।। प्रमोद जोशी ।।
वरिष्ठ पत्रकार
माना जा रहा है कि खाद्य बाजार खुलने से वैश्विक जीडीपी में तकरीबन 10 खरब (एक ट्रिलियन) डॉलर की संवृद्धि होगी और दो करोड़ से अधिक रोजगार पैदा होंगे. इसका लाभ भारत को भी मिलेगा. पर, हम अपने खाद्य सुरक्षा कार्यक्रम की अनदेखी नहीं कर सकते.
अपने खाद्य सुरक्षा कार्यक्रम को लेकर विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) से पंगा लेकर क्या मोदी सरकार कोई गलती करने जा रही है? क्या वह वैश्विक बिरादरी में अलग-थलग पड़ने को तैयार है? या सरकार क्या यह साबित करना चाहती है कि वह यूपीए की गलती को दुरुस्त कर रही है? बीते साल संसद में खाद्य सुरक्षा कानून को पास करा कर उसका सारा श्रेय कांग्रेस ने लिया था.
अब कुछ श्रेय भाजपा भी लेना चाहेगी. उस कानून को पास कराने में भाजपा ने संसद में सरकार का साथ दिया था. पर पिछले साल दिसंबर में जब वाणिज्य मंत्री आनंद शर्मा बाली में व्यापार सुगमता करार (टीएफए) को स्वीकार करके आये थे, तब अरुण जेटली ने आलोचना करते हुए कहा था कि भारत सरकार विकसित देशों के दबाव में आ गयी है. तब आनंद शर्मा का कहना था कि हमने चार साल तक के लिए मोहलत ले ली है और इस बीच इस मसले का कोई स्थायी समाधान खोज लिया जायेगा.
व्यापार सुगमता करार का मतलब है देशों के बीच व्यापार अवरोधों को कम करना. इनमें लालफीताशाही कम करने के साथ-साथ नियमों को आसान बनाने तथा बंदरगाहों और परिवहन के अन्य केंद्रों को चुस्त-दुरुस्त, गतिशील बनाना शामिल है. टीएफए को 31 जुलाई तक अनुमोदित होना है.
डब्ल्यूटीओ के फैसले सर्वानुमति से होते हैं. भारत और ग्रुप-33 के देश यदि इसके अनुमोदन में शामिल नहीं होंगे, तो विश्व व्यापार-वार्ता के दोहा चक्र में फिर से अवरोध पैदा हो जायेगा. भारत सरकार के रुख के पीछे भावना यह है कि प्रक्रिया और व्यवस्थाओं को दुरुस्त भी कर लेंगे, पर पहले हमें अपनी गरीब जनता को भी देखना है.
यह सही है कि डब्ल्यूटीओ ने सकल अनाज उत्पादन पर जो ज्यादा से ज्यादा 10 फीसदी सब्सिडी की सीमा तय की है, वह अनुचित है. यह सीमा भी 1986 की कीमत पर है. उसमें बदलाव होना चाहिए. इसके साथ ही भारत सरकार पर जिम्मेवारी आयद होती है कि वह कृषि उत्पादन, खरीद, वितरण और सब्सिडी की व्यवस्था में सुधार भी करे.
मोदी सरकार का उद्देश्य इस बात के लिए दबाव बनाना है कि मसले का स्थायी समाधान निकाला जाये. ऐसा न हो कि 2017 के बाद उसे अंतरराष्ट्रीय विवादों में फंसना पड़े. वह दबाव बना कर वह विकसित देशों से पक्का आश्वासन लेना चाहती है. हालांकि, सरकार ने टीएफए लागू करने की व्यवस्थाएं कर ली हैं.
इस बार के बजट में बंदरगाहों में आधारभूत सुविधाएं उपलब्ध कराने और आयात में ‘सिंगल विंडो क्लियरेंस’ के इंतजाम किये गये हैं. क्या भारत को कहीं से भरोसा दिलाये जाने का संकेत मिला है? फिलहाल 160 में से ज्यादातर देशों, जिनमें ब्रिक्स, जी-20, जी-33 और अफ्रीकी समूह शामिल हैं, ने इस पर रजामंदी दे दी है. इस लिहाज से भारत अकेला पड़ता दिख रहा है.
टीएफए का रुकना वैश्विक व्यापार खुलने के रास्ते में बड़ा अड़ंगा साबित होगा. पिछले 12 साल से संगठन इस मुद्दे पर अंतरराष्ट्रीय समझौता करने की कोशिश कर रहा है. ऐसे वक्त में जब वैश्विक अर्थ-व्यवस्था मंदी के चक्र से बाहर आ रही है, व्यापार मार्गों को खोलना आर्थिक संवृद्धि के लिए जरूरी होगा. ऐसा माना जा रहा है कि खाद्य बाजार खुलने से वैश्विक जीडीपी में तकरीबन 10 खरब (एक ट्रिलियन) डॉलर की संवृद्धि होगी और तकरीबन दो करोड़ दस लाख नये रोजगार पैदा होंगे. इसका लाभ भारत को भी मिलेगा.
