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कमजोर मॉनसून और महंगाई की लड़ाई

।। राजीव रंजन झा।। (संपादक, शेयर मंथन) इस बार मॉनसून के सामान्य से कमजोर रहने की खबरों ने चिंता बढ़ा दी है. इसका नकारात्मक असर महंगाई रोकने के प्रयासों पर होगा. मॉनसून पर सरकार का जोर नहीं चलता, लेकिन जब पहले से मालूम हो कि एक संकट की संभावना है, तो उससे निपटने के लिए […]

।। राजीव रंजन झा।।

(संपादक, शेयर मंथन)

इस बार मॉनसून के सामान्य से कमजोर रहने की खबरों ने चिंता बढ़ा दी है. इसका नकारात्मक असर महंगाई रोकने के प्रयासों पर होगा. मॉनसून पर सरकार का जोर नहीं चलता, लेकिन जब पहले से मालूम हो कि एक संकट की संभावना है, तो उससे निपटने के लिए पहले से उपाय करने होंगे. एक तरफ जहां कृषि उत्पादन में संभावित कमी का पहले से अंदाजा लगा कर समय रहते आयात करके उस कमी को पूरा करने की रणनीति अपनानी होगी, वहीं देश के अंदर भी यह ध्यान रखना होगा कि लोग मॉनसून कमजोर रहने के नाम पर बेजा फायदा न उठाने लगें. अक्सर संकट का उतना असर नहीं होता, जितना संकट की खबर का, क्योंकि बाजार के अलग-अलग हिस्सों में लोग इसके नाम पर ही जमाखोरी और मुनाफाखोरी में लग जाते हैं.

अकसर खाद्य महंगाई की रोकथाम की सरकारी सोच जन वितरण प्रणाली (पीडीएस) में प्रस्तावित सुधार पर ही अटक जाती है. इस प्रणाली को कारगर बनाना जरूरी है, जिससे जनसंख्या के काफी बड़े हिस्से को राहत मिल सकती है. पीडीएस के सक्षम होने से खुले बाजार पर आनेवाला दबाव भी कम होगा. लेकिन खाद्य महंगाई का एक बड़ा हिस्सा पीडीएस के दायरे से बाहर है. लोग सब्जियों और फल-दूध वगैरह की महंगाई से भी कम त्रस्त नहीं हैं. उन्हें खेतों से चल कर गली-मोहल्ले में घूमनेवाले ठेलों तक पहुंचने के बीच सब्जियों की कीमतों में होनेवाली वृद्धि के चक्र को थामना होगा.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ही नहीं, उनकी पूरी टीम और पार्टी को यह बखूबी पता है कि जनता ने काफी उम्मीदें लगा रखी है, जिनके पूरा न होने पर जनता में उतना ही गुस्सा भी पनप सकता है. इनमें सबसे पहली चीज यही है कि महंगाई से कुछ राहत मिले, लेकिन कमजोर मॉनसून ने मोदी सरकार के लिए सबसे पहले इसी मोर्चे पर चुनौती पेश कर दी है. लेकिन नयी सरकार के अब तक के कदमों से लगता है कि उसे अपने सामने मौजूद चुनौतियों का अहसास है. इसलिए जब मोदी फरमान जारी करते हैं कि मंत्रियों को सुबह 9 बजे से अपने दफ्तर में बैठ जाना है, तो कहीं से ना-नुकर नहीं होती. भ्रष्टाचार के मुद्दे को चुनावी अभियान में जम कर उछालनेवाले मोदी को सरकार की छवि की भी पूरी चिंता है. इसीलिए फरमान जारी हुआ कि कोई मंत्री अपने निजी सहायक जैसे पदों पर किसी रिश्तेदार को न रखें.

नरेंद्र मोदी खुद को केवल सरकार तक सीमित नहीं रखनेवाले, पार्टी संगठन में भी उनकी पूरी और सीधी दखल रहेगी. भाजपा के महासचिवों के साथ बैठक करके उन्होंने यही संदेश दिया. उन्होंने न केवल मंत्रियों पर अच्छे कामकाज के लिए दबाव बनाया है, बल्कि नौकरशाही से भी सीधा संवाद शुरू कर दिया है. उन्होंने प्रमुख मंत्रलयों के सचिवों की बैठक बुलायी, ताकि सीधे उनकी बातें सुनी जायें. सचिवों को अपने-अपने मंत्रालय की बाकायदा प्रेजेंटेशन बना कर लाने को कहा गया है. खबरों के मुताबिक अब मंत्रलयों के बड़े अधिकारी सीधे पीएमओ से संपर्क कर सकेंगे. नरेंद्र मोदी की इस कार्यशैली से लगता है कि मंत्री चाहे जो भी हों, पर मंत्रालय तो खुद उनके पास रहेगा! स्पष्ट है कि नीतिगत जड़ता (पॉलिसी पैरालिसिस) तोड़ने के लिए प्रशासन में विश्वास जगाने की कोशिश की जा रही है. पर साथ ही सरकारी अमले को स्पष्ट संदेश दिया जा रहा है कि उन्हें जम कर काम करना होगा.

