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नकदी वाली अर्थव्यवस्था में पिछड़ गये आदिवासी

।। सुनील मिंज ।। सामाजिक कार्यकर्ता व लेखक मुख्यधारा के कथित विकास में वंचित समूहों की कितनी हिस्सेदारी है? वंचित समूहों के दोनों प्रमुख तबकों, आदिवासी व दलितों के विकास के लिए सरकार ने दो अलग-अलग प्लान बनाये हैं. ट्राइबल सब प्लान (टीएसपी) और शिड्यूल कास्ट सब प्लान (एससीएसपी). टीएसपी 1974 में बना, जबकि एससीएसपी […]

।। सुनील मिंज ।।

सामाजिक कार्यकर्ता व लेखक

मुख्यधारा के कथित विकास में वंचित समूहों की कितनी हिस्सेदारी है?

वंचित समूहों के दोनों प्रमुख तबकों, आदिवासी व दलितों के विकास के लिए सरकार ने दो अलग-अलग प्लान बनाये हैं. ट्राइबल सब प्लान (टीएसपी) और शिड्यूल कास्ट सब प्लान (एससीएसपी). टीएसपी 1974 में बना, जबकि एससीएसपी 1979 में बना. ये प्लान इसलिए बनाये गये ताकि विकास वंचित समूह को योजनाओं का लाभ मिले.

इसके लिए व्यवस्था की गयी कि इसके पैसे न तो दूसरे मद में खर्च किये जायेंगे और न ही लैप्स होंगे. पर, यह सिर्फ नीति है, कानून नहीं है. इस वजह से इसके पैसों को डायवर्ट कर दिया जा रहा है. इसके लिए कोई उत्तरदायित्व है नहीं. टीएसपी का फंड रांची में खेलगांव निर्माण, रांची-टाटा हाइवे निर्माण आदि में डायवर्ट किये गये.

वहीं, दूसरी ओर आदिवासियों की भूमि का अधिग्रहण किया जा रहा है, तो उसके बदले एक व्यक्ति को नौकरी दी जा रही है. अगर परिवार में चार भाई हैं, तो एक को नौकरी मिलती है. बाकी नौकरी व जमीन छिन जाने के कारण आजीविका दोनों से वंचित हो जाते हैं. इससे पारिवारिक संबंध भी प्रभावित हो रहे हैं. अगर इसे ही विकास कहते हैं, तो इसमें वंचितों की हिस्सेदारी कहां है.

ऐसे में जनजातीय संस्थाएं कह रही हैं कि हम लगातार ठगे जा रहे हैं. 100 से ज्यादा एमओयू झारखंड गठन के बाद किये गये, लेकिन इसमें एक भी जमीन पर नहीं उतर सका. सरकार ने एमओयू तो कर लिया, लेकिन पेसा कानून के कारण ग्रामसभा से अनुमति लेना भी भूमि अधिग्रहण के लिए आवश्यक है. उत्पन्न परिस्थितियों के कारण सरकार को लेकर लोगों में क्षोभ है. आदिवासियों को लगता है कि हम जमीन देते हैं, लेकिन उसका लाभ नहीं मिलता है. इसलिए लोगों ने विरोध जताना शुरू कर दिया है. यह अंतिम निर्णय नहीं है, लेकिन हमें विकास में सहभागिता का लाभ मिले. हम जमीन के मालिक हैं और सड़क पर हो जाते हैं. यह बात ठीक नहीं है.

अगर जमीन अधिग्रहण करना है तो सीएनटी व एसपीटी एक्ट के अंतर्गत जमीन अधिग्रहण करें. जमीन छिन जाने के बाद आदिवासी समुदाय आजीविका से वंचित हो जाता है. वे रोजगार के लिए बाहर चले जाते हैं. इससे उनके बच्चों का स्कूल छूट जाता है. महिलाएं-लड़कियां घरेलू कामकाज करने लगती हैं. वहीं, दूसरी ओर बाहर से लोग यहां आते हैं. होना यह चाहिए कि स्थानीय लोगों को स्थानीय स्तर पर रोजगार मिले.

प्राकृतिक संसाधन वाले इलाकों में ऐसे मामले तेजी से सामने आ रहे हैं.

