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मौकापरस्ती बनाम रेल का कायाकल्प

।। राजीव रंजन झा ।। संपादक, शेयर मंथन आज भाजपा के प्रवक्ता कहते हैं कि रेलवे के भाड़े तो दो साल पहले ही बढ़ा दिये जाने चाहिए थे, तो दो साल पहले नरेंद्र मोदी ऐसे ही एक फैसले का विरोध क्यों कर रहे थे? दरअसल, सारे ही दल अतार्किक विरोध और मौकापरस्ती के आदी हैं. […]

।। राजीव रंजन झा ।।

संपादक, शेयर मंथन

आज भाजपा के प्रवक्ता कहते हैं कि रेलवे के भाड़े तो दो साल पहले ही बढ़ा दिये जाने चाहिए थे, तो दो साल पहले नरेंद्र मोदी ऐसे ही एक फैसले का विरोध क्यों कर रहे थे? दरअसल, सारे ही दल अतार्किक विरोध और मौकापरस्ती के आदी हैं.

लोकसभा चुनाव के नतीजों की गहमागहमी के बीच 16 मई को एक खबर आयी और खो गयी, किसी को पता भी नहीं चला था. खबर यह थी कि रेलवे ने 20 मई से यात्री किरायों में 14.2 प्रतिशत व माल भाड़े में 6.5 प्रतिशत वृद्धि का निर्णय लिया है. सीधी किराया वृद्धि 10 प्रतिशत थी और 4.2 प्रतिशत वृद्धि ईंधन के भाव (एफएसी) पर आधारित थी. असल में यह फैसला पहले का था. यूपीए सरकार ने 5 फरवरी, 2014 को ही इस वृद्धि का फैसला किया था, जब रेलवे बोर्ड ने 1 अप्रैल, 2014 से माल भाड़े में और 1 मई, 2014 से यात्री किराये में वृद्धि लागू करने की तारीखें तय की थीं. उस समय रेल मंत्री मल्लिकाजरुन खड़गे ने, जो अब कांग्रेस संसदीय दल के नेता हैं, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से भेंट की थी, जिन्होंने इस वृद्धि पर मुहर लगायी थी.

यहां तक तो सामान्य सरकारी काम चल रहा था. लेकिन इसके बाद गेंद राजनीति के मैदान में चली गयी. अब इस फैसले के जो राजनीतिक फलितार्थ थे, वे तो बदल नहीं सकते. जरा 16 मई को इस खबर की सुर्खियां देखें- ‘जाते-जाते मनमोहन सरकार ने रेल यात्रियों को रुलाया’. जहां भी जनता को ज्यादा पैसे देने पड़ते हैं, उस खबर के शीर्षक कुछ ऐसे ही बनेंगे. इसलिए कांग्रेस ने सोचा कि अब जाते-जाते यह तोहमत अपने सिर पर क्यों ली जाये? उसे पता था कि अगर वह इस फैसले को अभी टाल दे, तो यही फैसला मोदी सरकार को लेना पड़ेगा और उसे राजनीतिक हमले का एक मौका मिल जायेगा.

जब मोदी सरकार ने इस फैसले को लागू किया, तो ऐसी ही सुर्खियों का निशाना मोदी सरकार बन गयी. वह अभी-अभी अच्छे दिन का चुनावी नारा देकर सत्ता में आयी है, इसलिए तुरंत अच्छे दिन से जुड़ी तुकबंदियां बन गयीं. लोग पूछने लगे कि अच्छे दिन के नाम पर महंगे दिन क्यों ले आये? कांग्रेस यह दिखाना चाहती है कि भाजपा ने हमारे फैसलों का विरोध करके जनता से वोट ले लिया और अब हमारे ही फैसलों को लागू कर रही है. यह देखना दिलचस्प होगा कि जब कांग्रेस इस वृद्धि का संसद में विरोध करेगी (जो अवश्यंभावी लगता है), तब लोकसभा में उसके नेता मल्लिकाजरुन खड़गे अपने ही फैसले के विरोध में क्या कहेंगे! खैर, राजनीति के अपने ही रंग-ढंग होते हैं.

राजनीति करने में भाजपा भी कहां कम है! आज भाजपा के प्रवक्ता कहते हैं कि किराये और माल भाड़े में वृद्धि तो सालों पहले हो जाने चाहिए थे. उन्होंने रेल बजट से पहले ही भाड़े में वृद्धि को भी उचित ठहराया है. यह फैसला होने के तुरंत बाद सोशल मीडिया पर नरेंद्र मोदी का 7 मार्च, 2012 का वह ट्वीट फैलने लगा, जिसमें उन्होंने कहा था, ‘यूपीए ने रेल बजट से ठीक पहले रेलवे का माल भाड़ा बढ़ा कर संसद को बाइपास किया है. मैंने इसके विरोध में प्रधानमंत्री को पत्र लिखा है’. तब उन्होंने मनमोहन सिंह को कहा था कि रेलवे बजट से ठीक एक सप्ताह पहले माल भाड़े में 20 प्रतिशत की भारी वृद्धि का अचानक फैसला कर संसद की सर्वोच्चता को चोट पहुंचायी है. यदि मार्च, 2012 में नरेंद्र मोदी रेलवे बजट से ठीक पहले माल भाड़े में वृद्धि के विरोध में थे, तो आज उनकी ही सरकार का वही काम ठीक कैसे है? उनका 2012 का विरोध गलत था, या आज उनकी सरकार का कदम गलत है?

