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क्या अंग्रेज़ी भी भारतीय भाषा हो गई है?

इमरान क़ुरैशी बीबीसी हिंदी डॉट कॉम के लिए क्या लोगों की सामाजिक ज़रूरतें सत्ता की राजनीतिक ज़रूरतों से अलग होती हैं, ख़ासतौर पर तब जब भारत जैसे बहुजातीय और बहुभाषी देश में हिंदी भाषा ‘थोपे’ जाने से यह मुद्दा जुड़ा हुआ हो. यह सवाल तब खड़ा हुआ जब सोशल मीडिया में हिंदी को प्राथमिकता दिए […]

क्या लोगों की सामाजिक ज़रूरतें सत्ता की राजनीतिक ज़रूरतों से अलग होती हैं, ख़ासतौर पर तब जब भारत जैसे बहुजातीय और बहुभाषी देश में हिंदी भाषा ‘थोपे’ जाने से यह मुद्दा जुड़ा हुआ हो.

यह सवाल तब खड़ा हुआ जब सोशल मीडिया में हिंदी को प्राथमिकता दिए जाने के केंद्र सरकार के निर्देशों का तमिलनाडु के पूर्व मुख्यमंत्री और द्रमुक नेता मुथुवेल करुणानिधि ने विरोध किया.

केंद्र सरकार के इस निर्देश के खिलाफ़ विरोध के स्वर न केवल तमिलनाडु बल्कि देश के कई हिस्सों में भी सुनाई दिए.

हिंदी से कौन और क्यों डरता है?

पांच हफ़्ते पुरानी भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार ने जिस बेढंगे तरीके से इस मुद्दे को संभाला उसने न केवल राजनीतिक वर्ग में बल्कि समाज के उन हिस्सों में भी कई सवाल उठे जहां हिंदी राज्य की भाषा नहीं है.

केंद्र सरकार ने सबसे पहले ऐसे किसी निर्देश की बात से इनकार किया, बाद में उसे स्वीकार भी किया और इसके बाद पूर्ववर्ती सरकार पर आरोप लगाए.

दिलचस्प है कि सामाजिक ज़रूरतों का राजनीतिक ज़रूरतों की अनिवार्यता से किसी विवाद के होने पर जब बीबीसी हिंदी ने साहित्य, अर्थव्यवस्था, राजनीति और सांस्कृतिक क्षेत्र के ऐसे चार विशेषज्ञों से बात की जिन्होंने भारतीय समाज के राजनीतिक और सामाजिक रुझानों को बेहद क़रीब से देखा है तो उनका जवाब हाँ में ही मिला.

नुक़सान किसका?

नैशनल इंस्टीट्यूट ऑफ़ एडवांस्ड स्टडीज (एनआईएएस) के प्रोफेसर नरेंद्र पाणि ने बीबीसी हिंदी को बताया, "यह भाजपा सरकार का बेहद अदूरदर्शी क़दम है. पार्टी को दक्षिण और पूर्वी राज्यों में कम सीटें ही मिली हैं और यह सिर्फ एक भाषा में बात करना चाहती है. यह पार्टी सत्ता में है इसलिए सबसे जुड़ने की उसे ज़रूरत है. राजनीति का ताल्लुक संवाद से भी जुड़ा है. ऐसे में नुक़सान आम लोगों का नहीं बल्कि नेताओं का ही है.’

अर्थशास्त्री पाणि कहते हैं, "अहम बात यह है कि आपको लोगों से जुड़ने के लिए कई भाषाओं की ज़रूरत पड़ती है. दुनिया भर में इस बात को स्वीकारा जा रहा है कि एकभाषी होने का फ़ायदा नहीं है. इसी वजह से एक अंग्रेज़ीदां देश में स्पैनिश भाषा को प्रोत्साहित किया जा रहा है. यहां तक कि भारत में भी बंगाल ने अंग्रेज़ी भाषा को बढ़ावा नहीं देने की क़ीमत चुकाई. तमिलनाडु पर कोई ख़ास फर्क नहीं पड़ा क्योंकि इसके विकास में अंग्रेज़ी ने एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है.’

