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भारत ने अपने सपने बेच दिये

-हरिवंश- जीवन, समाज, राजनीति से जुड़े मूल सवालों पर बौद्ध दार्शनिक, अर्थशास्त्री और राजनीतिक चिंतक कृष्णनाथ जी से हरिवंश की बातचीत का पहला भाग आपने कल पढ़ा था. आज इसका दूसरा और अंतिम भाग. यह बातचीत फरवरी, 2014 की है. -ध्यान, मौन, समर्पण आदि का सामान्य दृष्टि से क्या महत्व है? ये हमारे जीवन को […]

-हरिवंश-

जीवन, समाज, राजनीति से जुड़े मूल सवालों पर बौद्ध दार्शनिक, अर्थशास्त्री और राजनीतिक चिंतक कृष्णनाथ जी से हरिवंश की बातचीत का पहला भाग आपने कल पढ़ा था. आज इसका दूसरा और अंतिम भाग. यह बातचीत फरवरी, 2014 की है.

-ध्यान, मौन, समर्पण आदि का सामान्य दृष्टि से क्या महत्व है? ये हमारे जीवन को कैसे बदलते हैं?

इन क्रियाओं का महत्व तो सबके लिए है. जो इसको जानता है, उसके लिए भी और जो नहीं जानते, उनके लिए भी. लेकिन जानने और न जानने में थोड़ा फर्क होता है. वह फर्क क्या है? ध्यान तो पृथ्वी करती है, आकाश करता है, अंतरिक्ष करता है. आपको पशु-पक्षी भी ध्यान करते दिखेंगे. लेकिन एक है ध्यानपूर्वक ध्यान करना. ध्यान को समझ कर ध्यान करना. दूसरा है, अज्ञान-जड़ तरीके से ध्यान करना. इन दोनों में भेद हो जाता है. आप पूछेंगे कि कैसे? तो मान लीजिए आप हर्रे खा लें. आप जानते हैं इसलिए खा लिये, दूसरा बिना जाने इसे खा लेता है. लेकिन आप जानते हैं कि इससे पेट साफ होता है. दूसरा नहीं जानता कि इससे पेट साफ होता है. फिर भी उसने खाया तो उसका भी पेट साफ होगा. यह जानने और न जानने से क्या फर्क पड़ता है? इस संबंध में एक दृष्टांत समझिए. एक मणि है. कोई शबर है या भील है, उसके हाथों में कहीं से यह मणि आ गयी. वह मणि को देखता है. उसको लगता है यह तो बहुत सुंदर चीज है. इसी तरह जौहरी भी इस मणि को देखता है. तो जौहरी के देखने और भील के देखने में या जो उसका महत्व नहीं जानता, उसके देखने में जितना फर्क है, उतना ही फर्क है, जान कर ध्यान करने में और अज्ञानता में ध्यान करने में.

-भाग्य, नियति, प्रारब्ध होते हैं क्या? आपने क्या महसूस किया या आप क्या मानते हैं?

इस संबंध में मुझे एक दृष्टांत सूझता है. आप एक बीज रोपिए. उसमें से पौधा निकलता है. वह एक अंकुर पूरे पृथ्वी की जड़ता और सत्ता को चुनौती देकर बाहर आता है. पूरे आकाश के सामने तन कर खड़ा हो जाता है. वह जितना बढ़ सकता है, बढ़ता है. स्वतंत्रता की सीमा तक बढ़ता है. लेकिन वह उड़ नहीं सकता. उड़ते हुए पक्षी जब आकर पेड़ पर शरण लेते हैं, तो सोचता है हमें भी उड़ना चाहिए. लेकिन वह उड़ नहीं सकता. जितना दूर तक वह बढ़ सकता है, उतनी दूर तक स्वतंत्र होने का विस्तार है, उतनी दूर तक वह स्वतंत्र चलता है, लेकिन फिर उसकी एक सीमा आ जाती है. वैसे ही जैसे जीवन की सीमा मृत्यु है. कहीं न कहीं मनुष्य की स्वतंत्रता या उसके कर्मों के फल की या उसकी आकांक्षा की मर्यादा भी दिखायी पड़ती है. अब उसे नियतिवादी बनाना, प्रारब्ध मान लेना, सिद्धांत गढ़ना, हाथ पर हाथ धरे बैठे रहना, इन सब से तो जीवन का निराशा वाला भाग निकलता है. लेकिन कोई सीमा तो दिखती है.

-एक साधारण व्यक्ति की दृष्टि से रमण महर्षि या रामकृष्ण परमहंस बहुत आसान दिखते हैं, पर जब भी हम जे कृष्णमूर्ति या महर्षि अरविंद के करीब जाते हैं, तो साधारण जिज्ञासु की तरह उनको समझने में कठिनाई होती है. आप इसे कैसे देखते हैं?

यह कठिनाई तो सभी को अनुभव होती है. अब रमण महर्षि की और रामकृष्ण परमहंस की जो ऋजुता है या जो उनका एक निश्छल-भोला मुखड़ा है, वह तो दुर्लभ ही है. किंतु जैसे-जैसे जीवन की जटिलताएं बढ़ती जाती हैं, वैसे-वैसे उनको देखने और उनको व्यक्त करने में भी कुछ जटिलताएं आती हैं. चूंकि लोगों की रुचि भिन्न है, मति भिन्न है, इसलिए भिन्न-भिन्न प्रस्थानों की जरूरत होती है. ऐसे ही भिन्न प्रस्थान महर्षि अरविंद के और जे कृष्णमूर्ति के हैं. उनका सामान्य जन में उतना प्रसार होगा, ऐसा मैं कभी नहीं देखता. वो विशिष्ट लोगों की सोच का और खोज का अंग बनेंगे, उनको प्रेरणा देंगे.