ऐसे में नक्सली संगठनों को बढने का मौका मिलता है, वे स्थानीय ग्रामीणों को उनके हितों का रक्षक होने का भरोसा दिलाते हैं. वहीं, आंदोलनकारियों के नेता को पुलिस जेल में माओवादी बता कर डाल दे रही है. हमारा कहना है कि सरकार जमीन का अधिग्रहण करे, कंपनी नहीं करे. कंपनियां सीएसआर के तहत जो काम करती हैं, वह अपने प्रोजेक्ट एरिया तक ही सीमित रखती हैं, जबकि उससे अलग भी उन्हें काम करना चाहिए. हमारा कहना है कि प्रोजेक्ट अगर हमारी कीमत पर बनता है, तो उसके लाभ में हिस्सेदारी भी हमें ही मिलना चाहिए.

जनजातीय आबादीसिर्फ झारखंड, छत्तीसगढ़ और ओडिशा जैसे राज्य में ही पिछड़ी हुई नहीं है, बल्कि विकसित कहे जाने वाले राज्य गुजरात, महाराष्ट्र व आंध्रप्रदेश में भी उनका विकास नहीं हुआ है. ऐसा क्यों?

इसका एक महत्वपूर्ण कारण है कि कहीं के भी आदिवासी हों, चाहे वह अफ्रीका व अमेरिका ही क्यों नहीं हो, वे कैश इकोनॉमी (नकदी आधारित अर्थव्यवस्था) में जीने वाले नहीं हैं. यानी नकदी की अर्थव्यवस्था से उनका जुड़ाव नहीं है. ऐसे में नकदी अर्थव्यवस्था का जमाना आया तो वे पिछड़ गये. आदिवासी समाज में जमा करने की प्रवृत्ति नहीं है. वे प्राकृतिक तरीके से जीने वाले हैं. उनकी संस्कृति देखें, संपत्ति देखें, वे अमूल्य हैं. अगर उसे पैसे से नापेंगे तो वह बहुत ज्यादा हैं.

बिहार और झारखंड दोनों जगहों पर सत्ता शीर्ष पर वंचित समुदाय का व्यक्ति है. बिहार में दलित मुख्यमंत्री हैं, तो झारखंड में आदिवासी. क्या इनके सत्ता शीर्ष पर पहुंचने के बाद यह मान लिया जाये कि उस वर्ग को सामाजिक न्याय मिल गया है?

एक आदमी के मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री बनने या फिर आइएएस-आइपीएस जैसी नौकरियों में जाने से यह नहीं माना जा सकता है कि उस समुदाय को सामाजिक न्याय मिल गया है. क्योंकि मुख्यधारा में आने से वे अपने समुदाय से कट गये. वे अब इलीट हो गये. लोकतंत्र के खांचे में वे सेट होने के बाद वे अपने समाज से कट जाते हैं और नये ढांचे में ढल जाते हैं. वे समाज से कट व्यक्तिवादी जीवन जीते हैं. वे समुदाय में नहीं रहते हैं, उनके उच्च पद पर पहुंचने का लाभ भी लोगों को ऐसे में नहीं मिल पाता है.

वहीं, आदिवासियों से ज्यादा संगठित दलित हैं. वे अपनी नौकरी के पैसे से बामसेफ जैसा संगठन चलाते हैं. उनके यहां नौकरियों से राजनीतिक नेतृत्व तैयार हुआ है. दलित युवा जब नौकरी करने बाहर जाता है, तो वह समाज को कुछ देता है. पर, आदिवासी समाज में ऐसा नहीं हो पा रहा है. आप समाज को मिले आरक्षण का लाभ ले रहे हैं, तो आपकी समाज के प्रति जिम्मेवारी भी बनती है.

क्या सामाजिक न्याय व विकास दो अलग-अलग अवधारणाएं हैं या एक ही सिक्के के दो पहलू हैं. जैसे यह माना जा सकता है कि बिहार, यूपी व झारखंड में काफी हद तक सामाजिक न्याय तो मो मिल गया है, लेकिन विकास नहीं हुआ?

