को पांच बड़ी बीमारियों के जरूरी लक्षणों के बहाने के साथ सरकारी डॉक्टरों के पास भेजा था. डॉक्टर रोगियों की सही जांच 97 फीसदी तक नहीं कर सके, क्योंकि वे लापरवाह थे. डॉक्टरों ने औसतन 60 सेकेंड से अधिक समय एक रोगी पर नहीं दिया.

प्रिशेट ने बिल्कुल ठीक कहा कि अगर आपका डॉक्टर सिर्फ तीन फीसदी संभावना के साथ ही आपके रोग का सही अनुमान कर सकता है, तो बेहतर है कि आप अस्पताल जाने के बजाय घर में ही रहें.

उनका तीसरा उदाहरण उस शोध के बारे में था जिसमें यह पाया गया था कि राजस्थान में नर्से काम पर नहीं आती हैं. उनमें से आधी ने घर पर बैठने या कुछ और काम करने के लिए वेतन उठाया था. एक उचित उद्देश्य वाले स्वयंसेवी संगठन ने उपस्थिति की निगरानी के जरिये इस स्थिति को बदलने की कोशिश की. लेकिन, वह असफल रहा.

भारत के हालात से वाकिफ लोगों के लिए ये बातें चौंकानेवाली नहीं थीं. सरकार प्रभावहीन और संसद अशक्त है. मुझे इस बात से असहमति नहीं है और भारत में कभी भी सरकार अच्छी नहीं रही है.

लेकिन, क्या यही हमारी समस्याओं की असली जड़ है? इस देश में तीन फीसदी से भी कम लोग कोई आयकर देते हैं. हम सरकार को करों की ठीक से उगाही न कर सकने के लिए जरूर कोस सकते हैं, लेकिन हमें अपने भीतर झांक कर देखने में क्या हर्ज है?

प्रिशेट के विचार में इन असफलताओं को राज्य द्वारा संबद्ध संस्थाओं- सड़क यातायात कार्यालय, स्वास्थ्य सेवाएं आदि- में सुधार और उनके साथ मिल कर काम करके दूर किया जा सकता है.

जहां तक मैं उनकी बात को ठीक से समझ सका, उन्होंने कहा कि सरकार को अपने संस्थाओं की मिल्कियत और उनपर गर्व की भावना का विकास करने की जरूरत है. ऐसा करने से उसे हाशिये से वापस आकर अपनी क्षमता को बढ़ाने में मदद मिलेगी.

मैंने उनसे पूछा कि क्या असल में समस्या नागरिक समाज में है. अगर डॉक्टर मरीजों की सही जांच नहीं कर रहे हैं या नर्से घर बैठे वेतन उठा रही हैं, तो क्या यह उत्साह और निरीक्षण की कमी से कहीं अधिक गंभीर समस्या का सूचक नहीं है? प्रिशेट ने यह कहते हुए असहमति जतायी कि संस्कृति को जिम्मेवार नहीं ठहराया जा सकता है. शायद वे सही कह रहे हैं.

क्रोधित और मुखर मध्यवर्ग का उदय निश्चित रूप से यह संकेत करता है कि बड़ी संख्या में भारतीय, शायद अधिकांश, इस विचार से सहमत हैं कि सरकार देश को पतन की राह पर ले जा रही है और इसे बेहतर होना चाहिए. निर्भया गैंगरेप के विरुद्ध और अन्ना हजारे के समर्थन में हुए आंदोलन यही बात कह रहे थे.

लेकिन, शिक्षकों के विद्यालय नहीं आने और खराब खाना खाकर मरे बच्‍चों की जिम्मेवारी नहीं लेने जैसे मामलों में सरकार को एक हद तक ही दोषी ठहराया जा सकता है. हम सड़क पर यातायात नियमों का ठीक से पालन नहीं करते. अरविंद केजरीवाल की तरह यह कहना आसान है कि भारतीयों पर कड़ी पहरेदारी की जरूरत है. क्या दूसरे देशों में नागरिक दंड के भय से ठीक से काम करते हैं?

पश्चिम को देख कर तो यह निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता है. करीब सवा अरब भारतीयों में सिर्फ पांच करोड़ लोगों के पास ही पासपोर्ट हैं. इसका मतलब यह है कि 95 फीसदी को बाहर की दुनिया का कोई अंदाजा नहीं है. लेकिन जो बाहर जाते रहते हैं, वे विकसित देशों की तुलना में यहां की स्थिति से परेशान रहते हैं. यह लगातार बढ़ता ही जायेगा और मीडिया व मध्य वर्ग के विस्तार के साथ हमें और क्रोध व प्रदर्शन देखने को मिल सकते हैं.

नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता में अचानक व नाटकीय वृद्धि का एक कारण यह है कि उन्होंने बदलाव का वादा किया है. वे ऐसा कर पायेंगे या नहीं, पर इससे नागरिक को बड़ा सकून मिलता है. यह उसे आश्वस्त करता है कि देश की गड़बड़ी का कारण वह नहीं, बल्कि सरकार व उसकी संस्थाएं हैं जिनमें सुधार की जरूरत है.

मेरे विचार से यह बदलाव का छोटा पहलू है. बड़ा बदलाव भीतर से आना चाहिए. हम बदलेंगे, तभी देश बदलेगा. सबको अपने काम के प्रति सजग होकर इसमें योगदान देना होगा, और भले यह पुरानी बात है, पर असुविधा के बावजूद परस्पर नैतिकता का पालन करना होगा. इसके लिए किसी राजनेता की जरूरत नहीं है. कोई नयी सरकार बदलाव नहीं लायेगी या नहीं ला सकती है. वास्तव में, बाहरी दबाव हमें असली समस्या से दूर ही ले जायेगा.

हमारे पास महत्वपूर्ण आधार हैं- धर्मनिरपेक्ष व विविधतापूर्ण राष्ट्र का सभ्यतागत व पारंपरिक विचार तथा विश्व-स्तरीय संविधान (जिस पर कोई विवाद नहीं है). हमें सरकार में क्रांति की जरूरत नहीं है.

सुबह के अखबारों की खबरों से उपजी निराशा से उबरने के लिए हमें इन विचारों के पास जाना चाहिए, जिनसे बड़ी चीजों में हमारी दिशा के सही होने का भरोसा मिलता है. राजस्थान में नर्सो का काम पर नहीं आना, दिल्ली में वाहन चलाने के लाइसेंस के लिए घूस देना, देश भर में डॉक्टरों द्वारा मरीजों का ध्यान नहीं रखा जाना जैसे छोटे मसले हमारे नियंत्रण में हैं और इन्हें आसानी से ठीक किया जा सकता है.

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