-बनारस के संतों के बारे में हमने बहुत सुना-पढ़ा है. योगानंद ने भी जो अपनी आटोबायोग्राफी लिखी, उसमें भी बहुत कुछ लिखा. गोपीनाथ कविराज जी की भी पुस्तकें हमने देखीं. सुनते हैं कि लाहरी महाशय से लेकर अन्य विलक्षण लोग काशी में थे. आप तो यहीं रहे हैं और तिब्बत और बौद्ध धर्म का गहराई से अध्ययन किया. क्या सच में ऐसे संत होते रहे हैं?

हां, रहे हैं, इसमें तो तनिक भी संदेह नहीं. लेकिन काशी में जन्म लेने के बावजूद, शुरू के दिनों में ही हमलोग राष्ट्रीय आंदोलन और फिर समाजवादी आंदोलन में ऐसा पड़े कि इन लोगों के साथ युवा दिनों में मेरा व्यक्तिगत संपर्क ज्यादा नहीं हो पाया. महामहोपाध्याय पं गोपीनाथ कविराज के पास मैं कई बार गया. कई लोग, जो उनसे मिलना चाहते थे, उनके भेंट करवाने गया. हमलोगों को जानते-मानते थे, तो हम उनकी भेंट करा कर वहां से निकल जाते थे. वे लोग आपस में कुछ चर्चा करते थे. बाद में आपकी तरह मैंने भी उनकी वह सब भारतीय संस्कृति, साधना, साधु दर्शन और सत्संग पढ़े. विद्यापीठ रोड पर ही उनका अपना आवास था. हम रोज उसी रास्ते से स्कूल जाते थे, लेकिन उनके पास जाकर कुछ व्यक्तिगत जिज्ञासा का कोई प्रसंग नहीं बना. जो उसमें प्रवेश करते हैं, वो उसके मर्म को ज्यादा बता सकते हैं. मेरा उन लोगों से सिर्फ एक तरह का परिचय होता है. ऐसे दलाई लामा जी तो उनमें से श्रेष्ठतम साधक और व्यक्ति हैं. लेकिन ऐसा कोई अतींद्रिय अनुभव होता हो, कोई विलक्षण और परालौकिक सत्ता दिखती हो, ऐसा कोई मेरा व्यक्तिगत अनुभव नहीं है. आप क्षमा करें मैं इस विषय में आपकी अधिक मदद नहीं कर सकता.

-आप उन चुनिंदा लोगों में से हैं, जिन्होंने हिंदी भाषा की लड़ाई लड़ी. आदिवासियों, अकाल, विषमता के सवाल पर संघर्ष किया. उस जमाने में ‘कल्चरल इंपैक्ट ऑफ फॉरेन मनी’ जैसी किताब लिखी. आज का दौर डेथ आफ डिस्टेंस, इंफारमेशन रिवोल्यूशन, आर्थिक उदारीकरण, ग्लोबल दुनिया का है. आपने आधुनिकता के संदर्भ में कहा था कि यह आधुनिकता नहीं, अमेरिकी संस्कृति का प्रचलन है. तब आपने कहा था कि कैसे किशोर बच्चों में इस तरह की चीजें दिखायी देंगी, जो वजर्नाहीन जीवन जीना चाहेंगे, देह में मुक्ति तलाशेंगे. वह दौर आप देख रहे हैं?

इसे कैसे कहूं. एक पूरा युग ही बदल गया है. उसकी सारी दृष्टि, हरकतें, सब कुछ बदली हुई हैं. अब उसको संस्कृति और विकृति तो अपनी-अपनी परिभाषा के आधार पर कहा जा सकता है. लेकिन आज के युवा-मानस की क्या केंद्रीय सोच है, उन्हें क्या प्रेरित करता है, यह कहना बड़ा कठिन है. ऐसा नहीं है कि युवा सिर्फ इंद्रिय भोग और देह के सुख की तलाश में ही है. ये युवा मुझे दूर हिमालय के क्षेत्रों में या विकट परिस्थितियों में भी मिलते हैं, जिनमें वहां तक पहुंचने की भी वैसे ही उत्कट लालसा है, जैसे रात-रात भर की पार्टियों या डिस्को वगैरह में जाने की होती है. कोई एक प्रवृत्ति नहीं है. मैंने तलाशने की कोशिश की कि वह कौन-सी एक चीज है, जो उनको प्रेरित कर रही है? मैंने अलग-अलग चीजों-केंद्रों के आधार पर जानना चाहा. तो यह कुछ विश्रृंखलित जैसा है. जीवन का कोई उद्देश्य नहीं. जैसे किसी नाव का लंगर खोल दिया है. वह कभी इधर, कभी उधर बहे जा रही है. इसे किताब लिखनेवाले ग्लोबल विलेज वगैरह नाम दे देते हैं. जैसी मैंने आपसे पहले चर्चा की थी, यह जो वैश्वीकरण है, वह अमेरिकीकरण है. और अमेरिका का अपना संकट है. मैं यूनिवर्सिटी ऑफ कोलंबिया में, उन्हीं के कैंपस में रहा. उनकी भी अपनी चिंताएं हैं. वो मुझसे नागार्जुन, कृष्णमूर्ति के बारे में जानना चाहते हैं. मैंने कहा कि सारी दुनिया तो आपके यहां भागी आ रही है, आपको नागार्जुन की क्या जरूरत है? इस पर उन्होंने कहा, नहीं-नहीं बताइए? तो हम इनमें कहीं फंसे हुए हैं. अमेरिकी शताब्दी तो बीत गयी है, लेकिन लोगों को छोटे-छोटे स्वार्थ, जैसे प्रधानमंत्री (मौजूदा नहीं- सं) का और उनके आर्थिक सलाहकार का जो वर्ल्ड बैंक का संबंध है, वो उनको साथ में जोड़े रखता है. उन्होंने जो उनके यहां काम किया, उससे जो मन बन जाता है, तो वह जुड़ जाते हैं. सिर्फ भारत का ही नहीं, पूरे एशिया, अफ्रीका, लैटिन अमेरिका का ऐसा रुख देखने को मिलता है. इसलिए इसमें से कोई एक रास्ता तो निकलना चाहिए, और निकलेगा. लेकिन अभी तो मुझ कोई ऐसा आंदोलन नहीं दिखता, जो उसको नकारते हुए किसी एक दिशा की ओर समूहों को, राष्ट्रों को, कौमों को और उनकी आकांक्षाओं को आकर्षित कर सके. कोई एक या अनेक भी ऐसे केंद्र नहीं दिख रहे हैं.

