नयी ट्रेनें, स्वच्छ पेयजल की सुविधा, चार हजार महिला पुलिसकर्मियों की बहाली तथा उच्च गति की रेलगाड़ियों पर तेजी से काम करना जैसी घोषणाएं इस रेल बजट की सकारात्मक पहल हैं, लेकिन..
अगर रेल मंत्री सदानंद गौड़ा द्वारा प्रस्तुत नरेंद्र मोदी सरकार के पहले रेल बजट के मुख्य स्वर को रेखांकित करें, तो वह है रेलवे के औपचारिक निजीकरण की शुरुआत. मंत्री महोदय ने कहा है कि वे कैबिनेट से निवेदन करेंगे कि रेल में प्रत्यक्ष विदेशी निवेशी की अनुमति दी जाये. उन्होंने यह भी कहा कि रेलवे की परियोजनाओं के लिए बाजार से ऋण लेने की प्रवृत्ति कम की जायेगी.
गौड़ा ने इस निर्णय के पीछे तर्क यह दिया है कि रेल का अधिशेष राजस्व कम होता जा रहा है और रखरखाव तथा प्रबंधन पर ही रेल की कमाई का 94 फीसदी खर्च हो जाता है तथा परियोजनाओं के लिए मंत्रलय के पास मात्र छह फीसदी ही बच पाता है. बजट भाषण में बताया गया है कि पिछले 30 वर्षो के दौरान कुल 676 परियोजनाएं स्वीकृत की गयीं, जिनमें से केवल 317 को ही पूरा किया जा सका है, जबकि 359 लंबित परियोजनाओं को पूरा करने के लिए 1.82 लाख करोड़ रुपये अपेक्षित हैं.
यह रेलवे का दुर्भाग्य है कि ज्यादातर सरकारों ने उसकी बेहतरी के लिए दूरदर्शिता का परिचय नहीं दिया है. पिछले दो दशकों की आर्थिक उदारीकरण, निजीकरण व वैश्वीकरण की नीतियों की कई असफलताएं देश के सामने हैं. फिर भी इस दौरान रेलवे के निजीकरण के पक्ष में लगातार तर्क गढ़ने की कोशिशें होती रही हैं और पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप की आड़ में धीरे-धीरे ये कोशिशें सफल भी हो रही हैं. इस रेल बजट में भी प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के इरादे के साथ खान-पान से लेकर सीढ़ियों जैसी मूलभूत सुविधाओं में भी निजी क्षेत्र की हिस्सेदारी (पीपीपी) की बात कही गयी है. इन कदमों का सीधा अर्थ यह है कि आनेवाले दिनों में यात्रियों और रेलवे की सुविधाओं का उपभोग करनेवालों पर आर्थिक बोझ बढ़ता जायेगा.
ऐसे में पूछा जा सकता है कि क्या निजीकरण ही वह मंत्र है, जिसे प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री ‘कड़े कदम’ की संज्ञा दे रहे हैं! कहीं केंद्र सरकार रेलवे के प्रबंधन से अपने कदम पीछे तो नहीं खींचना चाहती? हालांकि, नयी जनसाधारण ट्रेनें चलाना, स्वच्छ पेयजल की सुविधा देना, टिकट खरीदने को आसान बनाना, महिलाओं की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए चार हजार महिला पुलिसकर्मियों की बहाली तथा उच्च गति की रेलगाड़ियों पर तेजी से काम करना जैसी घोषणाएं इस रेल बजट की सकारात्मक पहल हैं.
लेकिन, किसी भी रेल बजट से ऐसे कुछ बुनियादी कदमों की उम्मीद तो की ही जाती है. इन सकारात्मक घोषणाओं का स्वागत है, लेकिन रेलवे को उसकी वर्तमान दुर्दशा से बाहर निकालने के लिए निजीकरण को तेज करने के अलावा किसी अन्य दूरदर्शिता की झलक बजट में नहीं है. रेल बजट पेश होने के बाद शेयर बाजार की प्रतिक्रिया की ओर नजर दौड़ाएं, तो वहां भी निराशा है. प्रत्यक्ष विदेशी निवेश और निजी क्षेत्र की भागीदारी बढ़ाने के इरादे के बावजूद शेयर बाजार में भारतीय रेल से जुड़ी कंपनियों के शेयरों के मूल्य में तीन से तेरह फीसदी की गिरावट दर्ज गयी है. इसका सीधा अर्थ यह है कि यह रेल बजट बाजार की अपेक्षाओं पर भी खरा नहीं उतरा है. कुल मिलाकर सदानंद गौड़ा के बजट भाषण में शेयर बाजार को लुभानेवाली कुछ घोषणाएं तो हैं, लेकिन भावी रेल नीति और दृष्टि की अनुपस्थिति से निवेशकों को निराशा ही हुई है. भारतीय रेल का वित्तीय आधार माल ढुलाई से होनेवाली आमदनी है. रेल मंत्री ने यह तो कह दिया कि सरकार रेल को माल ढुलाई के लिए दुनिया का सबसे बड़ा माध्यम बनायेगी, लेकिन इस पर उन्होंने विस्तार से कुछ नहीं बताया.
उधर, रेल दुर्घटनाओं का सबसे बड़ा कारण पटरियों की खस्ता हालत और रेल संचार की लचर व्यवस्था है. इनकी बेहतरी के लिए भारी धन की दरकार है. अगर महत्वाकांक्षी योजनाओं को पूरा करने के लिए विदेशी निवेश जरूरी है, तो रेल मंत्री के सामने एक बड़ा अवरोध सरकार के भीतर ही है. रेलवे में विदेशी निवेश की अनुमति देने संबंधी वाणिज्य मंत्रलय के प्रस्ताव को गृह मंत्रलय पहले ही निरस्त कर चुका है. सदानंद गौड़ा को इस बारे में कैबिनेट से अनुरोध करने की बात रेल बजट के दौरान सदन के पटल पर करने से पहले मंत्रिमंडल में विचार कर लेना चाहिए था. इस मसले पर दो प्रमुख मंत्रलयों की भिन्न राय में संतुलन पर रेल मंत्री की अनेक घोषणाओं का भविष्य निर्भर करता है. अगर निवेश योजनाओं में देरी हुई, तो रेल मंत्री की घोषणाएं कागजों पर ही सिमट कर रह जायेंगी.