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समर्थ है, पर कोई विशेष बजट नहीं

।। मोहन गुरुस्वामी ।। अर्थशास्त्री यह मोदी सरकार के वादों का बजट नहीं है. चुनाव प्रचार के दौरान नरेंद्र मोदी हम लोगों को कह रहे थे कि अच्छे दिन आनेवाले हैं. लेकिन, अच्छे दिन तो बहुत दूर की बात हैं, ऐसा लगता है कि फिर वही रातें हैं और फिर वही दिन हैं. इस भाषण […]

।। मोहन गुरुस्वामी ।।

अर्थशास्त्री

यह मोदी सरकार के वादों का बजट नहीं है. चुनाव प्रचार के दौरान नरेंद्र मोदी हम लोगों को कह रहे थे कि अच्छे दिन आनेवाले हैं. लेकिन, अच्छे दिन तो बहुत दूर की बात हैं, ऐसा लगता है कि फिर वही रातें हैं और फिर वही दिन हैं.

इस भाषण को साधारण बजट भाषण नहीं होना था. यह बजट सत्ता-परिवर्तन के बाद आया है, जब मतदाताओं ने देश की दिशा, नेतृत्व के तौर-तरीके और अभूतपूर्व आर्थिक विकास के बावजूद जनता के एक बड़े हिस्से की बदहाली को लेकर अपनी नाराजगी जाहिर की थी. ‘अच्छे दिन आनेवाले हैं’ का वादा तुरंत हमारी बेहतरी भर का नहीं था, एक नयी दृष्टि का वादा भी था. लोगों ने, खासकर युवाओं और उनमें भी पहली बार मतदान करनेवालों ने इस वादे को बड़े उत्साह से अपनाया और कांग्रेस को बाहर का रास्ता दिखाते हुए राहुल गांधी सरकार की संभावना को खारिज कर दिया था.

देश में हर वर्ष एक करोड़ बीस लाख नौकरियां पैदा करने की जरूरत है, जो हम लंबे समय से नहीं कर पा रहे हैं. यूपीए शासनकाल का विकास तकरीबन रोजगारविहीन विकास था. क्षेत्रीय व आय विषमता बढ़ रही थी. कुल घरेलू उत्पादन में महज 18 फीसदी योगदान करनेवाले कृषि क्षेत्र पर 60 फीसदी लोगों की निर्भरता यह बताती है कि आबादी के बड़े हिस्से को कम-से-कम मिल पा रहा है. मोदी का वादा था कि सबकी हिस्सेदारी का ख्याल रखा जायेगा.

भाजपा के चुनावी घोषणापत्र में भी पार्टी की दृष्टि की स्पष्ट अभिव्यक्ति हुई थी कि विकास का आधार बुनियादी ढांचे का विस्तार होगा. सौ नये शहर, उच्च गति का रेल नेटवर्क, नदियों को जोड़ना, हर घर में बिजली की निर्बाध आपूर्ति, 2020 तक हर परिवार को घर आदि इसके कुछ उत्साहवर्धक वादे थे. पार्टी ने एक नये समृद्ध, समानतापूर्ण और आधुनिक भारत की अपेक्षाएं जगायी.

पर, इस दृष्टि पर आधारित नये कार्यक्रम की जगह हमें एक साधारण बजट दिया गया है. सामान्य बजट के रूप में यह एक समर्थ व अच्छा बजट है. इसमें बहुत वादे नहीं हैं और न ही कोई बहुत प्रभावी घोषणाएं हैं. दूसरी ओर, इसमें हमारा मुंह मीठा करने के लिए कुछ टुकड़े हैं, जो कुछ देर के लिए भूख को शांत कर सकते हैं. आवास ¬ण की ब्याज दर में कटौती हुई है और निवेश को बढ़ाया गया है. एक करदाता वर्ष में सात-आठ हजार की बचत कर सकता है. सामान्य करदाताओं और वरिष्ठ नागरिकों के लिए सीमा पचास हजार बढ़ा दी गयी है. यह अच्छी खबर है. अनुदानों में अपेक्षित समुचित कटौती नहीं की गयी है. परिवारों को इस बात से सुकून मिलेगा कि रसोई गैस पर 450 रुपये प्रति सिलेंडर का अनुदान जारी रहेगा. हमारे पाठक व यह लेखक इनसे लाभान्वित होंगे और हमें इस पर खुश होना चाहिए.

कृषि से जुड़ी कुछ घोषणाएं भी सराहनीय हैं. नाबार्ड से अब वे पांच लाख भूमिहीन किसान ¬ण ले सकेंगे, जो गिरवी रखने लायक जमीन नहीं होने से इस लाभ से अब तक वंचित थे. कृषि ¬ण के कोष को आठ लाख करोड़ करने और समय पर कर्ज चुकता करनेवाले किसानों को पहले से तय सात फीसदी छूट के अलावा चार फीसदी की अतिरिक्त छूट की घोषणा स्वागतयोग्य है और इससे ¬ण वसूली को प्रोत्साहन मिलेगा. बजट में शीत भंडारण व अनाज गोदाम बनाने के लिए पांच हजार करोड़ के कोष की भी व्यवस्था की गयी है.

