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एक समंदर का रेत में समा जाना

तरुण विजय राज्यसभा सांसद भाजपा : जब समाज में केवल अपना फायदा बड़ा दिखे और कायदा बौना बना दिया जाये, तो ऐसे अंधे युग को चिराग से रौशन करने के लिए और सामूहिक हित की रोशनी वापस लौटा लानेवाले जब तक नहीं आयेंगे, तब तक हमारे अंधेरे बढ़ते ही रहेंगे. एक ऐसे माहौल में, जब […]

तरुण विजय

राज्यसभा सांसद

भाजपा : जब समाज में केवल अपना फायदा बड़ा दिखे और कायदा बौना बना दिया जाये, तो ऐसे अंधे युग को चिराग से रौशन करने के लिए और सामूहिक हित की रोशनी वापस लौटा लानेवाले जब तक नहीं आयेंगे, तब तक हमारे अंधेरे बढ़ते ही रहेंगे.

एक ऐसे माहौल में, जब राजनीति और ग्लैमर के लोगों की अंगुली में मोच आ जाये या एलर्जी की वजह से वे दफ्तर न जा पायें, तो पहले पन्ने की खबर बन जाती है, राकेश कुमार का जैसलमेर में अचानक प्राण छोड़ देना न किसी के लिए खबर थी, न शोक संवेदना का कोई खबरों में छपनेवाला मामला. राकेश कुमार और भीक सिंह अपनी सारी जिंदगी देश की रक्षा और समाज के संगठन के लिए दे गये. वे खबर नहीं थे. वे हिंदुस्तान की आत्मा को रुलानेवाले शहीद थे.

राकेश कुमार यानी हम सबके राकेश जी से मेरा परिचय लगभग 20-25 साल पहले जालंधर में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पीली कोठी वाले कार्यालय में हुआ था. मस्त-मलंग, तेज आवाज, चंद्रशेखर आजाद जैसी मूंछें और कबीरदासी फकीरी व्यवहार. हिंदू धर्म की आन, बान, शान के लिए हथेली पर जान लेकर घूमना कोई उनसे सीखे. नौजवानों में बेहद लोकप्रिय. परिवार से दूर हुए, लेकिन हजारों लाखों परिवारों के मानो अभिन्न सदस्य थे. साधारण भाषा में कहा जाये तो वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक थे.

असाधारण प्रतिभा, तीक्ष्ण बुद्धि, लेकिन जिंदगी में ठान लिया था कि अपनी विद्या, अपनी बुद्धि, अपनी डिग्री का इस्तेमाल न अपने परिवार के लिए करना है और न ही अपने कैरियर और भविष्य को चमकाने के लिए. दीवानगी की हद जहां खत्म होती है, वहां से राकेश जी का जीवन शुरू होता था. जिन दिनों पंजाब में आतंकवाद बढ़ा और समाज व जीवन भयभीत व असुरक्षित सा होने लगा था, उस वक्त खाड़कुओं से भयानक रूप से त्रस्त गुरदासपुर, अमृतसर, जम्मू-कश्मीर जैसे क्षेत्रों में उन्हें इसलिए भेजा गया था कि ये अकेला बब्बरशेर लोगों में हिम्मत और हौसला पैदा करेगा.

संघ का प्रचारक होना क्या होता है, यह समझना बहुदा कठिन होता है. आज की चमकदार ग्लैमर वाली राजनीति तथा राजनीति को अपनी मुट्ठी में कंट्रोल करनेवाले महानुभावों की सादगी में लिपटी चाशनी भरी मस्त जिंदगी में डूबे लोग तो और भी पहचान नहीं पायेंगे.

मोमबत्ती की लौ पर हथेली रख कर बूंद-बूंद टपकती रक्तमय चर्बी का दर्द जो सहन कर ले, माथे पर छत से टपकती एक-एक बूंद की अनिश्चित निश्चितता का तन हिला देनेवाला दर्द जो झेल कर सुबह पांच बजे प्रात: स्मरण के बाद काम में लग जाये, जो देश की पीड़ा अपने रक्त में समा कर सबको सिर्फ आशा, विश्वास तथा शक्ति का आधार दे पाये, उसे वह प्रचारक कहते हैं, जो यादव राव जोशी, हो-वे-शेषाद्रि और सूर्यनारायण राव जैसों ने जीकर दर्शाया. राकेश कुमार उस पीढ़ी और पागलपन से नाता रखते थे, जहां अपना सब कुछ लुटाने का मतलब ही होता था सब कुछ हासिल कर लेना. वे किसी को बख्शते नहीं थे. अहंकारी नेताओं और झूठे, चुगलखोर, सिफारिशी, केंचुआछाप लोगों से उन्हें बेहद चिढ़ थी. बहुत रुला गये-राकेश कुमार.

