यूपीएससी ने सिविल सेवा की परीक्षा स्थगित कर दी है. दो साल पहले तक इसमें हिंदी माध्यम के छात्र अच्छी संख्या में सफल होते थे, लेकिन ‘सीसैट’ के शुरू होने से उनकी संख्या एकदम से घट गयी है. सवाल है कि इस ओहदे के लिए अंगरेजी भाषा का बहुत ज्यादा ज्ञान होना अचानक से इतना महत्वपूर्ण कैसे हो गया? इसके जवाब में हिंदी समर्थक और विरोधी कई सारे तर्क गढ़ सकते हैं, लेकिन यह बहस खत्म नहीं होती. आखिर भारत जैसे विविधताओं से भरे देश की शासन व्यवस्था किनके हाथों मे दी जाये.
पहली बात तो यह कि हिंदी माध्यम के छात्र निम्न वर्ग या निम्न-मध्यम वर्ग से आते हैं. वे अगर इस पद पर आते हैं तो यह उनकी प्रतिभा का ही कमाल है कि अपेक्षाकृत कम संसाधनों में उन्होंने सफलता पायी है. लेकिन उससे भी महत्वपूर्ण यह है कि जिन छात्रों ने प्रेमचंद, फणीश्वरणाथ रेणु, हरिशंकर परसाई आदि के बदले शेक्सपीयर, अगाथा क्रिस्टी या लियो टॉल्स्टॉय को पढ़ा हो, वो गांवों के देश भारत को कितना समझते होंगे? उनके लिए तो यह आश्चर्य करने वाला तथ्य होगा कि आज भी देश में बहुत बड़ी आबादी कफन के बुधिया, पूस की रात के हल्कू या आदिम रात्रि की महक के करमा की तरह जीवनयापन कर रही है.
अंगरेजी अखबार पढ़नेवाले कभी ये नहीं जान पाते कि उनके बगल की बस्ती में पानी के लिए हाहाकार मचा है. लोग शासन पर निर्मम होने का आक्षेप लगाते हैं, लेकिन सच यह है कि वह संवेदनहीन है क्योंकि सत्ता में ऐसे लोगों की भागीदारी बढ़ती ही जा रही है. इस पत्र के माध्यम से मैं आग्रह करना चाहता हूं कि सीसैट के प्रारूप पर सरकार पुनर्विचार करे, ताकि भारत को समझने वाले ही प्रशासनिक अधिकारी बनें, भले ही वह किसी माध्यम से पढ़ा हो.
राजन सिंह, जमशेदपुर