असाध्य बीमारी से ग्रस्त व असह्य शारीरिक पीड़ा से त्रस्त व्यक्ति को इच्छा-मृत्यु देने का प्रश्न जटिल है, क्योंकि यह जीवन के अधिकार की पुनव्र्याख्या की मांग करते हुए कई और प्रश्न भी पैदा करता है. एक यह कि किसी व्यक्ति के जीवन के अधिकार के तहत क्या किन्हीं असह्य स्थितियों में उसे समाप्त करने का अधिकार भी शामिल है?
दूसरा, अगर ऐसा है, तो फिर तब क्या होगा, जब पीड़ित स्वयं अपनी इच्छा बताने की स्थिति में न हो और उसकी जगह अन्य (जैसे परिजन) उसके लिए इच्छा-मृत्यु की मांग करे? क्या ऐसी स्थिति में परिजन की मांग को उस व्यक्ति की मांग के रूप में स्वीकार किया जा सकता है? जाहिर है, इन प्रश्नों के उत्तर सरल नहीं हैं और न ही न्यायपालिका या संसद निर्णायक तौर पर इसके बारे में कोई फैसला ले सकती है, खासकर उस स्थिति में जब पूरे विश्व में इच्छा-मृत्यु से जुड़े प्रश्नों पर विचार चल रहा हो और कोई निश्चित उत्तर अब तक सामने नहीं आया हो.
सर्वोच्च न्यायालय ने स्थिति की इस जटिलता को ध्यान में रख कर ही कहा है कि इच्छा-मृत्यु का मामला सिर्फ संविधान का नहीं, बल्कि नैतिकता, धर्म और काफी हद तक चिकित्सा-विज्ञान से भी जुड़ा मामला है, इसलिए इस मुद्दे पर राज्यों का पक्ष भी सुना जाना चाहिए. राज्यों की राय चाहे जो हो, पर केंद्र का रुख साफ है. केंद्र सरकार इच्छा-मृत्यु को कानूनी मान्यता देने के पक्ष में नहीं है और उसका स्पष्ट कहना है कि इच्छा-मृत्यु दरअसल आत्महत्या सरीखा है और कानूनन आत्महत्या एक अपराध है.
किसी स्पष्ट निष्कर्ष पर पहुंचने से पहले हमें कुछ बातों पर गंभीरतापूर्वक सोचना होगा. एक तो यह कि चिकित्सक व परिजन गंभीर बीमारी सी पीड़ित व्यक्ति के संदर्भ में कई दफा इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि उसे बचा पाना असंभव है और जीवन-रक्षक उपकरणों के सहारे उसे जीवित रखना बीमार की स्थिति को और भी कष्टकर बनाना है. दूसरी बात, ऐसे उदाहरण भी हैं, जब परिजन ही धन हड़पने के लिए फर्जी मृत्यु प्रमाणपत्र बना लेते हैं. ऐसे में इच्छा-मृत्यु की वैधता के दुरुपयोग की आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता. इच्छा-मृत्यु को कानूनी मान्यता प्रदान करते समय इन दो विपरीत स्थितियों के निवारण को ध्यान में रखा जाना अत्यंत जरूरी है.