जिंदगी में ऐसे लोग कितने आपको मिलते होंगे जिन्हें न राजनेताओं को कंट्रोल करने का शौक हो, न चुनाव में टिकट दिलवाने, ना तबादले पोस्टिंग के धंधे में पड़ने और ना ही अपने सेवाभाव को माथे पर चढ़ा, कमीज की आस्तीनों में कलफ की तह लगा भृकुटी के इशारों से अपनी महिमा बताने का उत्साह हो, बल्कि जिनको प्लेटफार्म पर चादर बिछा कर सो लेना, दो दिन रोटी न मिले तो भी चेहरे की मुस्कान कम न होने देना और 48 डिग्री तापमान में जैसलमेर की रेत को मुट्ठी में बांध कर वहां से सीमा सुरक्षा के काम में उन्मादी की तरह निकल पड़ना भाता हो?

पड़ोस में कोई बीमार हो जाये, तो अस्पताल ले जाने के लिए वक्त निकालना कठिन होता है, क्योंकि व्यस्तताएं बहुत होती हैं. दफ्तर जाना है, बच्चों के काम हैं, किसी से जरूरी मिलना है. छह महीने वेतन वृद्धि रुक जाये, तो नींद उड़ जाती है. खाना अच्छा नहीं मिले, तो बीवी को मार देते हैं या दोस्तों के साथ शौक पूरा करते हैं. यह जिंदगी ही निरंतर आगे बढ़ने, अपने से बड़ों की चापलूसी-खुशामद करने, अपनों-जो बहुत खास अपने हैं- से ईष्र्या, विद्वेष और शत्रुता रखने, मकान, प्लॉट, फ्लैट पहले एक शहर में, फिर अनेक शहरों में लेने और जिसे आज कहते हैं ‘बुद्धिमत्तापूर्ण इन्वेस्टमेंट’ करने का नाम है.

बच्चे पढ़-लिख जायें, बढ़िया नौकरी, विदेश भ्रमण, शानदार शादी जिसमें एक-आध राष्ट्रीय नेता आ जायें, तो जीवन ही धन्य हो जाता है. इससे बढ़ कर जीवन में रखा क्या है! राकेश कुमार और उनके जैसे देहदानियों ने सिर्फ थोड़ा वक्त, सिर्फ कुछ घंटे नहीं दिये या सिर्फ रविवार की समाज सेवा का काम नहीं किया, उन्होंने अपनी सारी जिंदगी का एक-एक क्षण, अपनी सारी विद्या का एक-एक पन्ना, अपने हृदय की धड़कन का सौ प्रतिशत हिस्सा सिर्फ दूसरों की सेवा और उनकी रक्षा के लिए दे दिया.

अपने भीतर देशभक्ति और सीमा सुरक्षा का समंदर समाये राकेश कुमार और उनके जैसी फकीरीवाले हिंदुस्तान को जिंदा रखे हुए हैं. किसी को पता भी नहीं होगा कि वे कहां के रहनेवाले थे, उनके परिवार में कौन-कौन लोग हैं, उनके माता-पिता जीवित हैं या नहीं, उनकी खबर सुन कर उनकी बहन कितना रोयी होंगी.. किसी को कुछ नहीं पता होगा. उनकी अंत्येष्टि में या तेरहवीं के समय होनेवाली श्रद्धांजलि सभा में वह सब कुछ नहीं हुआ होगा, जो आम तौर पर उन लोगों के विषय में होता है, जिन्हें हम और मीडिया ‘बड़े लोग’ कहते हैं. लेकिन राकेश कुमार जैसे निस्वार्थी, दधीचि की तरह जीवित ही देहदान देनेवाले भारत माता का मस्तक ऊंचा कर जाते हैं और जब अचानक भरी गर्मी में जैसलमेर की सीमा के दौरे पर जाते-जाते गाड़ी पलटने से युवावस्था में ही उनकी अकाल मृत्यु होती है, तो धरती रोती है. ऐसे लोग और बढ़ें, इनका कबीला और विस्तार पाये, इतनी तो प्रार्थना करनी ही चाहिए.

जब समाज में केवल अपना फायदा बड़ा दिखे और कायदा बौना बना दिया जाये, तो ऐसे अंधे युग को चिराग से रौशन करने के लिए और सामूहिक हित की रोशनी वापस लौटा लानेवाले जब तक नहीं आयेंगे, तब तक हमारे अंधेरे बढ़ते ही रहेंगे. हमारी विचारधारा में फर्क हो सकती है, कोई इस बाजू की बात करे या उस बाजू की बात करे या उस रास्ते से जाये जो हमसे अलग हो, मगर जब तक वह अपनी यात्रा ा के अंतिम छोर पर देश का हित साधता है, तब तक वह हमारे प्रणाम का हकदार होता ही है. देश में ऐसे अनेक नौजवान हैं, जो विभिन्न विचारधाराओं के रास्ते पकड़ कर गांव, गरीब तथा गिनती-विहीन समाज की चिंता कर रहे हैं. उन सब के बारे में एक ही बात है, वह है- उनका अनाम और अचीन्हा होना. दूसरों के लिए ऐसे हजारों नौजवान समर्पण की कभी न बुझनेवाली अग्नि हैं.

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