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न्यायिक नियुक्तियों पर उठते सवाल

सुधांशु रंजन वरिष्ठ पत्रकार अमेरिका में राष्ट्रपति जज के लिए उम्मीदवार नामजद करता है. इसके बाद सीनेट जुडिशियरी कमिटी उससे जिरह करती है. इसका सीधा प्रसारण टीवी पर होता है. इसलिए लोगों को पता होता है कि उसकी सोच, विचारधारा एवं पृष्ठभूमि क्या है. लेकिन अपने यहां कॉलेजियम की कार्यप्रणाली का किसी को कुछ भी […]

सुधांशु रंजन

वरिष्ठ पत्रकार

अमेरिका में राष्ट्रपति जज के लिए उम्मीदवार नामजद करता है. इसके बाद सीनेट जुडिशियरी कमिटी उससे जिरह करती है. इसका सीधा प्रसारण टीवी पर होता है. इसलिए लोगों को पता होता है कि उसकी सोच, विचारधारा एवं पृष्ठभूमि क्या है. लेकिन अपने यहां कॉलेजियम की कार्यप्रणाली का किसी को कुछ भी पता नहीं.

पूर्व सॉलिसिटर जनरल गोपाल सुब्रमण्यम को उच्चतम न्यायालय का न्यायाधीश बनाने की इसी अदालत के कॉलेजियम की सिफारिश को पिछले दिनों केंद्र सरकार द्वारा स्वीकार नहीं किये जाने से न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच एक टकराव की स्थिति पैदा हो गयी थी. इसके तुरंत बाद केंद्र सरकार ने उच्चतम न्यायालय के कॉलेजियम की दूसरी सिफारिश को भी पुनर्विचार के लिए उसे वापस भेज दिया है.

इस बार असहमति कर्नाटक हाइकोर्ट के न्यायाधीश न्यायमूर्ति केएल मंजूनाथ को पंजाब एवं हरियाणा हाइकोर्ट का मुख्य न्यायाधीश बनाने की अनुशंसा को लेकर है. उच्चतम न्यायालय के ही एक वरिष्ठ जज ने न्यायमूर्ति मंजूनाथ के खिलाफ सख्त टिप्पणी की थी, जिसे नजरअंदाज करते हुए कॉलेजियम ने उनके नाम की सिफारिश की. अब देखना यह है कि कॉलेजियम उनके नाम को वापस लेता है या दोबारा वही अनुशंसा करता है.

गोपाल सुब्रमण्यम मामले में भारत के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति आरएम लोढ़ा ने सरकार के निर्णय की आलोचना की कि उनसे कोई परामर्श किये बगैर सरकार ने एकतरफा निर्णय किया. उन्होंने यह भी कहा कि न्यायपालिका की स्वतंत्रता के साथ कोई समझौता संभव नहीं हैं. कॉलेजियम ने तब चार नामों की अनुशंसा की, जिनमें दो अधिवक्ता थे और दो अलग-अलग उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीश. सरकार ने इनमें से तीन नामों को स्वीकार किया.

इन तीनों की नियुक्ति उच्चतम न्यायालय में हो चुकी है. कॉलेजियम ने इसके बाद उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए जो दूसरी सिफारिश की, उसमें फिर एक अधिवक्ता यूयू ललित का नाम है. ऐसा पहली बार हुआ है कि छोटे अंतराल में दो वकीलों को सीधा उच्चतम न्यायालय का जज बनाया जा रहा है. इससे उच्च न्यायालयों के जजों में असंतोष है, क्योंकि इससे उनके सर्वोच्च न्यायालय तक पहुंचने की संभावना क्षीण होगी.

इस विवाद से न्यायाधीशों की नियुक्ति का मुद्दा एक बार फिर बहस के केंद्र में आ गया है. इस मुद्दे पर हाल के वर्षो में लगातार विवाद होता रहा है और हमेशा सवाल कॉलेजियम की कार्यप्रणाली को लेकर उठाये गये. सरकार ने अतीत में भी कई नामों पर आपत्तियां कीं, किंतु इतना बड़ा विवाद नहीं हुआ. मुख्य न्यायाधीश ने गोपाल सुब्रमण्यम की भी आलोचना की कि उन्होंने उस पत्र को सार्वजनिक कर दिया, जो उन्हें संबोधित था, जबकि उस वक्त वह (न्यायमूर्ति लोढ़ा) विदेश में थे.