यूपी, बिहार व झारखंड में सत्ता शीर्ष पर वंचित समुदाय का व्यक्ति पहुंचा, यह ठीक है. लेकिन आज की जो चुनाव पद्धति है, वह बहुत खर्चीली है. सभी जीतने वाली पार्टियों कॉरपोरेट हाउस के पैसे से चलती हैं और जीतती हैं. जब वे जीत जाती हैं, तो कॉरपोरेट के हित में काम करती हैं. कॉरपोरेट को जो संसाधन दिया जाना है, उस दिशा में एमपी, एमएलए कानून बना रहे हैं और वंचितों को सिर्फ जिंदा रखने के लिए उनके लिए योजनाएं चलायी जा रही हैं. इसलिए सिर्फ समुदाय के व्यक्ति के शीर्ष पद पर पहुंचने से विकास नहीं हो सकेगा.

सामाजिक न्याय के बाद लोगों को विकास की जरूरत होती है. हाल में देश में जो लोकसभा चुनाव हुआ, उसमें यूपी, बिहार, झारखंड ही नहीं बल्कि विभिन्न हिस्सों में हुए वोटिंग से यह संदेश गया है कि सामाजिक न्याय पा चुके वंचित समूहों के बहुत सारे लोगों ने भी किसी व्यक्ति या पार्टी को सिर्फ विकास के उसके ढेरों वादों पर वोट दे दिया है. तो क्या सामाजिक न्याय की पैरोकारी करने वाले दलों व नेताओं को अपना एजेंडा बदलना होगा?

सामाजिक न्याय मिला.

अब उसका अगला स्टेप यह है कि उन्हें शिक्षा, रोजगार मिले. उनका कौशल विकास हो. उन्हें कंप्यूटर व अंगरेजी की शिक्षा मिले. उन्हें तकनीकी शिक्षा भी मिले. शिक्षा के बाद रोजगार चाहिए. नौकरी सबको नहीं मिल सकती है, इसलिए कौशल विकास हो. परंपरागत व्यवसाय व उसके उत्पादों की मार्केटिंग का रास्ता ढूंढा जाये. ऐसे कामकाज के लिए जो एजेंसियां बनी हैं, उसे और मजबूत किया जाये. महिलाओं को भी रोजगार से जोड़ा जाये.

झारखंड में वंचित समूह की किस तरह की प्रमुख दिक्कतें हैं?

झारखंड में सरकार व समुदाय के स्तर पर दिक्कत है. जब समुदाय के लोग कहते हैं कि हमारे यहां ग्रामसभा है और उसकी अनुमति के बिना जमीन नहीं देंगे, तो फिर वे अपनी बेटियों को किसी अनजान के साथ क्यों जाने देते हैं? अगर कोई काम के लिए बाहर जाता है, तो यह जरूरी है कि ग्रामसभा के रजिस्टर में उसका व ले जाने वाले का पूरा ब्योरा रखें. सरकार को भी जागरूकता कार्यक्रम जिले व पंचायत स्तर पर चलाया जाना चाहिए.

केंद्र सरकार से कैसी अपेक्षाएं हैं?

केंद्र सरकार आदिवासियों व दलितों के लिए योजनाएं भेजती है. लेकिन उसका सही इस्तेमाल हो इसका जायजा नहीं लिया गया. जरूरी है कि उसका जरूरतमंद व्यक्ति व समुदाय को सीधा लाभ मिले. जिले में बैठे कल्याण पदाधिकारी अगर वंचित समुदाय से नहीं है और उसकी मानिसकता व सोच सही नहीं है तो दिक्कत होती है. इंटिग्रेटेड ट्राइबल डेवलपमेंट एप्रोच के तहत कई चीजें केंद्र से जनजातीयों को मिलती हैं. इसमें ट्रैक्टर, डीजल पंप सेट, बस, पिक अप वैन आदि हैं, जो समूह बनाकर लिया जा सकता है. पर, यह काम भी पैसे लेकर किया जा रहा है. इसमें 100 प्रतिशत सब्सिडी है. ऐसे में आदिवासी समुदाय के ही वैसे लोग जो पैसे वाले हैं, वे इन योजनाओं का लाभ उठा लेते हैं. लेकिन जो वास्तविक जरूरतमंद हैं, उन्हें लाभ नहीं मिल पाता. पहाड़ियों के आश्रम स्कूल में बच्चे जाते नहीं, फिर भी उसके संसाधन कहा चले जाते हैं, पहाड़ियों को मिलने वाले बिरसा आवास से कितने लोग लाभान्वित हुए हैं. ये बड़े सवाल हैं. इनमें सुधार जरूरी है.

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