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बरसो बादरवा मड़ुए के खेत में..

खून-पसीना एक कर कविता रचना, अपने खर्च से उसे छपवाना, फिर डाक-खर्च देकर उसे श्रेष्ठजनों तक भेजना और फिर एक सामान्य स्वीकृति-पत्र की प्रतीक्षा करना एक बहुत लंबी यातना है, जिससे अधिकांश रचनाकार गुजरते हैं. इस जानलेवा गरमी में, जब दोपहर की कड़ी धूप में सिर से पांव तक पसीना बहाता हुआ डाकिया चिट्ठियां देने […]

खून-पसीना एक कर कविता रचना, अपने खर्च से उसे छपवाना, फिर डाक-खर्च देकर उसे श्रेष्ठजनों तक भेजना और फिर एक सामान्य स्वीकृति-पत्र की प्रतीक्षा करना एक बहुत लंबी यातना है, जिससे अधिकांश रचनाकार गुजरते हैं.

इस जानलेवा गरमी में, जब दोपहर की कड़ी धूप में सिर से पांव तक पसीना बहाता हुआ डाकिया चिट्ठियां देने आता है, तो उसके प्रति सहानुभूति के साथ-साथ अपराध-बोध से मेरा ग्रस्त हो जाना लगभग रोज का काम है. चिट्ठियां तो अब कम ही आती हैं, खत में कलेजा निकाल कर रखनेवाले पुराने मित्र भी अब मोबाइल पर एसएमएस देकर काम चला लेते हैं. सूचना तो मिल जाती है, मगर वे हस्ताक्षर नहीं मिलते, जिन्हें सहेज कर रखने का अपना सुख है. पूरी गली में एक मेरी ही डाक हर रोज बिला नागा आती है और उसके लिए डाकिया को इस गली का फेरा लगाना ही पड़ता है. उस डाक में ज्यादातर वे साहित्यिक पत्रिकाएं होती हैं, जिन्हें कभी ओएनजीसी के उदारतापूर्ण विज्ञापन का रसायन देकर मैंने जिलाया था. इसके अलावा बहुत-से कविता संग्रह आते हैं, जिनमें छंदमुक्त रचनाओं का वर्चस्व होता है. कवि मित्रों की यह अपेक्षा भी रहती है कि उन्हें अपनी सकारात्मक प्रतिक्रिया भेजी जाये, जो कभी-कभी संभव नहीं होता. जो पसंद नहीं है, उसकी भी प्रशंसा करना कठिन होता है और अपनी आलोचना कोई सुनना नहीं चाहता. लेकिन इसके बावजूद, उन परिचित-अपरिचित रचनाकारों की सर्जनात्मक ऊर्जा के प्रति नमन करने को हर बार जी चाहता है, क्योंकि यह दौर साहित्य-सृजन के बिलकुल विपरीत है. खून-पसीना एक कर कविता रचना, फिर अपने घर-खर्च से उसे छपवाना, फिर डाक-खर्च देकर उसे श्रेष्ठजनों तक भेजना और फिर एक सामान्य स्वीकृति-पत्र की प्रतीक्षा करना एक बहुत लंबी यातना है, जिससे अधिकांश संघर्षशील रचनाकार गुजरते हैं. ऐसे में कुछ पुस्तकें ऐसी भी आ जाती हैं, जिन्हें पढ़ने के बाद उन्हें संजो कर रखने को जी करता है. मुजफ्फरपुर के रणजीत पटेल द्वारा संपादित ‘गीत बिहंग विहार’ ऐसी ही पुस्तक है, जिसमें केदारनाथ मिश्र ‘प्रभात’ से लेकर संजय कुमार शांडिल्य तक 35 गीत-कवियों के श्रेष्ठ गीत संकलित हैं.

किसानों का बादल को अपने धानखेतों में बुलाने की बात तो बहुत-से कवियों ने की है, मगर मड़ुए के खेतों में बादल को बुलाने की पहल हिंदी-भोजपुरी के वरिष्ठ कवि रिपुसूदन श्रीवास्तव ने एक खास अंदाज में की है: प्यास जागी है बंजर में, रेत में/ बरसो बादरवा मड़ुए के खेत में// सूखे-सूखे से धरती के भाल पर/ बरसो बादरवा पोखर पर ताल पर// आस जागी है बंजर में रेत में..

जब सिद्ध कवि आवाहन करेगा, तो मेघों का बरसना सुनिश्चित है. उसके बाद का हाल महेंद्र मधुकर सुनाते हैं: पहली-पहली वर्षा का जल/ पलकों पर मोती-सा छलका// छोटा-सा सुख है एक पल का..

‘आषाढ़स्य प्रथम दिवसे’ के बाद प्रकृति के परिवर्तित रूप का चित्रण नचिकेता ने इन पंक्तियों में किया है: वनपाखी की चितिंत/ आंखों का डर दूर हुआ/ गाछ, लता, वनफूलों का/ हर दुख काफूर हुआ..