-कहते हैं, विचारधाराओं की मौत हो चुकी है. विचारधाराएं प्रासंगिक नहीं रहीं. पिछले दिनों मैं प्रधानमंत्री के साथ रूस और चीन दोनों गया. रूस के संदर्भ में मुझे लगा कि जैसे अपने यहां के पुराने जमींदार होते थे, उनका जो पतन होता है, उस तरह लगा. चीन का उदय सचमुच आश्चर्यचकित करता है कि 30-40 वर्षों में एक देश इतनी बड़ी ताकत कैसे बन सकता है? जैसे भी वह बना, पर वो अमेरिका को चुनौती देता दिख रहा है. मेरी दृष्टि में वह भारत के लिए बड़ा संकट है. आप चीन के उदय को कैसे देखते हैं?

असल में, एक समय हमने सपना देखा था कि ये शताब्दी, एशिया की शताब्दी है. भारत, चीन और जापान का एक त्रिभुज है, जो दुनिया को भौतिक और आध्यात्मिक क्षेत्रों में एक दिशा दे सकता है. दुर्भाग्य से भारत ने वह सपना ही देखना छोड़ दिया. इसने अपने सपने को ही बेच दिया. चीन भी ढुलमुल तरीके से कुछ दिन तक चला, लेकिन उसे अब उसका जो अहंकार है, एक सेंट्रल किंगडम होने का, उस जातीय अहंकार ने उसको उस रास्ते पर फिर से खड़ा कर दिया है. अब वो स्वाभिमानी चीन फिर जगा है. लेकिन दुर्भाग्य से भारत और चीन का आंतरिक मेल नहीं बैठ नहीं पा रहा है. जापान तो अमेरिकी आधिपत्य के कारण अपनी आत्मा ही खो चुका था. अब उनकी वो आत्मा लौट रही है. इसलिए मैं चाहूंगा कि किसी तरह भारत, चीन और जापान का त्रिभुज फिर से बलशाली हो सके. इसमें आपस में सुलह-समझ हो सके. आपस में एक स्वप्न, दृष्टि और युक्ति हो. फिर इन देशों के लिए ही नहीं, एशिया के लिए ही नहीं, बल्कि विश्व की संस्कृति के लिए एक नयी राह खुलेगा. ऐसी राह खोलने के लिए पहले तो एक स्वप्न होना चाहिए. अपने अंदर एक कल्पना होनी चाहिए. जैसे रवि बाबू या गांधीजी की थी. जब वो स्वप्न ही नहीं होगा, तो फिर उसकी दृष्टि, शक्ति और युक्ति कैसे बनेगी?

-मूलत: आप अर्थशास्त्र के विद्यार्थी, फिर अध्यापक व चिंतक रहे. इसके बाद आपके व्यक्तित्व में और चीजें, जैसे दार्शनिक, विचारक, पूरी दुनिया की यात्रा का पक्ष भी जुड़ा. लेकिन जो आज का अर्थशास्त्र है, वह लोभी-लालची इंसान-समाज गढ़ रहा है. यह अर्थशास्त्र की कमी है या हम कोई वैकल्पिक राह नहीं तलाश पाये?

अर्थ की जो प्रधानता रही है, वह कोई मार्क्‍स या मार्क्‍सवादी चिंतन की देन नहीं है. धर्म, अर्थ और काम, ये त्रिवर्ग और फिर मोक्ष का एक चौथा वर्ग. यह तो हमेशा से ही मनुष्य की खोज का विषय रहा है. अर्थ जहां धर्म के लिए और काम के लिए साधन जुटाता है, वहीं उसमें लोभ का भी बीज छुपा रहता है. जैसे जीवन के बीच मृत्यु छुपी रहती है या गुलाब के साथ उसका कांटा लगा रहा है, वैसे ही लोभ भी हैं. यह कोई आज की चीज नहीं है. इसलिए यह चिंता मूल में है. किंतु आज के अर्थशास्त्र ने कई प्रश्नों पर सोचना ही बंद कर दिया है. वह बहुत ज्यादा तकनीकी और गणितीय हो गया है जिसे आप इकनामिट्रिक्स कहते हैं. उस व्यवस्था को कबूल कर, उसमें से अधिकतम प्राप्त करने के लिए ही, कुछ समीकरण बनाने तक सीमित हो जाता है यह. कुछ अपवादों को छोड़ कर, जिनमें अमर्त्य सेन का नाम मुझे ध्यान में आता है. प्रो गुन्नार मिर्डल भी एक अर्थशास्त्री थे. यह स्वप्न भी वहां से लुप्त हो गया है. इसलिए ये अर्थशास्त्र की बुनियादी कमी नहीं है, आज के अर्थशास्त्र की एक सीमा है. जैसे एक अंधा, गली में भटक कर हाथ-पांव मार रहा है.