गोपाल सुब्रमण्यम ने जज बनने के लिए जो सहमति दी थी उसे भी वापस ले लिया. मुख्य न्यायाधीश ने उन्हें अपने निर्णय पर पुनर्विचार करने को कहा, लेकिन उन्होंने ऐसा करने से मना कर दिया. यदि उन्होंने ऐसा किया होता और उच्चतम न्यायालय का कॉलेजियम यदि उनके नाम की अनुशंसा दोबारा कर देता, तो वर्तमान कानून के तहत सरकार के पास उसे मानने के अलावा कोई विकल्प नहीं था. इसलिए अपनी सहमति वापस लेकर गोपाल सुब्रमण्यम ने सरकार और न्यायपालिका के बीच टकराव टाल दिया और अब यह अकादमिक बहस का विषय रह गया.

संविधान न्यायाधीशों की नियुक्ति का अधिकार कार्यपालिका को देता हैं. परंतु 1993 में सेकंड जजेज केस में उच्चतम न्यायालय की नौ न्यायधीशों की एक संविधान पीठ ने न्यायिक निर्णय के जरिये नियुक्ति का अधिकार अपने हाथ में ले लिया. अदालत ने व्यवस्था दी कि भारत के मुख्य न्यायाधीश एवं दो वरिष्ठतम न्यायाधीशों का कॉलेजियम जजों की नियुक्ति के लिए नामों की अनुशंसा करेगा, जो सरकार पर बाध्य होगी. यदि सरकार को किसी नाम पर कोई आपत्ति है, तो वह केवल अपनी टिप्पणी के साथ मुख्य न्यायाधीश के पास उसे पुनर्विचार के लिए भेज सकती है. लेकिन यदि कॉलेजियम दोबारा उसी नाम की संस्तुति करता है, तो सरकार के पास उसे मानने के अलावा कोई विकल्प नहीं है.

कार्यपालिका की तो भूमिका ऐसे अहम मामलों में होनी ही चाहिए. जहां तक आइबी और सीबीआइ के आरोपों का सवाल है, तो सरकार को जांच करने का पूरा अधिकार है. इन दोनों एजेंसियों का आरोप है कि 2जी घोटाला मामले में सुब्रमण्यम की भूमिका निष्पक्ष नहीं थी तथा नीरा राडिया से उनके संपर्क हैं. इस समस्या का मूल कारण यह है कि नियुक्ति की प्रक्रिया में कहीं कोई पारदर्शिता नहीं है. यदि सब कुछ पारदर्शी तरीके से होता, तो सुब्रमण्यम को भी अपनी बात कहने का पूरा मौका मिलता कि आइबी और सीबीआइ के द्वारा लगाये गये आरोप क्यों गलत या पूर्वाग्रह से ग्रसित हैं. इसमें सरकार का पक्ष भी जनता के सामने होता.

अमेरिका में राष्ट्रपति जज के लिए उम्मीदवार नामजद करता है. इसके बाद सीनेट जुडिशियरी कमिटी उससे जिरह करती है. इसका सीधा प्रसारण टीवी पर होता है. इसलिए लोगों को पता होता है कि उसकी सोच, विचारधारा एवं पृष्ठभूमि क्या है. 2006 में राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश के मुख्य न्यायाधीश के प्रत्याशी जॉन रॉबर्ट्स के साथ चार दिनों तक सघन पूछताछ होती रही, जिसे टीवी पर पूरे देश ने देखा. दक्षिण अफ्रीका में नियुक्ति के लिए एक आयोग है, जो जज का कोई पद रिक्त होने पर उसका विज्ञापन निकलता है और हर क्षेत्र से नामांकन लेने की कोशिश होती है. बाद में उन सबों की राय ली जाती है, जिनकी दिलचस्पी है.

अपने यहां कॉलेजियम की कार्यप्रणाली का किसी को कुछ भी पता नहीं. गत जनवरी में मद्रास हाइकोर्ट के कॉलेजियम ने 12 नामों की अनुशंसा की. इस पर जातिवाद का गंभीर आरोप लगा और इतना हंगामा हुआ कि सुप्रीम कोर्ट के कॉलेजियम ने पूरी सूची रद्द कर दी. जुलाई, 2013 में गुजरात हाइकोर्ट के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश भास्कर भट्टाचार्य ने भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश पर आरोप लगाया कि उन्हें सुप्रीम कोर्ट आने से इसलिए रोका गया, क्योंकि कलकत्ता हाइकोर्ट में उन्होंने न्यायमूर्ति कबीर की बहन को जज बनाये जाने का विरोध किया था. जाहिर है, न्यायिक नियुक्ति की प्रक्रिया को पूरी तरह पारदर्शी एवं न्यायसंगत बनाने की जरूरत है. न्यायमूर्ति लोढ़ा ने जजों की गुणवत्ता में सुधार के लिए गंभीर प्रयास किये हैं. इसलिए उन्होंने अधिवक्ताओं को सीधा उच्चतम न्यायालय का न्यायाधीश बनाने की अनुशंसा की है. इससे अच्छे जजों के चुनाव की गुंजाइश बढ़ जाती है.

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