नक्सली संगठनों में स्कूली बच्चों के शामिल होने की घटनाएं तेजी से बढ़ी हैं. झारखंड के आला अधिकारियों ने इसकी पुष्टि भी की है. इन बच्चों को हथियार चलाने से लेकर सामान ढोने और संदेश वाहक की भूमिका तक निभाने की ट्रेनिंग दी जा रही है. खूंटी और अन्य जिलों में नक्सलियों द्वारा बच्चों के लिए स्कूल संचालित किये जाने की भी खबरें भी हैं.
कुल मिलाकर नक्सलियों ने अपना सॉफ्ट टारगेट नवयुवकों को की जगह बच्चों को बनाना शुरू कर दिया है. बच्चों को बहकाना आसान है, मामूली प्रलोभन से भी उन्हें गलत राह की ओर मोड़ा जा सकता है. नक्सल प्रभावित इलाकों में सरकारी शिक्षकों के नहीं जाने, ज्यादातर स्कूलों में पढ़ाई नहीं होने के कारण इसका खतरा ज्यादा है कि नक्सली फायदा उठा कर उन्हें पढ़ाई के नाम पर नक्सलवाद का पाठ पढ़ाने लगें. इसका एक और बड़ा कारण गांवों से काम के लिए पुरुषों का पलायन है. कई गांवों में ऐसी स्थिति है कि घर पर या तो महिलाएं बची हैं, या फिर बच्चे.
ऐसे में बच्चों की सही परवरिश व उन्हें मार्गदर्शन या उनकी निगरानी करनेवाला कोई नहीं बचा, इसी का फायदा नक्सली उठा रहे हैं. वे आसानी से बच्चों को बरगला कर, उन्हें हथियारों की चमक-दमक दिखला कर, पैसे सहित अन्य छोटे-मोटे प्रलोभन देकर दस्ते में शामिल कर लेते हैं. यह खतरनाक स्थिति है. आनेवाले समय के लिए यह संकेत खतरनाक हैं. भावी पीढ़ी यदि इसकी चपेट में होगी तो इस पर नियंत्रण तो दूर इसके बेकाबू होने की आशंका दिन-ब-दिन बढ़ती जायेगी. नक्सलियों की इस नयी रणनीति का काट खोजा जाना बेहद जरूरी है.
स्कूलों में केवल मिड डे मिल बांट देने से समस्या का समाधान होना संभव नहीं है. इसके लिए दूरदराज इलाकों तक सरकारी स्कूली शिक्षा को पुख्ता बनाना होगा. बच्चों को स्कूलों तक पहुंचाने और उन्हें जोड़े रखने के लिए कई अन्य उपाय करने होंगे. सरकार के स्तर पर भी यह प्रयास जरूरी है कि अभिभावकों में यह भरोसा पैदा हो, कि यदि कहीं नक्सली संगठनों द्वारा ऐसे प्रयास किये जा रहे हों तो उसका वे विरोध कर सकें, सुरक्षा बलों या पुलिस को इसकी सूचना पहुंचा सकें. यह भी सही है कि ग्रामीण इलाकों के संपूर्ण विकास के बिना एक पहलू पर केवल गौर कर नक्सलवाद जैसी समस्या से निपटना असंभव होगा.