-आप खुद इंटरमीडिएट टेक्नोलाजी और इन सब चीजों की बात करते रहे हैं. जयप्रकाश जी के साथ जुड़ कर या गांधीयन इंस्टीट्यूट में जो प्रयास हुए. प्रो शुमाकर ने ऐसी बात की थी कि बौद्ध अर्थशास्त्र है, बुद्धिस्ट इकानामी. इसमें क्या है? क्या इन सब चीजों में वर्जना है? कहीं कोई बुद्धिस्ट इकानामी जैसी चीज है?

प्रो शुमाकर के साथ मैं एक सेमिनार में शरीक था. जयप्रकाश जी की ही प्रेरणा से और उनकी उपस्थिति में ही, यह गांधी विद्या संस्थान (वाराणसी) में आयोजित हुआ. जब वे बर्मा गये थे, तो ब्रिटिश मूल के लोग (वैसे तो प्रो. शुमाकर जर्मन मूल के होंगे) वहां थे. वहां उनको जो बौद्ध परंपरा में मध्यम मार्ग का जो विचार है कि एक ओर काम का अंत है और दूसरी ओर एक काया को कष्ट देने का अंत, तो इन दोनों को बरज कर जो एक मध्यम मार्ग है, जो इन दोनों का औसत नहीं है, ऐसा बिल्कुल नहीं है कि इसमें से कुछ ले लिया और उसमें से कुछ ले लिया. इनका निषेध करते हुए एक अलग प्रकार का रास्ता, जो इन दोनों अंतों के बीच का है, वो उनके ध्यान में आया था. पहले प्रो शुमाकर इंटरमीडिएट टेक्नोलॉजी की बात करते थे, जो इन दोनों के बीच की हो. तो मध्यम मार्ग कहना या मिडिल मार्ग कहना तो उसी परंपरा में पड़ जाना था. आजकल के चिंतन की एक विशेषता यह भी है कि जब तक आप मौलिक होने का दावा नहीं करें, तब तक आपको कोई मान्यता नहीं मिलती. प्रो कीन्स को भी, जब उन्होंने मार्शल के ढंग के अर्थशास्त्र की कल्पना की थी. मनी वगैरह में, तो उनको सफलता नहीं मिली, पहचान नहीं मिली. जब उन्होंने कहा कि हमारी एक न्यू इकॉनामिक्स है. तो क्लासिकल इकानॉमिक्स से अलग न्यू इकानॉमिक्स हुआ. तो प्रो शुमाकर ने एक नया शब्द इंटीमीडिएट टेक्नोलाजी चलाया था, जो मेरी राय में और उनकी समझ में एक मध्यम मार्ग का नया अवतार था. इस सेमिनार की बातचीत में यह निकला, यह मध्यम क्या होता है? ये तो ये भी नहीं है और वह भी नहीं है, तो यह क्या है? ये तो कुछ बात नहीं बनी, तो इसको आप एप्रोप्रियट टेक्नोलॉजी कहिए. यानी जो उपयुक्त है. लेकिन प्रश्न तो उपयुक्त के साथ भी लगा रहा गया. क्योंकि वो उपयुक्त क्या है? तो जो बड़े पैमान की टेक्नोलॉजी है, उसी को वे उपयुक्त मानते हैं. क्योंकि वो लार्ज स्केल प्रोडक्शन, मैक्सिमाइजेशन ऑफ आउटपुट, प्राफिट वगैरह. तो मैक्सिमाइजेशन वो उसका तर्क है और उसमें तो लार्ज स्केल इकानामिक्स काम करती है. लार्ज स्केल का प्रोडक्शन काम देता है, तो उपयुक्त या एप्रोपिएट में भी वो शंकाएं थी. किंतु वो इंटरमीडिएट टेक्नोलॉजी की जगह पर एप्रोपिएट टेक्नोलॉजी की बात की. यहां की गोष्ठी के बाद से तो स्वयं भी एप्रोपिएट टेक्नोलॉजी की चर्चा की. इसके लिए एक सेल भी उनके निर्देशन में बना. एक प्रो हुडा साहब हमारे मित्र थे. उन्होंने आकर कुछ पानी साफ करके कैसे उसे गांव में पहुंचाया जाये, इसका प्रयास किया. हाथ से चलनेवाले रिक्शे में भी उन्होंने कुछ छोटी सी मशीन बैठा कर कोशिश की. एप्रोपिएट टेक्नोलॉजी का सेल कुछ दिन तक काम करता रहा, फिर वह भी बैठ गया. क्योंकि ये बड़े पैमाने की टेक्नोलॉजी का जो दबदबा है, और जो सारा उसका विश्व बाजार है, उसके आगे ये सब ‘आंधी के आगे बेना का बतास’ के समान हैं. तो वह सब कुछ जमा नहीं. लेकिन वह उनकी कल्पना में बौद्ध या मध्यम मार्ग का प्रभाव है, इसमें दो राय नहीं है.

-मधु लिमये ने एक बार हमें बताया कि महाभारत उन्होंने बहुत बाद के दिनों में पढ़ा. लगभग राजनीति छोड़ दी थी, तो भंडारकर इंस्टीट्यूट (पुणे) से किसी ने उन्हें जन्मदिन पर तोहफे के तौर पर यह किताब दी. इस पर उनकी प्रतिक्रिया थी कि समाजवादी दिनों में हमलोगों ने बहुत चीजों को मिस किया, जो भारतीय मूल की थीं. भारत की संस्कृति-आत्मा से जुड़ीं. यह भी कहा कि महाभारत में जो कुछ है, वो शायद दुनिया में कहीं नहीं है. तो क्या आप समाजवादी जीवन में ऐसी कुछ चीजों से वंचित रहे, जो भारतीय परंपरा की थीं और जिनमें गहरे चिंतन और समझ के बिंदु हैं?

