।। नीरजा चौधरी ।।
वरिष्ठ पत्रकार
सत्ता का असली केंद्र मुलायम के पास
बदायूं में दो बच्चियों के साथ गैंग रेप की घटना के बाद सुर्खियों में है उत्तर प्रदेश. राज्य में हत्या, रेप और दबंगई की घटनाओं में बेइंतहा वृद्धि देखी जा रही है. यूपी की समाजवादी सरकार इन अपराधों पर काबू पाने की बजाय हर दिन नये-नये बहाने लेकर सामने आ रही है. मुख्य सचिव और प्रमुख सचिव पर सारा ठीकरा फोड़ते हुए उन्हें हटा दिया गया, लेकिन अपराध थमने का नाम नहीं ले रहे हैं. मुख्यमंत्री अखिलेश यादव कहते हैं कि मीडिया उनकी सरकार को बदनाम करने की साजिश कर रहा है. सरकार अपराधियों से बखूबी निबट रही है.
यह बलात्कार पीड़िता की मां थी, जिसे शिकायत वापस लेने से मना करने पर बुरी तरह से पीटा गया, जबकि अभियुक्त या उसके परिवार वाले को नहीं. यह विचित्र घटना उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के गृह नगर इटावा में घटी. इसके तुरंत बाद, दो दलित लड़कियों के साथ बलात्कार, फिर उनकी हत्या के बाद दोनों का शव पेड़ में लटकता हुआ पाया गया. यह 21वीं सदी की वीभत्स घटनाओं में से एक है. यह घटना बदायूं में घटी, जो अखिलेश यादव के चचेरे भाई धर्मेद्र यादव का लोकसभा क्षेत्र है. इस बार चुने गये हैं. बदायूं पर मचे बवाल ने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री को इस घटना की सीबीआइ जांच के लिए तैयार होना पड़ा. डैमेज कंट्रोल के रूप में चीफ सेक्रेटरी जावेद उस्मानी और प्रमुख सचिव अनिल गुप्ता को हटाना पड़ा.
पीड़िता के परिवार को यह भरोसा नहीं है कि अखिलेश राज में उन्हें न्याय
मिल पायेगा. यह वर्ष 2014 का उत्तर प्रदेश है. इटावा और बदायूं की घटनाएं शुरुआती झलक भर हैं कि महिलाओं के प्रति ¨हंसा, सामूहिक बलात्कार, हत्याएं (अखिलेश सरकार के पहले छह महीने में 2347)और सांप्रदायिक दंगे किस कदर बढ़ गये हैं.
यूपी कुशासन की कहानी बन चुका है. बिजली का संकट, दस-दस घंटे तक लोडशेडिंग का मुद्दा केंद्र और राज्य के बीच राजनीतिक फुटबॉल बन गया है. मुख्यमंत्री ने केंद्र पर सौतेले व्यवहार का आरोप लगाया है और नये केंद्रीय ऊर्जा मंत्री पीयूष गोयल ने अखिलेश यादव पर आरोप लगाया है कि राज्य सरकार उन इलाकों में बिजली काट रही है, जहां लोगों ने भाजपा का वोट दिया है.
40 वर्षीय मुख्यमंत्री को सत्ता संभाले अभी दो वर्ष ही हुए हैं. उनसे लोगों की जितनी अपेक्षाएं थीं, उतनी हाल के दौर में नहीं देखी गयीं. उनके दोस्ताना व्यवहार, पहुंच में रहनेवाला व्यक्ति, अपने बीच का बच्च, पढ़ा-लिखा (अखिलेश ने ऑस्ट्रेलिया से पर्यावरण इंजीनियरिंग की पढ़ाई की है.) होने की छवि के कारण यूपी को एक बदलाव का अहसास हुआ था. अब तक समाजवादी पार्टी की गुंडागर्दी वाली छवि बनी हुई थी.
जो छवि 2014 में नरेंद्र मोदी को हासिल हुई है, वैसी ही छवि उत्तर प्रदेश में लाल टोपी पहने साइकिल की सवारी करते अखिलेश की थी. दोनों ने आकांक्षावान भारत का प्रतिनिधित्व किया. उनका आकर्षण सभी जातियों और समुदायों में रहा है. इस माहौल ने समाजवादी पार्टी को 403 में 224 सीटें दिलायीं, तो मोदी को 543 में 282 सीटें दिलायी.