बेशक विकसित देश अपने अनाज भंडार के लिए विकसित देशों का बाजार खोलना चाहते हैं. भारत इनमें सबसे बड़ा बाजार है, पर साथ ही हम अपने खाद्य सुरक्षा कार्यक्रम की अनदेखी नहीं कर सकते.
वाणिज्य एवं उद्योग राज्य मंत्री निर्मला सीतारामन ने सिडनी में जी-20 की बैठक के दौरान डब्ल्यूटीओ के महानिदेशक रॉबटरे ऐज्वेडो, यूएसटीआर माइकल फॉरमैन और अन्य से मुलाकात की. सभी ने उन्हें भरोसा दिलाया कि टीएफए पर काम पूरा होने के बाद खाद्य सुरक्षा पर जल्द चर्चा की जायेगी.
पर अब भारत ने मुद्दे के स्थायी समाधान के लिए अपना रोडमैप दिया है. भारत ने जेनेवा में हुई सामान्य परिषद की बैठक में कहा कि लाखों लोगों की खाद्य सुरक्षा को खतरे में डालना ठीक नहीं है. डब्ल्यूटीओ में भारतीय राजदूत अंजली प्रसाद ने कहा, मेरे प्रतिनिधिमंडल का विचार है कि टीएफए को खाद्य सुरक्षा के मुद्दे पर स्थायी समाधान तक टाला जाना चाहिए. अब देखना यह है कि क्या टीएफए के क्रियान्वयन की कोई नयी समयसीमा तय की जायेगी.
भारत ने खाद्य सुरक्षा के लिए भंडारण सीमा तय करने के मुद्दे पर विशेष सत्र बुलाने और 31 दिसंबर, 2014 तक खाद्य सुरक्षा से जुड़ी चिंताओं के समाधान के लिए संस्थागत व्यवस्था बनाने की जरूरत पर जोर दिया है. इस रुख पर अमेरिका की प्रारंभिक प्रतिक्रिया हड़बड़ी से भरी है.
उसने भारत का सीधे नाम नहीं लिया है, लेकिन कहा है कि इस रुख से व्यापार सुधार के प्रयास को झटका लगेगा. ऑस्ट्रेलिया की अगुवाई वाले 25 देशों के समूह ने चेताया है कि इससे हटने का फैसला किसी के हित में नहीं होगा. इससे भविष्य की योजनाओं पर निर्णय करने की डब्ल्यूटीओ की क्षमता पर सवाल खड़ा होगा. यूरोपियन यूनियन की प्रतिक्रिया भी लगभग ऐसी ही है.
विश्व व्यापार के दोहा विकास एजेंडा (डीडीए) और ‘सिंगल अंडरटेकिंग’ के सिद्धांत को लेकर भी विकासशील देशों में मतभेद हैं. सिंगल अंडरटेकिंग का आशय है कि कोई समझौता तभी अंतिम माना जाये, जब उससे जुड़े सभी मामलों में समझौते हो जायें.
पिछले साल बाली पैकेज की घोषणा के वक्त आशंका व्यक्त की गयी थी कि विकसित देश अपने मसलों पर फैसला जल्द कराते हैं और विकासशील देशों से जुड़े मसले लटके रह जाते हैं. केवल खाद्य सुरक्षा का सवाल ही नहीं है, विकासशील देशों को अपने बंदरगाहों में जिन व्यवस्थाओं का निर्माण करना है, उन पर भारी खर्च आयेगा. इनकी जिम्मेवारी भी अमीर देशों को लेनी चाहिए. इसके अलावा सीमा शुल्क प्रणाली, उसके लिए कर्मचारियों की नियुक्ति और उनके प्रशिक्षण का काम भी खर्चीला है.
खाद्य सामग्री का बाजार खुलने से परंपरागत व्यवसायों पर विपरीत प्रभाव भी पड़ेगा, बहुत से लोगों के रोजगार मारे जायेंगे. ऐसे सवालों पर भी विचार किया जाना चाहिए. इसी तरह भारत सरकार अनाज का जो भंडार तैयार करती है, उसे अंतरराष्ट्रीय बाजार में सस्ता नहीं बेचती, अपने गरीबों को सस्ते में उपलब्ध कराती है. यह किसी व्यापार-मर्यादा के खिलाफ नहीं है.
इसके विपरीत अमेरिकी सरकार अपने किसानों को भारी सब्सिडी देती है, जो अपना अनाज गरीब देशों में बेचना चाहते हैं. यह अमेरिकी पाखंड है, उसे भी सामने लाने में कोई हर्ज नहीं.