हां, एक हद तक आपका यह सोचना ठीक है. जैसा मैंने आपको शुरू में ही संकेत किया कि महाभारत का शांतिपर्व है, जिसमें भीष्म अपने राजधर्म की व्याख्या करते हैं, वे सब हमारे देश के चिंतन परंपरा का एक अविभाज्य अंग है, लेकिन इस पर नये ढंग से विचार कम ही हो पाता है. इनमें जो शुरू के इसके संस्थापक नेता (समाजवादी आंदोलन के) थे, उनमें आचार्य जी को इस परंपरा का प्रत्यक्ष परिचय था. क्योंकि वो मूल रूप से संस्कृत, पाली और प्रकृति के विद्यार्थी थे और पं गोपीनाथ कविराज के सहपाठी थे. किंतु इस ज्ञान को वो एक अलग खाने में रखते थे. उन्होंने बौद्ध धर्म-दर्शन का भी गहराई से अध्ययन करके, अपने विषय की उस समय की सबसे अच्छी किताब लिखी. किंतु वो उसको एक खाने में रखते थे और नये आदर्शों और नये कार्यक्रमों के लिए नये प्रस्थानों की वो वकालत करते थे. उनके लिए फिर इन दोनों में कोई समन्वय ढूंढ़ना या तालमेल बैठाना, जिसको वो कहते थे कि ये करनेवाली बात नहीं है. जबकि डॉ भगवानदास का मानस था कि प्राचीन और नवीन का एक समन्वय होना चाहिए. आधुनिक और प्राचीन ज्ञान-विज्ञान का, शास्त्र-शिल्प का एक समन्वय होना चाहिए. लेकिन समाजवादी आंदोलन में आप शुरू के नेताओं को देखिए, तो जयप्रकाश जी अमेरिका से सोशियोलॉजी (समाजशास्त्र) पढ़ कर आये थे, डॉ साहब बर्लिन के विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र में पीएचडी होकर आये थे और अशोक मेहता, मुंबई में डेमोक्रेटिक सोशलिज्म वगैरह की पंरपरा थी, उससे जुड़े हुए थे. अच्युत जी ने मुझे कहा कि मेरे लिए जो परंपरा थी, वह मार्शल (अर्थशास्त्री) थे और जो उसके विद्रोही थे, वे कीन्स (अर्थशास्त्री) थे. क्योंकि अच्युत जी अर्थशास्त्र में एमए थे. उन्होंने मुझसे खुद कहा कि हमलोगों का तो एक भारतीयता के लिए एक मोह और एक दूर-दूर का आकर्षण था, लेकिन भारतीय जैसी जो वस्तु है, जो पदार्थ है, उसका कोई साक्षात परिचय नहीं था. आचार्य जी को था. वो बीच-बीच में हमलोगों का मार्गदर्शन कर देते थे. लेकिन ज्यादा वहां से लाकर यहां लगाने के पक्ष में नहीं थे. कुछ नया किये बिना अगर सिर्फ पुराना करेंगे, तो वो पुराना नये मन को पकड़ता नहीं है. उसमें नये का, आधुनिक विचारधाराओं में से मार्क्‍सवाद का, और फिर मार्क्‍सवाद की भी जो आधुनिक आलोचना थी, उनका ही विमर्श होता रहा. और अपने मूल तक जाना और वहां से उसको उठा कर यहां तक उसकी तार्किक परिणति तक लाना, ये चिंतन उन दिनों हो नहीं पाया और फिर कुछ तात्कालिक कार्यक्रम थे. शुरू में स्वतंत्रता का सवाल, फिर कांग्रेस का विरोध. फिर मिलीजुली सरकारों का दौर और फिर उस तरह का समाजवादी चिंतन का क्रम ही टूट गया. इसलिए इस तरह का समन्वय बन नहीं पाया.

-आप राजनीति में रहे, संघर्ष में रहे, उस जगह रहे, जहां से अनेक लोगों को चुनाव लड़वाया. कभी आपको नहीं लगा कि चुनाव लड़ूं, सक्रिय राजनीति में उतरूं?

मेरे मन में दूर-दूर तक यह ख्याल नहीं आया. जब भी मित्र मेरे लिए प्रस्ताव लेकर आते थे, तो मुझको वो एक भोंडी या बचकाना चीज लगती थी. उसमें बहुत तरह के प्रपंच रहते हैं. अपना परिवार, अपनी जाति और अपना कुल आदि. जब उससे मैं निकल गया, तो उधर कभी मन ही नहीं गया. इसलिए जब कभी ऐसा अवसर आया, तो मैं हंस कर टाल देता था.

-समाजवादी चिंता-सरोकार में हमेशा ‘लिमिट्स टू ग्रोथ’ या जो प्राकृतिक संसाधन हैं, वो बहुत सीमित हैं, मसलन पेट्रोल-कोयला वगैरह की बात रही है. आज जो विकास हो रहा है, उसमें बड़े पैमाने पर इनका उपयोग हो रहा है. इसका संकट भी दिखता है. पर्यावरण का संकट, जनसंख्या का दबाव वगैरह. तो दुनिया कहां जा रही है? क्या यह आत्मविनाश की राह है? आप इसे कैसे देखते हैं?

