रांची जेल में बंद दो निदरेष युवक अजीत और अमरजीत की रिहाईनहीं हो पा रही है. वह जिस प्रीति की हत्या के आरोप में जेल में है, वह जीवित है. व्यवस्था की खामी कहें या फिर जांच एजेंसियों के काम का तरीका, पुलिस की जांच पहले ही बेपर्द हो चुकी है. चाजर्शीट में जिन युवकों को फरजी सबूतों के आधार पर फंसाया गया, उसका अब वजूद नहीं है. बहरहाल युवकों के भविष्य और उनके परिवारों की जिंदगी तंग-तबाह जरूर हो गयी. युवकों के भविष्य के साथ खिलवाड़ करनेवाले कौन हैं? उनको क्या सजा मिलेगी, यह तो भविष्य के गर्त में है.
पर मौजूं सवाल है कि कानूनी उलझनों में फंसे दोनों युवक जेल से कब निकलेंगे? पहले नियति ने फंसाया. अब रिहाई तत्काल शब्द पर अटक गयी. सीआइडी की रिपोर्ट में दोनों युवकों को तत्काल निदरेष बताया गया हैं. अदालत ने पूछा..तत्काल शब्द का क्या अर्थ. वह कानून शब्द की विवेचना चाह रही है. यह कहानी रूपहले पर्दे के किसी सस्पेंस फिल्म से कम नहीं है. इस वर्ष 14 जून को प्रीति सामने आयी. बुंडू में एक महिला की लाश मिली. चौकीदार के बयान पर केस हुआ. लाश की झटपट शिनाख्त प्रीति के रूप में कर दी गयी. उसके मित्र रहे अमरजीत, अजीत और अभिमन्यु को पुलिस ने उठा लिया.
जुर्म कबूलाया और चार्ज शीट कर दी. प्रीति के सामने आने के बाद पुलिस ने अदालत में इन लड़कों के बेगुनाह होने की रिपोर्ट दाखिल की. पुलिस जांच में आयी गड़बड़ी के बाद सरकार ने मामले की जांच सीआइडी को सौंपी. इसका उद्देश्य बेगुनाह लड़कों को इंसाफ दिलाना था. जिस प्रीति की हत्या के जुर्म में युवक जेल में बंद हैं, वह जिंदा है. फिर सीआइडी ने अपनी रिपोर्ट में तत्काल शब्द जोड़ कर इन युवकों को संदेह के दायरे में रखा है.
अगर ये समाज के रसूखदार घर के बच्चे होते, पैरवी-पहुंच होती, तो क्या इनके साथ भी जांच एजेंसियां ऐसा ही सलूक करतीं? पूरे मामले में कौन लोग हैं, जो अपनी जवाबदेही पूरी नहीं कर रहे? इन निदरेष युवकों की सोचें. जेल में इनका एक -एक दिन कैसे गुजर रहा होगा? परिवार कैसी मानसिक वेदना में होगा? पर जांच एजेंसियों को इसकी परवाह नहीं? उन्हें अपनी जवाबदेही निभानी ही होगी. वैसे कानून भी कहता है..किसी भी निदरेष को एक दिन भी जेल में नहीं रखा जा सकता. पर ये तो महीनों से बंद हैं.