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तमिलनाडु की लेखिका और कार्यकर्ता मीना कंडासामी ने कहा, "यह हिंदी या तमिल के ख़िलाफ़ होने का सवाल नहीं है. प्रत्येक भाषा की अपनी अनूठी पहचान होती है. एक भाषा दूसरी भाषा को नहीं मार सकती है. लोगों की ज़रूरतें राजनीतिक जरूरतों से अलग हैं. लेकिन देखिए हिंदी भाषी राज्यों में क्या हो रहा है. देश का यह हिस्सा विकास या आर्थिक तरक्की से बेख़बर है और आप इसके साथ दक्षिणी राज्यों की तुलना करके देखें.’

शासक वर्ग और जनता

कंडासामी उत्तराखंड के 12 साल के बच्चों का हवाला देते हुए कहती हैं कि वे स्कूल जाने के बजाय होटलों में मेहमानों की मेहमानवाज़ी करके शोषित हो रहे थे. हैदराबाद स्थित मौलाना आजाद राष्ट्रीय उर्दू विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान के प्रोफ़ेसर कांचा इलैया ने बच्चों के शोषण के कारणों का ज़िक्र किया.

इलैया ने कहा, "हिंदी पट्टी में राजनीतिक नेतृत्व बेहद पाखंडी चरित्र का है. वो अपने बच्चों को हिंदी माध्यम के स्कूलों के बजाए अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में भेजता है. वे शासक वर्ग और आम जनता के बीच एक खाई पैदा कर रहे हैं. यह स्थिति ग़ैर हिन्दी भाषी दक्षिणी राज्यों में नहीं है.’

वह कहते हैं, "देश के बाकी हिस्सों में मौजूद समाज के अन्य वर्गों की तरह ही हिंदी के कमजोर तबके को अंग्रेज़ी माध्यम के स्कूलों की ज़्यादा ज़रूरत है. सरकार को अंग्रेजी माध्यम के अधिक स्कूल खोलने चाहिए ताकि इन बच्चों को वैश्विक ज्ञान मिले और उस बाजार का हिस्सा बने जिसका सामना उन्हें भविष्य में करना है.’

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इलैया भी पाणि की इस बात पर सहमति जताते हैं कि एक भाषा की जानकारी से ज़्यादा मदद नहीं मिलती है.

इलैया कहते हैं, "अंग्रेजी तो अब तेलुगु, तमिल, कन्नड़, मलयालम या हिंदी की तरह ही भारतीय भाषा बन गई है. समाज की बहुभाषी प्रकृति को स्वीकार करने से इनकार करके आरएसएस और भाजपा खुद ही हिंदी को थोपकर लोगों की चेतना में बदलाव लाना चाहती है. हम चीन की तरह संपूर्ण रूप से राष्ट्रवादी हो जाएं, सभी अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों को ख़त्म कर दिया जाए, यह एक व्यावहारिक समाधान नहीं हो सकता है.’

और भी हैं मसले

हिंदी फिल्म "मद्रास कैफ़े" में अपनी अदाकारी दिखा चुके कन्नड़ रंगकर्मी और टिप्पणीकार प्रकाश बेलावाड़ी कहते हैं, "भाषा से जुड़े संवेदनशील मुद्दे के बजाए मोदी सरकार के सामने और अहम मुद्दे हैं जिन पर तवज्जो दी जानी चाहिए. अंग्रेज़ी भाषा को अर्थव्यवस्था और कारोबार की भाषा के रूप में बढ़ावा दिया जाना ज़रूरी हो गया. हिन्दी को सांस्कृतिक जुड़ाव के लिए बढ़ावा दिया जाना भी उतना ही महत्वपूर्ण है.’

प्रकाश, कांडासामी की इस बात से सहमत हैं कि हिंदी भाषा हिंदी फ़िल्मों, टीवी धारावाहिकों और उत्तर भारत से दक्षिण राज्यों की ओर पलायन के जरिए अपना रास्ता बनाया है.

वह कहते हैं, "भीड़ से केवल शोर की आवाज़ ही सुनाई दे सकती है. हमें अंग्रेज़ी की ज़रूरत है और हिंदी या किसी भी क्षेत्रीय भाषा को बढ़ावा देने में कोई बुराई नहीं है. लेकिन यह सब किसी कड़े आदेश या फ़रमान से नहीं संभव है.’

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