इसमें तो समाजवादी चिंता या चिंतन से भी पहले गांधीजी ने और खासतौर से उनके सहयोगी जे. सी. कुमारअप्पा ने इसमें बड़ा काम किया था. इकानामी अॅाफ परमानेंट. वे बड़े प्रशिक्षित इकानामिस्ट थे, पर उन्होंने फिर चरखा चलाया और कुटीर उद्योग आदि की बात की. जब उत्पादन की पद्धति भी बड़े पैमाने की होगी, तो इसके साथ जीवन भी उसी प्रकार ढलेगा. ऐसा कोई आर्थिक नियतिवाद न भी हो, तो भी इन दोनों का एक रिश्ता तो है ही. आप यह सही कहते हैं कि एक अंधी दौड़ में हम पड़े हैं, जैसे कृतांत का तांडव हो रहा है, और तेजी से भागा जा रहा है. ऐसी ही दौड़ में इस समय दुनिया की अर्थव्यवस्था पड़ गयी है. आपने कभी पतंगे को देखा होगा, कैसे वो तेजी से उस रोशनी की ओर भागता है, जो उसे मृत्यु का निमंत्रण दे रही है. लेकिन उसकी ओर जाने से उसको कोई रोक नहीं सकता? एक अदम्य वासना-लालसा से वह उधर जाता है. वैसे ही मैं इस प्रवाह को एक कृतांत के तांडव के प्रवाह के रूप में देख रहा हूं. उसको हम यहां बैठ कर बात करके क्या करेंगे, कोई सुननेवाला नहीं है? युवा का मन, अधेड़ का मन या वृद्ध का मन, सब उधर भटका हुआ है, तो आप कहते रहिए, वो उसका मन है, उसका रस है. उसी तरह उसको मृत्युरस जैसा पैदा हो गया है. उसको जब तक कहीं टूट न जाये, खत्म न हो जाये और फिर से जन्म हो, तब इन सब बातों का कोई मतलब होगा. नहीं तो आज के समय में लोग गांव की ओर लौटने की बात करना भी छोड़ चुके हैं.

-एक मनुष्य अपनी चेतना का विस्तार इंडिविजुअली (निजी तौर पर) कहां तक कर सकता है? ध्यान से, मौन से, संयम से?

इसकी कोई सीमा नहीं है. क्योंकि उसका (मनुष्य) चित्त आकाश से भी बड़ा है. सात आकाशों के पार जाने की उसमें क्षमता है. लेकिन उसका मन छोटे-छोटे सुखों (इंद्रिय सुख वगैरह) में फंसा हुआ है. तो आप भेज दीजिए उसे मंगल पर, अंतरिक्ष का चक्कर लगवा दीजिए, लेकिन मनुष्य का मन तो वहीं छोटे-छोटे सुख में फंसा हुआ है. वह लौट आयेगा. उसकी तरक्की, उसकी पदवी, उसका सम्मान, एक-दूसरे की खींच-तान.. तो वो स्वप्न ही देखना उसने छोड़ दिया. अगर वो स्वप्न आये, तो उसके चित्त की गति आकाश से भी परे है. यह कोई काल्पनिक बात नहीं है. आज जो अंतरिक्ष पर जा रहे हैं, तो इसका ज्ञान कहां से आया था? अब एक बार अगर आया है, तो पुन: आ सकता है. लेकिन वो हमारी दृष्टि ही खो गयी है. छोटी-छोटी चीजों में, जैसे शुतुरमुर्ग अपनी आंखें और चोंच गड़ा लेता है, वैसे ही हमने गड़ा लिये हैं.

-कहते हैं कि काशी, तीनों लोकों में न्यारी और कुछ विलक्षण है. अभी जो अंधदौड़ है, उससे भी क्या काशी में एक स्थिरता है?

अभी का हाल तो बहुत आशाजनक नहीं है. पर आशा मरती भी नहीं है. वह आकांक्षा से बड़ी है. इतना तो है कि यहां (काशी में) अपने को जानने का, अपने ढंग से जीने की अगर किसी को इच्छा है, तो उसका अवकाश अभी भी यहां है. यही मुझे यहां (काशी) खींच लाता है. नहीं तो बेंगलुरु एक तरह का एयरकंडिशन शहर है. हरितवन है, चंदन वन है.

-सारनाथ में होने का क्या महत्व है?

सारनाथ तो धर्मचक्र प्रवर्तन का स्थान है और यहीं दो अंतों से बच कर, मझिम (मध्यम) मार्ग का चक्र चला. किंतु आजकल तो मुझे यह चक्र, मूलगंध कुटी विहार का जो मंदिर है, सिर्फ उस पर ही लिखा हुआ दिखता है. यह भी धीरे-धीरे उसी दौड़ में पड़ गया है, जिसमें काशी के अन्य क्षेत्र हैं. अन्यथा ये उनसे अलग, एक दूसरी धारा का एक केंद्र था. संस्कृति की एक धारा अगर ब्राह्मण परंपरा को मानें, जिसमें राजा, पुरोहित और कर्मकांड हैं, तो उनको चुनौती देती हुई एक श्रमण परंपरा का, जिसमें बौद्ध और महावीर स्वामी का जन्म और पंथ दोनों ही आते हैं, उसका केंद्र. गांधीजी या डॉ लोहिया जी की परंपरा का भी केंद्र है, जो अपने स्वार्थों से बाहर निकल कर कुछ तप करते हैं और फिर समाज को देते हैं. बोधगया और वाराणसी तो एक नये धर्म चक्र प्रवर्तन का केंद्र थे, लेकिन आजकल तो मुझे यह धर्मचक्र चलता नहीं दिखायी पड़ता है. वो मूलगंध कुटी विहार के शिल्प का अंग बन गया है.

