देश में नागरिकता की एक नयी परिभाषा तय होनेवाली है और इसमें डिजिटल टेक्नोलॉजी की मुख्य भूमिका होगी. बात भले अटपटी लगे, लेकिन राष्ट्रीय पहचान पत्र जारी करने की गृह मंत्रालय की योजना को देखते हुए तो यही लग रहा है. मंत्रालय ने महापंजीयक से राष्ट्रीय जनसंख्या पंजी तैयार करने में देश के ‘नागरिक’ और ‘अ-नागरिक’ के बीच भेद स्थापित करने को कहा है.
इसके पीछे आधिकारिक तर्क यह है कि पहचान-पत्र के आधार पर देशवासियों को कल्याणकारी योजनाओं के फायदे या सब्सिडीयुक्त सेवा-सामान दिये जाएंगे. इससे भ्रष्टाचार मिटाने में मदद मिलेगी और कोई अपात्र यानी अ-नागरिक भारतीय राष्ट्र-राज्य के नागरिकों की हकदारी में अपनी हिस्सेदारी न कर सकेगा. लगभग ऐसा ही तर्क पिछली सरकार ने ‘आधार-कार्ड’ जारी करने के पीछे भी दिया था. हां, नागरिक-संगठनों के विरोध के बाद यूपीए सरकार ने आधार-कार्ड को नागरिक होने के पहचान-पत्र के रूप में मान्यता नहीं दी. आधार-कार्ड की योजना को बनाने और चलाने में अरबों रुपये खर्च हो चुके हैं.
अब इस योजना की चूक से सीखना एक बात है और आधार-कार्ड योजना को निरस्त कर नये सिरे वैसी ही एक योजना तैयार करना एकदम ही दूसरी बात. जब यूपीए के समय के आधार-कार्ड और नयी सरकार के नागरिक पहचान-पत्र बनाने के पीछे तर्क और तरीका एक जैसा है, तो फिर क्या यह बेहतर नहीं होता कि आधार-कार्ड योजना को ही जरूरी संशोधन के साथ जारी रखा जाता? दूसरे, पूरे देश में नागरिकता संबंधी एक पहचान-पत्र जारी करने की सोच अपने आप में बहसतलब भी है.
भारत को बहुविध संस्कृतियों का देश इसलिए भी तो कहा जाता है कि यहां कॉस्मोपॉलिटनी सोच वाले लोग हैं, तो जनजातीय मूल्यबोध से जीनेवाले समुदाय भी. खेतिहर संस्कृति के इस देश में कई समुदाय खानाबदोश भी हैं, जिनका राष्ट्रीय पहचान-पत्र शायद ही तैयार किया जा सके, क्योंकि उनके पास अपनी नागरिकता साबित करने के लिए कोई आधुनिक प्रमाण (कागजात) नहीं होता. तो क्या गृह मंत्रालय देश के खानाबदोश या एक बृहत्तर जनजातीय आबादी को नागरिकता-आधारित योजनाओं के लाभ से बाहर रखना चाहता है, उन्हें अ-नागरिक करार देना चाहता है!