मगर, अखिलेश ने तुरंत यह सब खो दिया. यादव परिवार की इस युवा पौध के साथ क्यों इतना बुरा हुआ? अगर इसे चंद शब्दों में कहा जाय, हालांकि यह बहुत ही कटु लग सकता है, तो इसके लिए जवाबदेह उसके पिता हैं. यह मुलायम सिंह का परमादेश है, जो परदे के पीछे से चलता है. यह कोई ढकी-छुपी बात नहीं है कि आला अफसरशाहों को मुलायम सिंह ने नियुक्त किया. ये अफसर मुलायम सिंह को ही रिपोर्ट करते हैं. जब स्थितियां बिगड़ गयीं, तो मुलायम सिंह ने सार्वजनिक रूप से अपने बेटे की भर्त्सना की, एक बार नहीं, बल्कि कई अवसरों पर. चीजें ठीक हो सकती थीं, अगर 2012 में मुलायम सिंह के हाथ में सत्ता की बागडोर होती और अखिलेश को उप मुख्यमंत्री बनाया जाता. यह ज्यादा अच्छा होता, बजाय इसके कि ऐसे अखिलेश के हाथ में कमान हो, जिसके हाथ और पांव बंधे हों.
अखिलेश की मुश्किलें जो बढ़ी हैं, उसका मूल उनकी ही पार्टी के डीएनए में है. यह तब भी सामने आया था, जब समाजवादी पार्टी के सरकार में आते ही पार्टी कार्यकताओं ने शक्ति प्रदर्शन का उधम मचाया था.
राज्य में बड़ी संख्या में जो पुलिस थाने हैं, उसके थानेदार-पुलिसकर्मी यादव ही हैं, जो दबंग नेताओं के रिश्तेदार हैं. राज्य के बाबुओं को मालूम है कि इनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं होगी, चाहे इटावा हो या बदायूं.
एक तरफ अखिलेश कमजोर होते रहे और दूसरी तरफ शिवपाल यादव जैसे यादव कुल के अन्य सदस्य या इसी कुल के सम्मानित पारिवारिक सदस्य आजम खान जैसे लोग मजबूत होते रहे. आजम खान अपना मंत्रालय ऐसे चलाते हैं, मानो उनकी जागीर हो. ऐसा ही मनमोहन सिंह सरकार में भी हुआ. यादव परिवार के भीतर चलनेवाली रस्साकशी निर्विघA रूप से बढ़ती रही है.
इस पर भी काफी विवाद है कि मैनपुरी लोकसभा क्षेत्र से कौन लड़ेगा. इस सीट को मुलायम सिंह ने खाली किया है. उन्होंने आजमगढ़ सीट रखना तय किया है. तो फिर कौन लड़ेगा? क्या उनका बेटा प्रतीक यादव? या पोता तेजप्रताप सिंह, जो विवादित सैफई महोत्सव का मुख्य चेहरा है! चाहे जैसे भी हो, यह सीट रहेगी परिवार के भीतर ही.
मनमोहन सिंह की तरह अखिलेश भी सख्ती से अपनी सत्ता का अधिकार जता पाने में सक्षम हैं. मनमोहन सिंह ने दिखाया है कि वह सख्त हो सकते हैं, जब उन्होंने ऐसा करना चाहा. भारत-अमेरिका परमाणु समझौते पर उनका रुख जगजाहिर है.
अखिलेश ने भी अपनी सख्ती का परिचय दिया है, जब वह सक्षम थे. उन्होंने यूपी के डॉन डीपी यादव की पार्टी में दोबारा इंट्री पर रोक लगा दी थी. यहां तक कि तब आजम खान भी डीपी यादव के पक्ष में थे और पार्टी प्रवक्ता मोहन सिंह ने सार्वजनिक रूप से डीपी यादव के पार्टी में आने का स्वागत किया था. अखिलेश के पक्ष में यह 2012 के चुनाव अभियान का टर्निग पॉइंट था, ठीक उसी तरह जब मनमोहन सिंह ने परमाणु समझौते पर कड़ा रुख अख्तियार किया था तो मध्य वर्ग ने उनकी काफी तारीफ की थी. इसी मध्य वर्ग ने 2009 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को वोट दिया था.
अब ऐसा लगता है कि यूपी के मुख्यमंत्री अधोगति की ओर हैं, चाहे वह जो कर लें. इस स्थिति ने एक अनिवार्य प्रश्न सामने खड़ा कर दिया है: उत्तर प्रदेश में लोकसभा चुनाव में भाजपा ने शानदार प्रदर्शन किया है, तो क्या केंद्र सरकार राज्य में जंगल राज का हवाला देकर राज्य सरकार को अपदस्थ कर देगी? अगर ऐसा हुआ तो यह अलोकप्रिय सरकार के लिए सहानुभूति का कारण बन जायेगी. इसकी बजाय नरेंद्र मोदी वर्ष 2017 तक इंतजार करेंगे, ताकि समाजवादी पार्टी को खुद अपने गले में फंदा डालने के लिए एक लंबी रस्सी मिले.
(सौजन्य : द इकोनॉमिक्स टाइम्स)