-दुनिया में ह्यूमन डेवलपमेंट (मानव विकास सूचकांक) के साथ-साथ हैपीनेस इंडेक्स (खुशी का सूचकांक) भी बन रहा है. भारत इकनामिस्टों की दृष्टि से ह्यूमन डेवलपमेंट के सूचकांक पर बहुत नीचे है. पर हैपीनेस इंडेक्स में भूटान (जहां यह हैपीनेस इंडेक्स बनना शुरू हुआ) और भारत ऊपर हैं. क्या भौतिक संपदा सही है या मन की सुख-शांति या हैपीनेस?

भूटान नरेश ने हैपीनेस इंडेक्स बनवाया और उसका प्रचार भी हुआ. किंतु जैसा मैंने आपको पहले भी बताया कि वो आनंद व सुख-शांति जब इन देशों में ही नहीं है, जहां इसका मूल है, तो दूसरों के लिए तो सवाल ही नहीं? अगर हमारी थाली में परोसने के लिए कुछ है, तो हम दूसरों को कुछ दे सकते हैं. अगर हमारा परोसनेवाला डिब्बा ही खाली है, तो हम उस सुख को दूसरों को कहां बांटेंगे? यहां जहां उसका कटोरा था, वो कटोरा (आशय-सुख-शांति से) ही खाली हो गया. और उस कटोरे को लेकर हम भिक्षापात्र की तरह इस्तेमाल करके डॉलर जुटाने निकल पड़े हैं. हमारे अपने मूल देश में ही ये चीजें लुप्त हो गयी हैं. तो जब तक कि एक बार यह सचमुच एक ऐसे जगह पर पहुंच जाये, जहां से इसको कहीं लौटने का रास्ता न हो, तो फिर थोड़ा आप ग्राम स्वराज्य और आत्मनिर्भर गांव और सरल, सुखी, निश्छल जीवन की बात कर सकते हैं. अभी तो जैसा मुझे लगता है कि वह दौर इतनी तेजी से उस ओर है, जिसमें कि यह सब एक बकवास चीज ही लगती है. एक अच्छा सुभाषित है, अच्छा-अच्छा कवित्त है, वो कहे जा रहे हैं, उससे थोड़ा मनोरंजन हो जाता है. लेकिन कहीं यह लोगों के चित्त में धंसा हुआ नहीं है. मुझे कहीं नहीं लगा.

-वर्षों पुराना आपका एक पत्र मुझे याद आता है, जिसे आपने बोधगया यात्रा के बाद लिखा है कि हिंदी पट्टी, खासतौर से इस इलाके में तनाव दिखता है. हिंदी इलाकों की हवा में गंध-तनाव है. खासतौर से उत्तर प्रदेश-बिहार के इलाके में तनाव दिखता है. दक्षिण में एक शांति दिखती है, समाज में, उसके मुकाबले आज भी हिंदी इलाके में तनाव-बेचैनी. आप क्या मानते हैं?

दक्षिण में भी अब उत्तर की हवा पहुंच रही है. पहले तो विंध्य के उत्तर और दक्षिण में मैं फर्क महसूस करता था, लेकिन मैं धीरे-धीरे देख रहा हूं कि वो शायद मीडिया और टीवी वगैरह के प्रवेश से, इंटरनेट, ट्वीटर, ब्लाग वगैरह के कारण अब यह एक चीज बन गयी है. ये कोई उत्तर या दक्षिण में विंध्य का विभाजन हो या जैसा पहले नर्मदा को मानते थे कि नर्मदा के उत्तर, उत्तर और नर्मदा के दक्षिण, दक्षिण. ये वैदिक भूगोल था. अब वे सीमाएं ढह रही हैं और वैसी ही उच्छृंखलता और एक तरह की कानूनहीनता, यूपी-बिहार जैसी तो नहीं, लेकिन उसी की ढलान की तरह उधर (दक्षिण में) बढ़ रही है.

-एक व्यक्ति इतनी सारी निराशाओं के बीच कहां से प्रेरणा ग्रहण करे, जीवन जीने की?

निश्चय ही यह प्रेरणा बाहर से तो नहीं मिलनेवाली. बाहर से तो जो दुर्गंध है, वही मिलनेवाली है. सुगंध तो अपने ही अंदर है, कस्तूरी की तरह. कस्तूरी तो अंदर है, लेकिन वो (मृग) इधर-उधर ढूंढ़ता फिरता है. इसी से कुछ आशा दिखती है. जो आशंका है, जो चारों तरफ का अंधेरा है, उसके बीच में भी आशा जीवित रहती है. और आशा उससे बड़ी है. जैसे घना से घना अंधकार हो, रात्रि का अंतिम प्रहर हो, जब सबसे ज्यादा घना अंधकार होता है, शीत होती है, तो उसके बीच में से सवेरा हो जाता है. एक किरण फूटती है और अंधकार दूर होता है और ठंड भी जाती है, फिर से नया जीवन शुरू होता है. ऐसी आशा की किरण और ऐसा सूर्य अपने अंदर ही पैदा करना होगा. बाहर के सूर्य को हमने ऐसे प्रदूषण में खड़ा कर दिया है कि उसकी किरण भी घनी आबादी वाले क्षेत्र में नहीं पहुंच पाती. इस निराशा के बीच से आशा के प्रकट होने से चीजें साफ होंगी. क्योंकि आशा, उससे बलवान है. आशा ही बलवती वह मरती नहीं है. आशा, तृष्णा न मरे, मरि-मरि गया शरीर. कितनी बार यह शरीर मरा-जीया. सभ्यताओं और व्यक्ति का भी. लेकिन फिर-फिर यह जाग जाता है. यह आशा-तृष्णा किसी खराब अर्थ में नहीं, एक स्वप्न के अर्थ में, एक कल्पना के अर्थ में, अब भी है. चाहे आप उसे कुछ भी कह लें.

