भारत ने विश्व व्यापार संगठन की बैठक में व्यापार सरलीकरण समझौते पर हस्ताक्षर करने से मना कर दिया है. उसका आग्रह है कि खाद्यान्न सुरक्षा और अनुदानों को इस समझौते से अलग रखा जाये. इस समझौते पर सहमति की आखिरी तारीख 31 जुलाई है और यह साफ है कि भारत और कुछ अन्य विकासशील देशों की सहमति नहीं होने पर जेनेवा की यह बैठक बिना किसी निर्णय के खत्म हो जायेगी. अमेरिका, आस्ट्रेलिया और यूरोपीय संघ के सदस्यों सहित कई विकसित देश भारत के रुख से खफा हैं और भारत सरकार से अपने फैसले पर पुनर्विचार का निवेदन कर रहे हैं.
उनका तर्क है कि व्यापार सरलीकरण समझौते के अमल में आने से वैश्विक अर्थव्यवस्था में एक खरब डॉलर से अधिक की वृद्धि होगी तथा दुनिया भर में दो करोड़ से अधिक रोजगार के अवसर पैदा होंगे. लेकिन, हकीकत यह भी है कि विकसित देश इस समझौते के जरिये विकासशील देशों के बाजार में अपनी पहुंच को अधिक मजबूत करना चाहते हैं, इसलिए उन्हें इसमें हो रही देरी से परेशानी है.
भारत ने सुझाव दिया है कि खाद्यान्न सुरक्षा पर स्थायी हल के लिए फिर से बहस हो और आगामी अक्तूबर में इस बहस की समीक्षा की जाये. अगर यह समझौता अपने वर्तमान स्वरूप में मंजूर हो जाता है, तो इसका सीधा असर भारत सरकार के खाद्यान्न भंडारण और फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य की व्यवस्था पर पड़ेगा.
देश की बड़ी आबादी गरीब है, जो सस्ते अनाज के लिए सरकारी तंत्र व नियंत्रण पर निर्भर है. इसी तरह देश की 60 फीसदी जनसंख्या कृषि पर आश्रित है. उसे अनुदान की जरूरत है और इस बात की गारंटी देना सरकार का जिम्मा है कि उसके उपज की सही कीमत उसे मिल सके. ऐसे में गरीब व किसान जनता के हितों की परवाह किये बिना विश्व व्यापार संगठन के समझौते पर हस्ताक्षर करना कतई सही नहीं होगा. जाहिर है, भारत सरकार ने इस संबंध में जो रुख अपनाया है, उसकी सराहना की जानी चाहिए. भारत और समूह-33 के देशों के तर्को को सिर्फ विकसित अर्थव्यवस्थाओं द्वारा नियंत्रित बाजार के नफे-नुकसान के आधार पर देखना सही नहीं होगा. असल में यह दुनिया की बड़ी आबादी के लिए भोजन व बुनियादी जरूरतों से जुड़ा मसला है.