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शिवसैनिकों की संस्कृति ‘राड़ा’

।। अनुराग चतुर्वेदी ।। वरिष्ठ पत्रकार चर्चा में बने रहने के लिए शिवसेना नेता किसी भी हद तक जा सकते हैं. दिल्ली के महाराष्ट्र सदन में हाल ही में खराब खाने की शिकायत के लिए शिवसेना सांसदों ने एक एक रोजेदार कर्मचारी के मुंह में रोटी ठूंस कर अपनी इसी प्रकृत्ति का परिचय दिया.शिवसेना की […]

।। अनुराग चतुर्वेदी ।।

वरिष्ठ पत्रकार

चर्चा में बने रहने के लिए शिवसेना नेता किसी भी हद तक जा सकते हैं. दिल्ली के महाराष्ट्र सदन में हाल ही में खराब खाने की शिकायत के लिए शिवसेना सांसदों ने एक एक रोजेदार कर्मचारी के मुंह में रोटी ठूंस कर अपनी इसी प्रकृत्ति का परिचय दिया.शिवसेना की ऐसी हरकतें केंद्र की मोदी सरकार को आगे भी असहज स्थिति में डालती रहेंगी. शिवसेना की कारगुजारी पर पढ़ें आज की यह टिप्पणी..

मराठी के जाने-माने उपन्यासकार भाऊ पाध्ये का मराठी में एक बहुचर्चित उपन्यास है ‘राड़ा’. यह उपन्यास समाजवादियों के गढ़ गोरेगांव (मुंबई का उपनगर) में अण्णोगिरी पात्र के आसपास रचा गया है. छोटी-सी फैक्टरी चलाने वाले अण्णोगिरी का पुत्र मंदार अतिक्रांतिकारी हो जाता है और हिंसा को सही मानने लगता है.

‘राड़ा’ उपन्यास में शिवसेना की कई हिंसक तकनीकें उन्होंने कथा के माध्यम से बतायी, पर नयी दिल्ली के कॉपरनिकस मार्ग पर बने नवीन महाराष्ट्र सदन में ठाणो के सांसद 52 वर्षीय राजन विचारे ने जो कुछ किया, वह भाऊ भी नहीं सोच पाये थे.

शिवसेना का रक्तबीज ही ‘राड़ा’ है. ज्यादातर शक्तिहीन अल्पसंख्यक, छोटे-मोटे व्यापारी, बाहर से आये मेहनतकश, अन्य भाषा-भाषी पहचान प्रकट करने वाले असहाय नागरिक (लुंगी पहना, दक्षिण भारतीय या दाढ़ी रखा, पुणो का इंजीनियर) इनके अलावा अन्य साफ्ट टारगेट है. लेखक, पत्रकार, संगीतकार, क्रिकेट खिलाड़ी, दुकानों के मैनेजर (मालिक कभी नहीं).

‘राड़ा’ के अलावा दूसरा मूल तत्व है ‘खिड़नी’ (जबरन पैसा वसूली) शिव सेना के नेता बिल्डरों, छोटे उद्योगपतियों, दुकानदारों और विवादों में फंस जानेवाले नागरिकों को इसकी चपेट में ले लेते हैं. राड़ा, खड़नी शिवसेना के पर्याय है. मुंबई में कांग्रेस के लंबे शासन काल में शिवसेना के नेताओं को यह विश्वास हो गया है कि हमारे द्वारा फैलायी गयी हिंसा कानून-व्यवस्था, भारतीय कानून से ऊपर है.

यदि स्कूल में कोई हेड मास्टर प्रवेश देने में अपनी असमर्थता दिखा रहा है तो उसको पीटो, उसका मुंह काला करो, कोई रिक्शा वाला रुक नहीं रहा है, तो उसे आगे भाग कर कान के नीचे झापड़ रसीद करो. इस काम में न केवल शिवसैनिक बल्कि महिला शिवसैनिक भी आगे रहती हैं. शिवसैनिकों ने मराठी सांध्य दैनिक ‘महानगर’ पर जो हिंसक हमला किया हो, विपक्षी दल के नेता के रूप स्थापित पूर्व शिवसैनिक छगन भुजबल के घर पर खतरनाक हमला हो और राजन विचारे के राजनीतिक गुरु आनंद दिघे ने शिवसैनिक खोपकर के ‘लोक प्रभा’ में साक्षात्कार देकर (तब लोकप्रभा के संपादक संजय राऊत थे) कहा था ‘गद्दार ना देहांत शासन’ (गद्दारों को मृत्यु).

प्रसिद्ध उपन्यासकार बीएस नायपाल ने शिवसैनिक विठ्ठल चव्हाण के ऊपर एक शानदार आलेख लिखा है. मुंबई के एक समय कपड़ा मिलों के हृदय प्रदेश गिरण गांव में विठ्ठल चव्हाण शिव सेना के विधायक बन गये और एक गैंगस्टर गुरु साटभ ने उनकी हत्या करवा दी, निखिल वागले को ‘केलिडोस्कोप’ लिखने के कारण महाराष्ट्र विधानसभा ने विशेषाधिकार का मामला मानते हुए एक दिन का सजा भी दी थी.

स्वतंत्रता के बाद महात्मा गांधी की राजनीतिक हत्या हुई थी, दूसरी हत्या मुंबई में साम्यवादी विधायक कृष्णा देसाई की हुई, जिसके बाद मुंबई में साम्यवादियों की यूनियनों की जगह शिवसेना की यूनियनें आने लगीं. राड़ा खड़नी और गंभीर अपराध के बाद ज्यादातर शिवसैनिकों और उनके नेताओं से संसदीय अनुकरणीय आचरण की अपेक्षा रखना सही नहीं होगा.