मृत्युंजय ‘करुणोश’ मोती-से छलकते जल से आचमन करते हुए अपनी प्यास बुझाते हैं: छटपटाते होठ, सूखे कंठ को तर कर गया/ प्यास को जो मिल गया, वह जल बड़ा मीठा लगा..

कुछ ऐसा ही रोमांटिक प्रतीकों के सहारे दिनेश ‘भ्रमर’ कहते हैं: कनइल के फूलों का कर्णफूल/ मूल्यवान किसी भी नगीने से// आबदार मोती का हर दाना/ मद्धिम है माथ के पसीने से..

कोसी के घाट से चल कर स्वर्णरेखा नदी के तट तक पहुंची हिंदी की प्रथम नवगीत कवयित्री शांति सुमन घर-परिवार के दायरे में पड़ती स्नेहिल परछाइयों को पकड़ने की कोशिश करती हैं: परछाई टूटती/ हल्दी के अंगों से/ उबटन-सी छूटती// धूप-छंद चट्टानें/ इंद्रधनुष सिरहाने/ यादों की बिटिया/ अंगूठे को चूसती..

शहरों में रहनेवाले मध्यवर्गीय परिवारों की पीढ़ीगत मानसिकता को भाई सत्यनारायण ने बड़ी बारीकी से अपने नवगीत में उकेरा है: आ गये हैं/ हम नये इस फ्लैट में/ पूछती है मां- कहां है घर? है कहां ओटा-ओसारा/ और वह दालान?

यहां युवा कवि विश्वनाथ की यह पीड़ा भी ध्यान आकृष्ट करती है: जो घर अपना था/ वह अब तो/ सपना लगता है// उस घर में तो बस केवल/ अब तपना लगता है..

आज के साहित्यिक माहौल को रवींद्र उपाध्याय नये अंदाज में रेखांकित करते हैं: चांदनी पर लिखो, चर्चा में रहोगे/ घाम पर जो लिख रहा, गुमनाम है..

इस कुटिल होड़ से परेशान नंदकिशोर नंदन भी दुखी हैं: हुआ सफल जो यहां दौड़ में/ और-और की कुटिल होड़ में// पाप उसी का पुण्य धरा पर/ वही देवता पूजा जाये..

वैशाली के संवेदनशील कवि हृदयेश्वर को बांसुरी बजाती बूंदों से अपनत्व है: लहरों को छौंक गये/ पिछले सब गीत-वर्ष/ एक बूंद रुनके तो/ सात पहर गाये/ एक बूंद बांसुरी बजाये..

परिचय के अभाव में उपेक्षित अमरेंद्र कुमार ‘पुनीत’ कहते हैं: परिचय वाली गंध परस, सांसों को महका जाती/ रंग हुए गहरे दिखते हैं, साथ बिताये कल के..

‘मंजिल दूर नहीं’ की आश्वस्ति देनेवाले ज्ञानशंकर शर्मा दार्शनिक प्रश्न उठाते हैं: जग-जीवन की सरित-धार में/ अनगिन जलते दीपक सारे/ जल-जल कर जो बुझ जाते हैं/ उनका क्या अस्तित्व नहीं है?

समकालीन परिदृश्य में अलग पहचान रखनेवाली गीत-कवयित्री यशोधरा राठौर के लिए: आज के माहौल में/ जीना कठिन है/ लोग परिचित भी/ अपरिचित की तरह हैं/ शाम जैसा अंधेरा/ लाती सुबह है..

महानगरीय जीवन के कटु यथार्थ को अभिव्यक्ति देनेवाले संजय पंकज ढहे मुंडेरे पर सोच में डूबी चिड़िया की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट करते हैं: ढहे मुंडेरे बैठी चिड़िया/ जाने क्या कुछ सोच रही है// निश्छल मन चुप बैठी चिड़िया/ अपने ही पर नोच रही है..

ज्वार-भाटों से पस्त कविता के सैकत तट पर गीत के मणिदीप सजानेवाले उदय शंकर सिंह ‘उदय’ कहते हैं: कुनमुनाये शाख पर पत्ते नये/ गीत लहराये कि फिर परचम हुए// कह रहा मुझसे यही गीतिल पवन/ गीत जब तक है तभी शाश्वत भुवन..

संग्रह के सबसे युवा कवि संजय कुमार शांडिल्य अपने समय के इंद्रजाल से सतर्क हैं: रोज किसी ने चुग्गा डाला/ रोज किसी ने जाल बिछाया// रोज किसी ने घाव दिया है/ रोज किसी ने दुख सहलाया..

इन गीतों से गुजरते हुए मेरा भी सारा दिन गीत-गीत हो चला.

डॉ बुद्धिनाथ मिश्र

वरिष्ठ साहित्यकार

buddhinathji

@gmail.com

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