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विस्थापन ङोल रहे उत्तरी वजीरिस्तान के लोग

आतंकवाद, सैन्य कार्रवाई और युद्ध इन सबसे जो विकराल स्थिति जन्मती है, उसका एक सियाह पहलू विस्थापन भी है. पिछले कुछ समय से पाकिस्तान के उत्तरी वजीरिस्तान में भी आतंकियों के खिलाफ शुरू हुई सैन्य कार्रवाई के चलते बड़े पैमाने पर कबायली लोग विस्थापन ङोलने को विवश हैं. अनुमानत: अब तक 90 हजार कबायली लोग […]

आतंकवाद, सैन्य कार्रवाई और युद्ध इन सबसे जो विकराल स्थिति जन्मती है, उसका एक सियाह पहलू विस्थापन भी है. पिछले कुछ समय से पाकिस्तान के उत्तरी वजीरिस्तान में भी आतंकियों के खिलाफ शुरू हुई सैन्य कार्रवाई के चलते बड़े पैमाने पर कबायली लोग विस्थापन ङोलने को विवश हैं. अनुमानत: अब तक 90 हजार कबायली लोग अपने घर-जमीन छोड़ कर खैबर-पख्तूनख्वा प्रांत के बिन्नू शहर या फिर अफगानिस्तान के खोस्त प्रांत में चले गये हैं

पाकिस्तान के उत्तरी वजीरिस्तान इलाके से पिछले कुछ समय से बड़े पैमाने पर पलायान हो रहा है. बड़ी संख्या में लोग अपने परिवार के साथ पाकिस्तान के खैबर-पख्तूनख्वा प्रांत के बन्नू शहर में बनाये गये राहत शिविर या फिर सीमा पार कर अफगानिस्तान की ओर जा रहे हैं. गौरतलब है कि पिछले कुछ समय से पाकिस्तानी सेना ने अशांत उत्तरी वजीरिस्तान के कबायली इलाकों में बड़े पैमाने पर सैन्य कार्रवाई शुरू की है. इस इलाके को तालिबान और अल-कायदा लड़ाकों का गढ़ माना जाता है.

इस इलाके में सेना लोगों से घरों को खाली करने की कोई अधिकारिक घोषणा करती, इसके पहले ही नॉर्थ वजीरिस्तान एजेंसी (एनडब्ल्यूए) के करीब 90 हजार कबायली लोग अपने घर-जमीन छोड़ खैबर-पख्तूनख्वा प्रांत या फिर अफगानिस्तान के खोस्त प्रांत चले गये हैं. बन्नू-मीनारशाह रोड पर स्थित आंतरिक रूप से विस्थापित व्यक्तियों के रजिस्ट्रेशन केंद्र (आइडीपी) के आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक अब तक 3,637 परिवारों के 49,199 लोग अभी तक पंजीकरण करा चुके हैं. इनमें 15,466 महिलाएं और 23,449 बच्चे शामिल हैं. प्रशासनिक अधिकारियों की मानें, तो इस आधिकारिक आंकड़े के अलावा भी अलग-अलग रास्तों से लोग जिले में प्रवेश कर रहे हैं, इसलिए विस्थापितों की यह संख्या 80,000 के पार हो सकती है.

बड़े पैमाने पर पलायन कर आ रहे लोगों के कारण इस प्रांत में खाद्य पदार्थो की कीमतें बढ़ती जा रही हैं. खासतौर पर बन्नू शहर में तो कीमतें आसमान छू रही हैं. खाद्य अधिकारियों के मुताबिक गेहूं का भंडार तेजी से समाप्त हो रहा है. अगर जल्द ही इस ओर ध्यान देकर जरूरी कदम नहीं उठाये गये, तो आनेवाले समय में खाद्य पदार्थो की कमी विकराल स्थिति निर्मित कर सकती है. बन्नू के स्थानीय लोगों का कहना है कि सरकारी अनाज भंडार में गेहूं लगभग समाप्त हो चुका है. खाद्यान्न नियंत्रक फिदौर रहमान के अनुसार बन्नू की स्थानीय आबादी की अनाज की जरूरतों के लिहाज से अगले तीन महीने के लिऐ तकरीबन 3,00,000 बोरी अतिरिक्त गेहूं की जरूरत है. लेकिन सरकारी अनाज भंडारण गृह में अभी महज 28,000 बोरे गेहूं ही बचा है, जो कि अपर्याप्त है. रहमान कहते हैं, ‘उत्तरी वजीरिस्तान एजेंसी से आ रहे विस्थापितों की संख्या देखें, तो उपरोक्त खाद्यान्न मांग की तुलना में बहुत ही कम है.’

उत्तरी वजीरिस्तान से विस्थापित होकर आये एक शख्स इकराम दावर कहते हैं, ‘विस्थापित होकर आ रहे परिवारों के लिए सरकार ने अभी तक यहां कोई पुख्ता इंतजाम नहीं किये हैं, ताकि आनेवाले लोग राहत महसूस कर सकें. इसलिए अपना घर-बार छोड़ कर, अपनी जड़ों से उखड़ कर आ रहे लोग दोहरी विपदा का सामना कर रहे हैं. आनेवाले समय में चिलचिलाती गरमी के कारण भी लोगों को भारी मुश्किलों का सामना करना पड़ सकता है.’