उपवास को महात्मा गांधी आत्मशुद्धि का जरिया मानते थे. वे न केवल अपनी बात मनवाने के लिए उपवास करते थे, बल्कि अपने कलुष को धोने के लिए उपवास रखते थे. ईरोम शर्मिला मणिपुर में सेना द्वारा किये जा रहे अन्याय के खिलाफ उपवास रखती है, तो कई लोग सरकार द्वारा उन्हें नली के द्वारा जबरदस्ती खिलाने के खिलाफ रहते हैं. महाराष्ट्र सदन के अरशद जुबैर भी रमजान के पवित्र महीने में श्रद्धा से यदि अपना रोजा रख रहे थे, तो उनके साथ यह जबरदस्ती की गयी.

शिवसैनिकों ने हमेशा असंगठित, कमजोर, या फिर बुद्धिजीवियों के सृजनात्मक कार्यो के प्रकाशन, प्रदर्शन को राड़ा (उपद्रव या उदंडता) करके रोका है. सभा में आगे की पंक्ति में बैठ कर कुरसियां फेंकना, मुख्य वक्ता को बोलने से रोकना, न रुकने पर उसे हवा में फेंक जमीन पर गिरा देना, मुंह को काला करना, मुंह में हाथ ठूंस देना, औरतें चूड़ियां पहनाना, तमाचे मारना, अपशब्दों का प्रयोग करने में प्रशिक्षित होती हैं. ये कार्यकर्ता भीड़ का रूप लेने में माहिर होते हैं.

महाराष्ट्र के कोंकण क्षेत्र के रत्नागिरी इलाके कोंकणी मराठे राजन विचारे अपने इलाके (ठाणो) के महदातर को तीर्थ यात्राएं कराने के लिए जाने जाते हैं. शिव सेना भाजपा चुनाव प्रचार के पूर्व शिरडी और पुणो के अष्ट विनायक की यात्राएं कराने में आगे रहते हैं. ज्यादातर तीर्थयात्रओं का खर्चा राजनीतिक दल या उनके समर्थक ही उठाते हैं.

शिव सेना को यदि उत्तरी भारतीय पाठकों को समझना हो तो इसे संघ परिवार के उग्र बजरंग दल के रूप में जाना जा सकता है. शिव सेना की इतनी सारे छोटे-बड़े राड़े करने की हिम्मत कांग्रेस पार्टी के कारण ही बढ़ी है. महाराष्ट्र सदन की घटना भी एक सप्ताह बाद ‘इंडियन एक्सप्रेस’ में प्रकाशित होने के बाद समाज में जानी गयी. परंतु, महाराष्ट्र की कांग्रेस सरकार को इस घटना की जानकारी पूर्व में थी. मगर उसने इन असंसदीय और आपराधिक व्यवहार करने वाले सांसदों पर कोई कार्रवाई नहीं की.

शिवसेना ने पूर्व मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण के कार्यकाल में घोषित किया था कि वे कांग्रेस के नेता राहुल गांधी को मुंबई और महाराष्ट्र के किसी भी इलाके में आने न देंगे. तब अशोक चव्हाण ने तगड़ी पुलिस कार्रवाई और शासन का बल दिखा इस विरोध को दबा दिया था. परंतु, महाराष्ट्र के वर्तमान मुख्यमंत्री की भूमिका संदिग्ध नजर आती है. शिवसेना के इस अविवेकी राड़ा प्रवृत्ति का खामियाजा भारतीय जनता पार्टी को उठाना पड़ रहा है. शिव सेना क्या यह सोच रही है कि वह दिल्ली में भी राड़ा करके आगामी विधानसभा चुनावों में भाजपा के मुकाबले ज्यादा सीटों की मांग पर अड़ी रह सकती है? इस झगड़े की जड़ में हैं मुंबई के पूर्व आयुक्त सतपाल सिंह, जिन्होंने चौधरी अजित सिंह को हरा कर भाजपा की सांसदी हासिल की है.

भाजपा के सतपाल को चार कमरे और हमें रबड़ की रोटी. भारतीय जनता पार्टी के स्थानीय नेता अरशद जुबैर के रोजेदार मुसलिम होने पर असहज तो हैं, पर वे इस कष्ट से ही कांप रहे है कि यदि अरशद की जगह कोई शुक्ला, शर्मा या चौबे के साथ शिवसैनिकों ने यह आचरण किया होता तो यह मुद्दा मराठी बनाम हिंदी भाषी हो जाता. शिवसेना को इस बार अपनी एक पुरानी आदत भी धोखा दे गयी. राड़ा करने के पहले शिवसैनिक, महाराष्ट्र नव निर्माण सेना मीडिया को भी सूचित करते हैं. भय की कार्रवाई दर्शकों में दहशत पैदा करेगी और भयादोहन राजनीतिक ताकत देगा. विजय तेंडुलकर के ‘घासीराम कोतवाल’ नाटक या ‘सखाराम बाइंडर’ का प्रदर्शन हो, शिवसैनिक मीडिया को साथ लाकर उपद्रव करते रहे हैं.

महाराष्ट्र सदन में भी मराठी चैनल को बुलाया गया. यूं बुलाया दूसरों को भी था, पर वे आये नहीं. शिव सेना को मीडिया को बुलाना इस बार महंगा पड़ा और ‘मी मराठी’ चैनल राष्ट्रीय स्तर पर न केवल प्रसिद्धि पाया बल्कि अमीर भी हुआ. शिव सेना को अब अपने तरीके बदलने होंगे पर क्या व्यक्ति या राजनीतिक दल का डीएनए बदलता है? शिवसैनिकों की अगली हरकत ही इसका जवाब होगी.

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