तब मोदी ने मांग की थी कि माल भाड़े में वृद्धि को तुरंत वापस लिया जाये, क्योंकि इससे आम आदमी और पूरी अर्थव्यवस्था पर बोझ पड़ेगा. जब आज भाजपा के प्रवक्ता कहते हैं कि रेलवे के भाड़े तो दो साल पहले ही बढ़ा दिये जाने चाहिए थे, तो दो साल पहले नरेंद्र मोदी ऐसे ही एक फैसले का विरोध क्यों कर रहे थे? अगर शुद्ध राजनीति के मोरचे पर देखें, तो सारे ही दल अतार्किक विरोध और मौकापरस्ती के आदी हैं. हकीकत यह है कि बीते दशक की लोक-लुभावन राजनीति ने रेलवे को अंदर से खोखला, गैर-पेशेवर और अक्षम बना दिया है. टिकट सस्ता होने का क्या फायदा, अगर टिकट मिलता ही न हो? शताब्दी और राजधानी जैसी कुछ खास ट्रेनों को छोड़ दें, तो बाकी ट्रेनें कब पहुंचेंगी, कुछ पता नहीं होता. प्लेटफॉर्म पर पहुंच कर आप खुद को इंसान नहीं, माल गोदाम में पड़े हुए बोरे जैसा महसूस करने लगते हैं.

यात्री किराये न बढ़ाने की लोक-लुभावन जिद में रेलवे को संसाधनों के लिए पूरी तरह से माल ढुलाई के भाड़े पर निर्भर कर दिया गया. लेकिन, रेलवे का माल भाड़ा सड़क परिवहन की तुलना में अप्रतिस्पर्धी होते जाने से देश की कुल माल ढुलाई में रेलवे की हिस्सेदारी बीते दस-बीस वर्षो में लगातार घटती गयी. जब यात्री किराये बढ़ाये भी गये तो ज्यादातर बोझ एसी श्रेणी के यात्रियों पर डालने की नीति अपनायी गयी.

गरीब रथ में दिल्ली से मुंबई का एसी-3 का किराया 880 रुपये है. अगर मुंबई राजधानी या अगस्त क्रांति राजधानी में एसी-3 का टिकट लेना हो तो 1815 रुपये देने पड़ेंगे. इसका अर्थ यह हुआ कि गरीब रथ में समान सुविधाओं के लिए पचास फीसदी से अधिक सब्सिडी है. सामान्य ट्रेनों में एसी-3 का किराया स्लीपर के किराये के ढाई गुना से अधिक है.

यह 1960-1970 के समय की उस समाजवादी सोच का नतीजा है, जो कहती है कि कीमत का संबंध लागत से नहीं, बल्कि कीमत चुकाने वाले की क्षमता से होना चाहिए. वही ट्रेन, वही दूरी, रेलवे के ढांचे पर बोझ व लागत के मामले में बस 19-21 या 18-22 का फर्क, लेकिन किराये में ढाई गुने से लेकर साढ़े छह गुना तक का फर्क!

इस सोच का नतीजा क्या निकला है? सरकार ने भी मान लिया है कि स्लीपर और जनरल डिब्बों में चलने वालों को किसी तरह की सुविधा देने की जरूरत ही नहीं है. इन डिब्बों में एक साफ-सुथरा टॉयलेट मुहैया कराना तक जरूरी नहीं समझा जाता. जरा स्लीपर और जनरल डिब्बों में यात्र करने वालों से तो पूछा जाये कि वे क्या चाहते हैं? ठीक है, नहीं मिलेगी एसी की सुविधा, पर डिब्बे साफ-सुथरे हों, टॉयलेट इस्तेमाल करने लायक हों, बेटिकट घुस कर आपकी सीट पर कब्जा करने और फिर आपको अपनी ही सीट पर बेचारा बना देनेवाली फौज न हो, तो क्या उन्हें 100-200 रुपये ज्यादा देने में परेशानी होगी?

लेकिन, रेलवे में सुधार के लिए किराया बढ़ाना ही अकेला या सबसे बड़ा उपाय नहीं है. रेलवे सबसे ज्यादा रोजगार देने वाला संगठन है, पर यह बड़ी फौज इसकी शक्ति नहीं, दुर्बलता है. उसके बाद भी सुविधाएं न दे पाने का कारण कर्मचारियों की कमी को बताया जाता है. माल ढुलाई दुधारू गाय है, पर रेलवे ने इसकी भी परवाह नहीं की है. मोदी ने भी कहा है कि संगमरमर व टमाटर में से रेलवे पहले संगमरमर भेजेगा. रेलवे भी भ्रष्टाचार की बीमारी और अक्षमता के संधिवात का शिकार है. इसे कड़वी दवा के एक-दो टैबलेट की नहीं, पूरे कायाकल्प की जरूरत है.

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