।। दक्षा वैदकर ।।
प्रभात खबर, पटना
..अगर स्कूलों में हिंदी की पढ़ाई का यही हाल रहा, तो समङिाए कि उसका भविष्य खतरे में है. हिंदी के लिए इस चिंता की वजह मैं आपको बताती हूं. दरअसल हमारे यहां एक कॉलेज की कुछ लड़कियां इंटर्नशिप कर रही हैं. सभी पत्रकारिता की छात्रएं हैं और पहले साल में हैं. मैंने उन्हें कुछ विषयों पर लिख कर लाने को कहा. जब उनकी कॉपी हाथ में आयी, तो देख कर बड़ा आश्चर्य हुआ. हर दूसरा शब्द गलत लिखा था.
कुछ गलतियां तो ऐसी थीं कि कक्षा पांच के बच्चे भी न करें. मैंने जब उनसे पूछा कि कॉलेज में जब आपने हिंदी का पेपर दिया, तो मात्रओं और वाक्य-विन्यास की आपकी गलतियों के नंबर कटे नहीं? उन्होंने जवाब दिया, ‘कॉलेज में हिंदी विषय है ही नहीं.’ मैंने पूछा, ‘चलो मान लिया कि कॉलेज में नहीं है, तो स्कूल में तो होगा. फिर हिंदी क्यों ठीक नहीं है?’ वे बोलीं, ‘मैम, हमें हिंदी सिर्फ 10वीं तक ही पढ़ाई जाती है. उसके बाद हिंदी विषय नहीं था.’ मैं इस जवाब से बहुत विचलित हुई.
पहले तो स्कूलों पर और फिर शिक्षा पद्धति पर गुस्सा आया कि उन्होंने हिंदी विषय अनिवार्य क्यों नहीं किया है. दूसरी बात यह कि अगर 10वीं तक भी हिंदी पढ़ाई गयी थी, तो इनकी भाषा इतनी खराब क्यों है? क्या स्कूलों में पढ़ाई का स्तर यही है. इतने बड़े-बड़े स्कूल व कॉलेजों से पढ़ कर निकली इन छात्रओं की स्थिति इतनी खराब कैसे? ऐसा भी नहीं है कि ये सभी खस्ताहाल सरकारी स्कूलों में पढ़ी हैं. सभी संपन्न परिवारों से हैं और नामी प्राइवेट स्कूलों में पढ़ी हैं. जब इस विषय पर अन्य साथियों से चर्चा हुई, तो सभी ने कहा, ‘इहां स्कूलवा में पास होबेला थोड़े ही कोउनो दिक्कत है. चोरिया तो खूब होता है इहां.’ कई साथियों की यह बात सच भी लगी, क्योंकि आये दिन हम अखबारों में यही देखते-पढ़ते हैं कि फलां स्कूल में सामूहिक नकल हुई और फलां विषय का पेपर आउट हो गया.
हॉस्टल में रहते हुए मेरी कई स्कूली बच्चों से बातचीत हुई है. आधे से ज्यादा बच्चे यही कहते हैं कि परीक्षा के समय हमें कॉपी दे दी जाती है. या टीचर हमें चुपके से बता देती हैं. मैं यह नहीं कर रही कि सभी स्कूल ऐसा कर रहे हैं, लेकिन बड़ी संख्या में ऐसे स्कूल हैं, जो अपने यहां से ज्यादा-से-ज्यादा टॉपर निकालने के लिए, अपना बाजार चमकाने के लिए बच्चों को नकल करवाते हैं. बच्चे तो आखिर बच्चे हैं. अगर उन्हें कोई नकल करने देगा, तो भला वे पढ़ाई क्यों करेंगे? आज मां-बाप, शिक्षकों और स्कूल संचालकों की जिम्मेवारी बनती है कि वे बच्चों को पढ़ाने पर जोर दें, उन्हें यूं ही पास न करायें. सबसे जरूरी बात यह कि बच्चों को हिंदी से दूर न रखें. अगर स्कूलों में हिंदी अनिवार्य न भी हो, तो कम-से-कम मां-बाप ही बच्चों को घर में हिंदी अखबार व किताबें पढ़ने की आदत डलवायें. अन्यथा वह दिन भी आयेगा कि बच्चों को हिंदी में केवल अपना नाम लिखना आयेगा.