इसमें कुछ अन्य अच्छी घोषणाएं भी हैं. नयी विद्युत परियोजनाओं को दस वर्ष तक करों से राहत मिलेगी. पहले से चल रहीं परियोजनाओं और निवेश पर करों का बोझ नहीं बढ़ाया जायेगा. इससे वित्तीय निवेश संस्थाओं को खुशी होगी. बुनियादी ढांचे, आवास, बीमा व रक्षा क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की सीमा बढ़ी है. ऑटोमैटिक रूट में अधिक निवेश आयेगा. ग्रामीण रोजगार योजना को विशेष परियोजनाओं और उद्देश्यों से जोड़ा जायेगा. 52,000 करोड़ सड़कों व राजपथों में निवेश किया जायेगा जिसमें 14,389 करोड़ ग्रामीण सड़कों के लिए निर्दिष्ट हैं. 10,000 करोड़ का एक विशेष वेंचर पूंजी कोष भी होगा. ये सब स्वागतयोग्य हैं.

इन सभी और पहले से चल रहे खर्चो के लिए सरकार को राजस्व में 19.2 फीसदी की वृद्धि की उम्मीद है, जबकि कुल घरेलू उत्पादन में 5.4 से 5.9 फीसदी की बढ़त का अनुमान है. इसका क्या संकेत है? क्या इससे मुद्रास्फीति बढ़ेगी? या फिर इससे करों की वसूली की स्थिति बेहतर होगी? वित्त मंत्री की घोषणा में निपटारा आयोग का गठन एक संकेत है, जिससे मुकदमों व विवादों में फंसे 8.1 लाख करोड़ रुपये की कर राशि के एक बड़े हिस्से की वसूली हो सकती है. लेकिन बजट में नॉन-परफॉर्मिग एसेट के रूप में फंसे राष्ट्रीय बैंकों के 4.64 लाख करोड़ रुपये क कोई उल्लेख नहीं है. ऐसे में सरकार को बस शुभकामनाएं ही दी जा सकती हैं.

यह बजट दो संभावित संकटों के साये में पेश किया गया है. वर्षा से सिंचित क्षेत्र, जो फसल-उत्पादन का 60 फीसदी क्षेत्र है, कम बारिश या सूखे से जूझ रहा है. इस संकट का उपाय करना जरूरी है. लेकिन वित्तमंत्री को अभी भी समुचित वर्षा की आशा है. इराक में चल रहा युद्ध तेल की कीमतों को बढ़ा सकता है. तेल व्यापार में हमारा घाटा लगभग 110 अरब डॉलर है. अगर मूल्यों में तेजी आती है, तो बढ़ती घरेलू मांग इस घाटे को और बढ़ायेगी. शायद वित्तमंत्री की उम्मीद कूटनीति और अरब में समझदारी पर टिकी हुई है.

इस बजट की सबसे बड़ी समस्या यह है कि यह पी चिदंबरम का भी बजट हो सकता था. बस उनका भाषण अपेक्षाकृत छोटा होता और उनकी अभिव्यक्ति बेहतर होती. दिलचस्प है कि चिदंबरम के अंतरिम बजट में कुल राजस्व का अनुमान 17.63 लाख करोड़ था और जेटली के बजट में यह 17.94 लाख करोड़ है. ऐसा लगता है कि अतिरिक्त 31,000 करोड़ मात्र के लिए अरुण जेटली दो घंटे दस मिनट तक भाषण देते रहे. किसी दूर टेलीविजन स्टूडियो में बैठे मेरे जैसे व्यक्ति को छोड़ भी दें, तो उनके मंत्रीमंडलीय सहयोगियों के लिए यह बहुत भारी लग रहा होगा. मंत्री अशोक गजपति राजू जम्हाई लेते हुए दिख रहे थे और पीयूष गोयल झपकी ले रहे थे.

मुङो कोई संदेह नहीं है कि जेटली में इस बजट को निभा पाने की क्षमता है. यह बहुत साधारण बजट है और पहले के बजटों की तरह ही है. लेकिन यह मोदी सरकार के वादों का बजट नहीं है. चुनाव प्रचार के दौरान नरेंद्र मोदी हम लोगों को कह रहे थे कि अच्छे दिन आनेवाले हैं. लेकिन, अच्छे दिन तो बहुत दूर की बात है, ऐसा लगता है कि फिर वही रातें हैं और फिर वही दिन हैं.

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