मोदी सरकार के आरंभिक कदम बता रहे हैं कि वह मोटे तौर पर आर्थिक उदारीकरण की राह पर चलेगी. शपथ-ग्रहण के दो दिनों के अंदर ही सरकार ने रक्षा उत्पादन में 100 प्रतिशत प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआइ) की अनुमति देने की दिशा में कदम बढ़ा दिया. हालांकि अभी इसका फैसला नहीं हुआ है, बल्कि इस विषय पर विचार के लिए वाणिज्य और उद्योग मंत्रालय की ओर से केवल कैबिनेट नोट बांटा गया है, जिस पर दूसरों की सलाह मांगी गयी है. हालांकि, रक्षा उत्पादन की घरेलू कंपनियों की ओर से इस प्रस्ताव का विरोध भी शुरू हो गया है. एक नजरिया यह भी है कि इस क्षेत्र में प्रवेश के लिए बहुत-सी विदेशी कंपनियां लालायित हैं, इसलिए अभी केवल 49 प्रतिशत एफडीआइ की अनुमति देनी चाहिए. चूंकि भारत सबसे बड़ा रक्षा आयातक देश है, इसलिए एक बड़े ग्राहक के रूप में उसे अपनी शर्तो पर ही विदेशी कंपनियों को इस बाजार में आने की अनुमति देनी चाहिए.

नयी सरकार के लिए बजट वह पहला बड़ा मौका होगा, जब वह विकास दर तेज करने की दिशा में ठोस कदम उठा सकती है. आनेवाले बजट को सबसे ज्यादा इसी कसौटी पर कसा जायेगा कि वह तेज विकास दर पाने में मदद करनेवाला बजट है या नहीं? आर्थिक उदारीकरण को अकसर तेज विकास की कुंजी के तौर पर पेश किया जाता है. भारत बीते एक-डेढ़ दशक में कई वर्षो में 8 प्रतिशत या इससे अधिक विकास दर पाने में सफल रहा है, पर चुनौती इस विकास दर को बनाये रखने की है. इसके लिए कुछ नया और कुछ बड़ा सोचना होगा.

आगामी बजट में यह भी स्पष्ट होगा कि वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) और प्रत्यक्ष कर संहिता (डीटीसी) को लागू करना मोदी सरकार की प्राथमिकता सूची में किस पायदान पर है. जीएसटी के बारे में तो भाजपा के नेता जल्दी लागू कराने की बातें करते रहे हैं, लेकिन डीटीसी के बारे में ऐसे स्वर सुनने को मिले हैं कि इसकी समीक्षा की जानी चाहिए. उद्योग जगत का एक हिस्सा तो डीटीसी के बारे में कहने लगा है कि इसकी जरूरत ही नहीं है, क्योंकि इसमें प्रस्तावित काफी सारी बातें पहले से लागू हैं. डीटीसी के लिए मध्यवर्ग की उत्सुकता मात्र इतनी है कि आय कर छूट की सीमा बढ़ा कर तीन लाख रुपये होगी या पांच लाख. इसलिए यह देखना दिलचस्प होगा कि डीटीसी को लागू करने के बारे में यह सरकार प्रतिबद्ध नजर आती है या नहीं.

जीएसटी को लागू कराने में नयी सरकार के राजनीतिक कौशल की परीक्षा होगी. कांग्रेस के कई नेता ऐसे संकेत दे चुके हैं कि भाजपा ने हमें जीएसटी लागू नहीं करने दिया, अब देखते हैं कि भाजपा कैसे यह काम कर पाती है! लेकिन जीएसटी लागू करते समय मोदी सरकार के लिए असली चुनौती यह होगी कि जनता इसके लागू होने पर कुछ प्रत्यक्ष राहत महसूस कर सके. विद्वान यह बताते रहे हैं कि जीएसटी से विकास दर में 1-2 प्रतिशत की वृद्धि होगी और सरकार की आमदनी भी बढ़ जायेगी. लेकिन सवाल है कि जीएसटी से विभिन्न वस्तुओं के खुदरा दाम घटेंगे या बढ़ेंगे? अगर दाम बढ़ते नजर आये, तो जाहिर है कि उसका ठीकरा मोदी सरकार के सिर पर ही फोड़ा जायेगा.

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