-मृत्यु को लेकर दुनिया में बड़े शोध हो रहे हैं. खासतौर से पश्चिम में. बुद्ध की परंपरा को लेकर भी. बौद्ध दर्शन उसे कैसे देखता है? जे कृष्णमूर्ति अपने अंतिम दिनों में इस पर क्या सोचते थे?

यह जो आप मृत्यु के बारे में कह रहे हैं, तो पश्चिमी प्रयोगों के बारे में हमलोगों ने जानने की कोशिश की. मृत्यु के जो अनुभव हैं, उन्हें तो कोई ठीक-ठीक नहीं बता सकता? क्योंकि जो मर गया, वह संदेश तो नहीं भेज सकता. जो जीवित है, वो मृत्यु के एकदम निकट भी हो जाये, तो भी वह जीवित है. इसलिए मृत्यु को ठीक-ठीक नहीं कह सकता. ‘नियर डेथ’ (मृत्यु के निकट) अनुभव पर काम कर रहे और कुछ ऐसे प्रयोगों, जिसमें कि लगता है कि वह मर गया और फिर वह लौट कर आता है, जीवित होता है, उसके बीच के अंतराल का जो अनुभव है, से जुड़े दुनिया के बड़े विशेषज्ञों को एक बार हमलोगों ने न्योता. उस समय कृष्णमूर्ति फाउंडेशन में डा सुनंदा पट्टवर्धन थीं. उन्होंने एक ‘ऑन डेथ सिंपोजियम’ भी किया था. उन लोगों ने अपने अनुभव कहे. उसमें एक पद्धति थी. उस पद्धति में माप, उसकी पुष्टि, रिफाइनबिलीटी इतनी है कि मैं नहीं समझ पा रहा हूं कि वो उसके मर्म को ढूंढ़ रहे हैं. चेष्टा उनकी भी है. चेष्टा भारतीयों के लिए, पूरब के देशों के लिए लिख दी गयी है. ऐसी उनकी चेष्टा, उनकी जिज्ञासा है. लेकिन भारत में तो इसके संस्कार, जन्म-मृत्यु वगैरह के, तो उसे घुट्टी में मिले हुए हैं. और इन दोनों में बहुत भेद भी नहीं है. जन्म-मरण का चक्र बार-बार चलता है. ये भवचक्र है. इस भवचक्र में उसका भय है, भवचक्र से निकलने के लिए. प्रार्थनाएं भी देवी-देवताओं की हैं. लेकिन फिर ये भवचक्र, इनमें पड़ना-निकलना, इसका बहुत चिंतन हुआ है. और मैं समझता हूं कि जे कृष्णमूर्ति के लिए भी जीवन और मृत्यु का एक सातत्य है. जो जन्मता है, उसकी फिर मृत्यु है. जब सच में मृत्यु का क्षण आये, तो उसको ऐसे देखना कि जैसे ये जीवन का ही अगला एक चरण है, इसकी परीक्षा मृत्यु के क्षण में होती है. उसके पहले का लिखा-पढ़ा ये सब बेमतलब है. परीक्षा की तो घड़ी तब है, जो मृत्यु दस्तक दे रही है और अभी शरीर में ये प्राण है और ये प्राण नहीं रहनेवाला है, इसके बीच में ही ये परीक्षा है. इससे कम में तो इसके बारे में कहना कोई बहुत अर्थ नहीं रखता. ऐसी ही दस्तक को मैं महसूस करता हूं. ऐसा ही किनारा मुझे दिख रहा है. लेकिन जब उस क्षण भी ये लगे कि नहीं यह तो ऐसे ही है, जैसे एक और यात्रा है हिमालय की, तो ऐसा उस समय भी लगता रहे. अभी ठीक -ठीक वह क्षण नहीं आया है.

-हाल की बात है, जब न्यूजवीक पत्रिका जीवित थी. उसमें हार्वर्ड मेडिसिन इंस्टीट्यूट के न्यूरो साइंस के एक बड़े डाक्टर ने अपने बारे में लिखा कि कैसे सात दिनों के लिए मेरा ब्रेन-डेड हो गया था? कैसे मेरे अनुभव हैं? उनके अनुसार, ईश्वर है और उसको उन्होंने देखा. उनका यह हाल का अनुभव पढ़ा. कृष्ण जी (जे कृष्णमूर्ति) के बारे में लुटिया की किताब में, जीवन के अंतिम दिनों के बारे में कुछ चर्चा है. चूंकि आप इन चीजों पर लिखते-बोलते रहे हैं, तो यह जानने की जिज्ञासा है?

इसके लिए तो वह प्रसंग देख लेना है. ‘लाइफ एंड डेथ ऑफ कृष्णमूति’ प्रामणिक जीवनी है. इस बारे में मैं कहूंगा कि आप उसको देख लीजिए. कृष्ण जी में कुछ था, जो शब्दों में नहीं बताया जा सकता था. वह शब्दों में आ भी नहीं सकता. अन्यथा शब्दों में हमारा कितना विवाद होता था. 1974 से 85 तक प्रतिवर्ष (एक वर्ष इमरजेंसी में वह भारत नहीं आये थे) संवाद होता था. शब्दों में तो आपस में हम हमेशा बात करते थे, लेकिन उनके सान्निध्य में, उनकी उपस्थिति में कुछ था. सुगंध थी, एक सौंदर्य था. इसे शब्दों में नहीं बांधा जा सकता है. बाकी तो जो हाड़-मांस के लोगों की सीमा है, वो थी. उसकी दुर्बलताएं भी थीं.

(इस साक्षात्कार के दौरान पत्रकार निराला भी मौजूद थे, उनका भी इसमें योगदान है)

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