खैबर-पख्तूनख्वा प्रांत के बन्नू शहर की बजाय बहुत से विस्थापितों ने सीमा पार अफगानिस्तान में शरण लेना मुनासिब समझा. अहमदजई वजीर कबीले के लोगों सहित अन्य कबिलाई इलाकों के करीब 7,000 हजार विस्थापित लोग सीमा पार कर अफगानिस्तान के खोस्त प्रांत चले गये हैं. वहां के स्थानीय सरकारी अधिकारियों के मुताबिक अधिकतर विस्थापित परिवार, जिनमें लगभग 1,500 बच्चे भी शामिल हैं, जोखिमभरा और लंबा पहाड़ी रास्ता तय कर अफगानिस्तान पहुंचे हैं. एक बुजुर्ग विस्थापित ने बताया कि, यहां आनेवाले विस्थापित कबायली लोगों ने पाकिस्तान के दूसरे शहरों में बने शरणार्थी शिविरों की बजाय खतरनाक रास्ता तय कर अफगानिस्तान आना इसलिए चुना, क्योंकि पाक के कैंपों में सुविधाओं की बेहद कमी है. इसके पीछे एक वजह और है, उत्तरी वजीरिस्तान के बहुत से कबायली लोगों के सीमा पार अफगानिस्तान के कुछ इलाकों में न सिर्फ रिश्तेदार हैं, बल्कि कई लोगों ने यहां घर और जमीन भी खरीद रखी है.

खोस्त गवर्नर अब्दुल जब्बार नीमि ने ‘एक्सप्रेस ट्रिब्यून’ को बताया कि अफगानिस्तान के इस प्रांत में भी सीमांत प्रदेश उत्तरी वजीरिस्तान से आनेवाले विस्थापितों के लिए बीस एकड़ भू-भाग में राहत शिविर बनाये जा रहे हैं. जब्बार कहते हैं कि ‘मैं स्वयं उस क्षेत्र का दौरा करके आया हूं. वहां लोगों को मूलभूत सुविधाएं तो मिलेंगी ही, बच्चों को पोलियो की दवा भी पिलायी जायेगी.’

खोस्त प्रांत के पत्रकार इलियास वहादत के अनुसार अब तक तकरीबन 300 परिवार खोस्त पहुंच चुके हैं. यहां की सरकार ने उनके लिए प्रांत के गुरबज जिले में कैंप बनाने की योजना बनायी है. वहादत बताते हैं, ‘मैंने विस्थापित होकर आये लोगों से खुद बात की है. वे अफगान अधिकारियों की व्यवस्था से संतुष्ट हैं.’ वह आगे जोड़ते हैं कि उत्तरी वजीरिस्तान से आये कुछ विस्थापित अफगानिस्तान के सीमावर्ती क्षेत्रों में चले गये हैं.

अफगानिस्तान के अधिकारियों द्वारा विस्थापित होकर आनेवाले परिवारों का बाकायदा रजिस्ट्रेशन भी किया जा रहा है. यही नहीं, कई अफगानी परिवार अपने घर के एक हिस्से को खाली कर विस्थापित होकर आनेवाले परिवारों को रहने की जगह दे रहे हैं और उनकी हर तरह से मदद भी कर रहे हैं.

चीन में शरण ले रहे हैं पाकिस्तान के अहमदी
पाकिस्तान अहमदियों को मुसलमानों का दर्जा नहीं देता. हिंसा और भेदभाव की शिकार रही पाक की यह अल्पसंख्यक कौम अब चीन में शरण ले रही है. पाकिस्तान के लाहौर से चीन पहुंचे सैंतीस साल के सईद कहते हैं, ‘पाक में हर दिन मुङो बंदूकों की आवाज सुनायी देती थी. सुरक्षा के लिहाज से चीन अच्छा है.’ सईद उन सैकड़ों अहमदी मुसलमानों में से एक हैं, जिन्होंने हिंसा प्रभावित इलाकों से किसी तरह निकल कर चीन में शरण ले रखी है. चीनी सरकार इन शरणार्थियों को किसी तरह की मदद नहीं दे रही है, लेकिन फिलहाल इन्हें अपनी सीमाओं में रहने दे रही है. वहीं चीन उत्तरी कोरिया और म्यांमार से आनेवाले हजारों उत्पीड़ित लोगों को निर्वासित करता रहा है, जिसके लिए मानवाधिकार संगठन चीन की आलोचना करते हैं. पाकिस्तान का मामला अलग है, क्योंकि वह काफी लंबे समय से चीन का मित्र राष्ट्र रहा है. चीन में संयुक्तराष्ट्र के साथ पंजीकृत करीब 500 शरण चाहनेवाले लोगों में से 35 अहमदी मुसलमान हैं. मुसलमानों के इस समुदाय के संस्थापक 18वीं सदी में पैदा हुए गुलाम अहमद थे. अहमदी लोग उन्हें अपना पैगंबर मानते हैं. बीजिंग के बाहर सानहे मानकी जगह पर रह रहे कई अहमदी मुसलमानों ने समाचार एजेंसी एएफपी को बताया कि उन्होंने चीनी वीजा लगवाने के लिए बिचौलियों को 3,000 डॉलर तक दिए. यह रकम एक औसत पाकिस्तानी की साल भर की कमाई का दोगुना है. चीन ने 1982 में ही यूएन के साथ एक रिफ्यूजी प्रोटोकॉल साइन किया था. लेकिन उनके दावे को मापने की अब तक कोई प्रणाली नहीं बनी है. रिपोर्टो का कहना है कि चीन इन लोगों को किसी तरह की मदद नहीं देता. यूएन से अधिकृतरूप से शरणार्थी का दर्जा मिलने में सालों लग जाते हैं. चीन में भाषा की समस्या के कारण समाज में घुलना-मिलना भी बेहद कठिन है. ऐसे में शरणार्थी सालों तक किसी तीसरे देश में जाने के मौके का इंतजार करते रहते हैं.

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